‘भारतीय रिजर्व बैंक’ का जारी किया हुआ सब
नोट पर लिखा रहता है कि “मैं धारक को .....रुपये अदा करने का वचन देता हूँ. दस्तखत – गवर्नर –
भारतीय रिजर्व बैंक.” जब छोटा थे त सोचते थे कि ई लिखने का का जरूरत है. अऊर ई बात सोचकर हंसी भी आता था कि दस रुपया का नोट के बदला में दस
रुपया देने का वचन काहे दे रहे हैं. ई त जानले बात है कि दस रुपया के बदला में दस
रुपया मिलेगा अऊर सौ रुपया के बदला में सौ रुपया, इसमें वचन देने वाला कौन बात हो
गया!
जब
बड़ा हुए, तब जाकर समझ में आया कि इसके पीछे का कारन है. असल में एक रुपया भारत
सरकार का करेंसी होता है अऊर उसके ऊपर का सब नोट, भारत सरकार के गारण्टी पर रिजर्व
बैंक जारी करता है. इसीलिये रिजर्व बैंक के गवर्नर को वचन देने का जरूरत पड़ता है
कि ऊ दस रुपिया के बदला में भारत सरकार का एक रुपिया वाला दस नोट अदा करेंगे. जान
जाने के बाद मोस्किल से मोस्किल सवाल भी बहुते आसान लगने लगता है. बहुत-बहुत साल
पहिले ‘हिन्दुस्तान टाइम्स” का एगो साप्ताहिक टैबलॉयड आता था “मॉर्निंग ईको.” आठ-दस पन्ना का पत्रिका जइसा अखबार. उसमें
एगो कॉलम था “Something you never
wanted to know, but were always asked” माने अइसा बात जिसको जानना आपके लिये जरूरी नहीं, मगर जानने में
नोकसान भी नहीं. कहने का मतलब कि हम जौन ज्ञान ऊपर बाँच रहे थे, उसको इग्नोर भी कर
सकते हैं आप लोग.
हाँ
त हम कह रहे थे कि जब गवर्नर का दस्तखत किया हुआ नोट हाथ में हो (जाली नोट को छोड़कर) त उसको सुईकार करने
में त कोनो आपत्ति नहीं होना चाहिये किसी को. नेपाल में जब राजसाही था, तब नोट
चाहे केतना भी गन्दा हो मगर उसको लौटा देना, चाहे लेने से मना कर देना, राजा का अपमान समझा
जाता था. दुबई में भी हम देखे कि नोट चाहे केतना भी पुराना हो, चाहे कटा-फटा हो,
लेने से कोनो दुकानदार, बैंक, चाहे आदमी मना नहीं करता था.
मगर
अपना देस में त अजब हाल है. तनी सा पुराना नोट, कोना से कटा हुआ नोट, बीच से मुड़कर
जरा सा फटा हुआ नोट, कोनो रेक्सा वाला, टैक्सीवाला, तरकारी वाला को दीजिये त तुरते
मना कर देगा लेने से. बोलेगा – दूसरा नोट दीजिए, ई नहीं चलेगा. अगर आपका बात सुनकर
अऊर बिका हुआ माल वापस हो जाने का डर से ऊ मानियो गया, त आपको अइसा हिकारत भरा नजर
से देखेगा कि आपको अपने ऊपर ग्लानि होने लगेगा. ओइसे भी सारा दुनिया का चलन है कि
नयका नोट हाथ में आते ही दबाकर रख दिया जाता है अऊर जेतने पुराना नोट हो-ओतने
चलाने का कोसिस किया जाता है. अब त देस में आदमी के साथ भी एही होने लगा है. नीमन
आदमी दबा दिया जाता है अऊर चोर सब खुल्ले घूमता रहता है.
ई
मामला में हमरा गुजरात का अपना अलगे रंग है. एहाँ का लोग पइसा पहचानता है अऊर
गवर्नर का दस्तखत. बाकी नोट त नोटे होता है. अब बताइये भला कि सोना का कंगन अगर
नाली में गिरा हुआ हो त का उसका मोल कम होता है? नहीं न, तब भला गन्दा होने से
रिजर्व बैंक के नोट का भैलू (वैल्यू) कइसे कम हो सकता.
हमरे
भावनगर में त पाँच का नोट का अपना अलगे पहचान है. गला हुआ नोट को दो तह में मोडकर
उसको एगो छोटा सा पॉलीथीन में बंद कर दिया जाता है अऊर ओही नोट बाजार में चलता है.
न लेने से कोई मना करता है, न देने में कोनो आदमी को खराब लगता है. बहुत सा देस
में चलता है प्लास्टिक का नोट, मगर इहाँ पर नोट को दुर्दशा से बचाने के लिए उसको
प्लास्टिक में बंद करके रखा जाता है.
भावनगर
में जब हम आये त लोग हमको मजाक में बताया कि इसको बरिस्ठ नागरिक का सहर कहते हैं.
दू महीना में समझ में आ गया. सचमुच होटल (रेस्त्राँ) में देखिये त पूरा परिवार
अपने बुजुर्ग के साथ खाना खाता देखाई देता है, पार्क में भी सब साथे. हमरे ऑफिस
में भी आने वाला दस में से आठ आदमी सत्तर साल या उससे बेसी उमर का होता है. कमाल ई
कि जिसको आप मुस्कुराकर प्रणाम कर दिए ऊ आपके माथा पर हाथ रखकर आसीरबाद देता हुआ
जाता है.
बुजुर्गों
का हमरे ऊपर हाथ होना त अनमोल बात है, लेकिन भावनगर में उनका कीमत पाँच रुपया से
जादा नहीं हैं. चौंकिये मत, पाँच का नोट जइसा अपने बुजुर्ग को भी लोग हिफाजत से
प्यार के पॉलीथीन में लपेट कर रखता है, उनका झुर्रियाँ समेटकर. ई लोग चाहे केतना भी
पुराना हो जाएँ, इनका चलन कभी नहीं रुकता है. एही लोग त हमारा कल हैं, काहे कि हमारा
आज हमको एही लोग से त मिला है.
वाह क्या बात है ... बुजुर्गों का हमारे ऊपर हाथ होना सच मे एक अनमोल बात है ... पर न जाने क्यूँ ये ऊपर वाला आजकल इस बात नहीं समझ पा रहा है ... गलती पर गलती किए जा रहा है !
जवाब देंहटाएंदुर्गा भाभी को शत शत नमन - ब्लॉग बुलेटिन आज दुर्गा भाभी की ११० वीं जयंती पर पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और पूरे ब्लॉग जगत की ओर से हम उनको नमन करते है ... आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
हटाएंक्या कहने -एक समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा की साक्षी बने हैं आप !
जवाब देंहटाएंवाह सलिल जी ...नोटों के बहाने जीवन का बड़ा अनुभव बांटा है आपने हमारे संग.
जवाब देंहटाएंपुराने नोटों का चलन में रहना इस बात का सबूत है कि लोगों को अपने सरकार पर विश्वास है, हृदय में राष्ट्र के प्रति सम्मान है। बुजुर्गों का समाज में चलते-फिरते दिखना, बच्चों का उन्हें लेकर घूमने निकलना और उनका प्रसन्न चित्त दिखना इस बात का सबूत है कि वहाँ के लोगों में संवेदना है, पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ सभ्य हैं, संस्कार अच्छे हैं।
जवाब देंहटाएंआपने जिस तरह से पुरानी मुद्रा को बुजुर्गों से जोड़ा वह गज़ब है। पता नहीं यह संजोग है या मानसिकता का साम्य कि जहाँ-जहाँ लोग पुराने नोटों को लेने से अधिक इंकार करते पाये जाते हैं वहाँ समाज में बुजर्गों के सम्मान में कमी भी देखी जाती है।
इस मानसिकता के साम्य पर तो शोध होना चाहिए।
बकिया सब तो ठीक लाग पर बुजुर्गों को पाँच रुपैया की नोट के जैसन भैलुआना नीक नय बा !
जवाब देंहटाएंबुजुर्गन की हिफाज़त हमरी जिम्मेदारी है और पइसा की हिफाज़त हमरी ज़रूरत !
...काश बिना स्वार्थ के यह बात हम समझ सकते !!
Sach me buzurgon ko akele na chhodna ye to bahut hee achhee baat hai...
जवाब देंहटाएंHamare gaon me Promissory note ko parmeshwari note kahte the!
क्षमा जी! हमारे गाँव में भी "हैंड नोट" को 'हिन्गलोट' कहा जाता था... शायद अब भी कहा जाता हो!!
हटाएंसर ,
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग पढ़ा , पढ़ के एगो देसीपन सा महसूस हुआ |
लोग-बाग जो बात का इत्ता खिंच-तान कर कहते हैं , आपने कितने आराम से और कितने अपनेपन से कह दी |
मैं पक्के तौर पे कह सकता हूँ कि ये ब्लॉग मेरे पढ़े हुए सबसे अच्छे ब्लोग्स में से एक है |
सादर
आकाश
(:
हटाएंsahi jagah tape hau babua.....ab dekha kaisan..kaisan ratan ee jagat me mile ba'
khoob padh' aur khoob naam kara'....
sa-sneh...
आपके लेख पर याद आ गया कि कभी पढ़ा था ...बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है ....
जवाब देंहटाएंऔर शायद नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को चलन से बाहर का रास्ता दिखा देती है ....
गुजरात इन दोनों ही बातों का अपवाद है यह जानकार बहुत अच्छा लगा । आभार
अब चाहे नया या पुराना, गवर्नर का साइन तो है..
जवाब देंहटाएंदो बातें सलिल भाई...
जवाब देंहटाएंदेखिये कित्ता अच्छा लगने लगा आपको गुजरात....फटे नोट चलते हैं...बुजुर्गों का सम्मान है...बुज़ुर्ग आशीष देते कंजूसी नहीं करते...और आप वहाँ जाते घबरा रहे थे :-)
दूसरी बात -आपको पढ़ना भला लगता है...चाहे जो लिखिए..
सादर
अनु
ऐसे कुछ पोलिथिन पांच के नोट के साथ ही हमारे पास भी पड़े हैं, जब मैं गुजरात में थी तब के. सोच रही हूँ इन बुजुर्गों को आपके पास पार्सल कर दूं.
जवाब देंहटाएंएक जानदार शहर का शानदार किस्सा बयान किए हैं आप। बहुत सी नई जानकारी मिली, जिसको जान लेने में कोई हर्ज़ नहीं था।
जवाब देंहटाएंसब तरफ़ की चमद-दमक के बीच रिश्तों की अहमियत और बुजुर्गों के सम्मान पर आधारित यह पोस्ट बहुत कुछ प्रेरित कर गया।
सिर पर हाथ बनाए रखिएगा ... अब हम ई नहीं कह रहे कि आप भी झुर्रिया गए हैं। :) लेकिन हमरे लिए पंच टकिया के तरह बेसकीमती त हइए हैं।
रोचक हमेशा की तरह बिहारी ब्लागरजी
जवाब देंहटाएंऐसे नोट हमारे छतीसगढ में भी सहज ही स्वीकार किये जाते रहे है .हाँ पार्क के मामले में थोडा अलग है कुल लखैरे दिखले सन का कहल जाये राजनेति में उहे लोग बाडन देस सरातल में जात बा रोज्जे
जाकी रही भावना जैसी । आपको हर जगह कुछ न कुछ अच्छा मिल ही जाता है । नए नोट की कुछ न पूछिये । इसी प्रवृत्ति के कारण मेरी किताब व डायरियों में नए नोट मिल ही जाते हैं । एक बार वेतन में ( तब वेतन हाथ में ही आता था )पाँच के नोटों की नई गड्डी मिली । उसे बचाए रखने की कोशिशों में जाने कितने खर्चों में कटौती करनी पडी लेकिन उसे खर्च तो होना ही था । बकरे की माँ कब तक खैर मनाती...। देर से ही सही एक अच्छा प्रसंग पढने मिल गया ।
जवाब देंहटाएंबड़ा सुंदर लेख लागल
जवाब देंहटाएं.. मेरे भी ब्लॉग पर पधारे
बढिया लेख
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बुज़ुर्ग यानि मकान की नींव, नींव का आशीष ....सौभाग्य .
जवाब देंहटाएंरुपया के ऊपर लिखे का अर्थ जाने ...
चकाचक जानकारी! अच्छा लगा बांचकर! भावनगर के और किस्से लिखे जायें।
जवाब देंहटाएंचौंका देती है आपकी हर पोस्ट.... रिश्तों को सहेजने की कला गुजरात में पहले से है... आपकी दृष्टि और उस से नया कुछ देने की पहल से अभिभूत हूं...
जवाब देंहटाएंबढ़िया लागल ई पोस्ट पढ़ के...अतीत के झरोखे से कुछ नया जाने के मिलल...आउर साथे-साथ एगो बात पता चलल कि पूरे चाहें,फटे-पुराने नोटों से कहीं ज्यादा अहमियत इस जिंदगी में,बुजुर्ग लोगों की है क्यूंकि "एही लोग त हमारा कल हैं,काहे कि हमारा आज हमको एही लोग से त मिला है"
जवाब देंहटाएंइसे पढ़कर तो अपना इम्पोर्टेड रुपया याद आ गया. लिंक है -
जवाब देंहटाएंhttp://raviratlami.blogspot.in/2005/03/blog-post_09.html
रवानी तो सारी पोस्ट की वही पुरानी जैसे है, साथ बहाकर ले जाने वाली लेकिन आखिरी पैरा तो बस दिल लूट कर ले गया।
जवाब देंहटाएंgar adesh di.....t' F I R.....darz karal jai.....dil loote bala par?????
हटाएंpranam.
सलिल बाबू गहरी बात लिख दिए थोरे मा.
जवाब देंहटाएंएक बार अहमदाबाद से आते हुए ऐसा पॉलिथिन सँरक्षित 5 का नोट जेब मेँ रह गया, यहाँ मुम्बई मेँ भुनाना चाहा पनवाडी नेँ मुँह बिगाडते हुए कहा "यह सब तुम्हारे गुजरात मेँ चलता है" वापस गुजरात जाने पर ही भुना पाया.
जवाब देंहटाएंआज आपकी यह तुलना देख मुम्बई की मानसिकता पर दया आने लगी. गुजरात की "वडील" आदर सँस्कृति की सराहना आपके शब्दो मेँ अच्छी लगी.
आभार, सलिल जी.
nayee-nayee jankariyon ke sath......bahut sunder lekh.
जवाब देंहटाएंआप एक सामान्य सी लगनेवाली विषय-वस्तु को लेकर बड़ी सरलता से गहराई में उतर जाते हैं। पोस्ट पढ़ते-पढ़ते पाठक कब अपने अन्तर में प्रवेश कर जाता हैं, पता ही नहीं चलता। बहुत ही प्रेरक पोस्ट है।
जवाब देंहटाएंचलिये, कहीं तो जगह है, जहां पुरखा पुरनिया की कीमत है। नहीं तो बाकी जगह लोग साल दस साल में एक बार गया ले जा कर धकेल आते हैं याद और मुक्ति!
जवाब देंहटाएंभावनगर का यह पक्ष मुझे नहीं मालुम था!
ईश्वर करे ये चलते रहें...चलते रहें ...
जवाब देंहटाएंबातें पुराने नोटों की और अनुभव बड़ी खूबशुरती जीवन का बांटा है,,,,उम्दा आलेख के लिये बधाई,,,,सलिल जी,,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
झुर्रियों की संभाल पॉलिथिन के बजाय उन्हें सहेजने की कोशिश में नजर आई।
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट...
भाव भरा नगर, भावपूर्ण पोस्ट! लगा जैसे आज कुछ-कुछ समझ आया हो कि भले लोगों के गाँव में सबके बिखरने की कामना करने वाले सन्यासी के मन में क्या छिपा था।
जवाब देंहटाएंभावनगर को इतने भाव से जी रहे हैं आप !!
जवाब देंहटाएंबहुत दिनो बाद आना व्यर्थ नही गया इतना भावपूर्न लिखा है कि मन प्रसन्न हो गया। कैसे हो? अब आती रहूँगी। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंpahli baar gujraat ki is sankriti ko jana aur apne bharatwasi hone par garv hua....yahi sanskriti sab jagah laagu kar di jaye aur sab khushi khusi ise sweekar karen to bharatwasi hone ke garv k sath sath aankhi bhi garv ki chamak se bhar jayen.
जवाब देंहटाएंBahut hi shandaar aur jaandar !
जवाब देंहटाएंभावनगर के ई भाव
जवाब देंहटाएंमन को बड़े लुभाय.....
गुजरात में ज्यादातर संयुक्त परिवार होते हैं और आज भी वहाँ बुजुर्ग हेड ऑफ द फैमिली होते हैं. उनका रूतबा भी होता है...और उनकी इज्जत और देखभाल बड़े प्यार से की जाती है ,वही पुराने पड़ गए पांच रुपये के नोट की तरह .
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट में एक बात और नोटिस की...भाषा का प्रवाह ज्यादा अच्छा लगा....और बिहारी भाषा लिखने की ज्यादा कोशिश नहीं दीखी...जो भी शब्द आए ..अपनी सहजता से आए .
एकबारगी त माथा चकरा गइल की ई बिहार में गुजरात टहरता की गुजरात में बिहार ....
जवाब देंहटाएंपांच के रुपिया औरी पैसठ के मनई लेखा सलिल भाई आपौ प्लास्टिक कवर में सहेज के राखै वाला आईटम बानी |
नज़र ना लगे |
बहुत सार्थक पोस्ट ....सहज प्रवाहित भाषा ने इसे और भी रोचक बना दिया और साथ ही प्रणाम करते हैं भावनगर के भाव को
जवाब देंहटाएंवास्तविक धन तो हमारे बड़े-बुजुर्ग ही हैं। उन्हें तो हृदय में लपेट कर रखना चाहिए।
जवाब देंहटाएंप्रतीकों के माध्यम से आपने हमारी समृद्ध संस्कृति का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत किया है।
one of the best post of yours.. :-)
जवाब देंहटाएंआपकी लेखन शैली मन को बेहद भाती है ... जितना इस समय आपको भावनगर भाने लगा है ... बेहद सार्थक एवं सशक्त लेखन
जवाब देंहटाएंसादर
लो जी इससे तो हमारे बनारस में धंधा कर रहे लोगो के पेट पर लात पड़ जाएगी जो कटे फटे नोट बदलने का काम करते है कुछ पैसा ले कर नोट बदल देते है :)
जवाब देंहटाएंबुजुर्गो की देखभाल एक तरफ़ा नहीं होती है ये देखभाल वाला चलन दोनों तरफ से होता है , गुजरात में संयुक्त परिवारों का प्रचलन है जहा घर के बड़े के हाथ में सब होता है और वो सब पर हुकूमत करने की जगह सभी की इच्छाओ और जरूरतों का ख्याल रखता है सभी के नीजि अस्तित्व को दबा नहीं देता है जबकि मैंने हिन्दीभाषी प्रदेशो में देखा है बड़े बुजुर्ग तानाशाही रवैया अपनाते है और जिसका प्रतिसाद दोनों जगहों के बुजुर्गो को उसी हिसाब से मिलता है | समय के साथ बदलना हमारे कुछ बुजुर्गो ने नहीं सिखा है |
देखा...और आप दिल्ली नहीं छोड़ना चाह रहे थे कितने दुखी थे. ऐसा प्यार देखा था दिल्ली में?गुजरात, राजस्थान में अभी भी इंसानियत का मोल है.
जवाब देंहटाएंऔर आपने बहुत अच्छे से लिखा भी है.
आनन्द आ गया। चोर बाहर हैं और साहूकार अन्दर! वाह क्या बात है! भावनगर जैसे कई शहर बुजुर्गों के शहर होते जा रहे हैं। युवापीढी तो दौड़ने में लगी है तो वो तो शहर, महानगर और विदेश की ओर दौड़ रही है।
जवाब देंहटाएंजाने कितने नोट इकठ्ठा हो गए है गले कटे फटे , सोचते हैं एक बार गुजरात का चक्कर ही लगा लिया जाए :)
जवाब देंहटाएंसाधारण बात में बड़ी बात रोचक शैली में कई अर्थ दे जाती है !
हमरे भावनगर में त पाँच का नोट का अपना अलगे पहचान है. गला हुआ नोट को दो तह में मोडकर उसको एगो छोटा सा पॉलीथीन में बंद कर दिया जाता है अऊर ओही नोट बाजार में चलता है. न लेने से कोई मना करता है, न देने में कोनो आदमी को खराब लगता है. बहुत सा देस में चलता है प्लास्टिक का नोट, मगर इहाँ पर नोट को दुर्दशा से बचाने के लिए उसको प्लास्टिक में बंद करके रखा जाता है.
जवाब देंहटाएं...हमको भी ई तरीका अच्छा लगा...
बहुत रोचक तरीके से रूपया का हाल देखा ...का का होता है यहाँ ....
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई
Pad kar bahut hi achha laga sir ji .
जवाब देंहटाएंमगर अपना देस में त अजब हाल है. तनी सा पुराना नोट, कोना से कटा हुआ नोट, बीच से मुड़कर जरा सा फटा हुआ नोट, कोनो रेक्सा वाला, टैक्सीवाला, तरकारी वाला को दीजिये त तुरते मना कर देगा लेने से. बोलेगा – aapki is baat ko hamara rajasthan bilkul santust karta hai sir ji
तो फिर इ सरकार लेमिनेसन वाला नोट काहे नहीं चलाती ,
जवाब देंहटाएंमगर चलावे जब भी तो कैसे , सब कुछ तो खुद ही हज़म कर लेती है .
रखना भी चाहिए संभल कर अपने बुजुर्गों को... वे नहीं होते तो आज हमारा क्या वजूद होता कह नहीं सकते...
जवाब देंहटाएंबुजुर्ग तो घर में छत की तरह होते हैं... उनके अनुभव के तप से घर में कई मुश्किलें आती नहीं और आ भी जाये तो जल्द ही चली जाती है...
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंकहाँ देखते हैं कहाँ मारते हैं :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ।
वैसे तो आप आइए गए, और देखिये लिए हैं..... तभियो.... आपकी इस पोस्ट को आज के ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है...
जवाब देंहटाएंआज का बुलेटिन, महंगी होती शादियाँ, कच्चे होते रिश्ते
सार्थक विचार और सन्दर्भ
जवाब देंहटाएं@एही लोग त हमारा कल हैं, काहे कि हमारा आज हमको एही लोग से त मिला है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बात बताई है आपने सहमत हूँ इस बात से ! बुजुर्गों को सम्मान देना तो हमारी प्राचीन परंपरा है लेकिन आज नई पीढ़ी की नजर में इनकी प्रतिष्ठा का भाव जरूर कम हुआ है इसके कुछ कारण भी है ! बहुत अच्छी पोस्ट है भाई जी !
गुजरात के बारे में हमेशा आप नई-नई बातें बताते हैं ..और हमारा ज्ञान बढ़ाते हैं..धन्यवाद..
जवाब देंहटाएंआप ब्लोगरों के सहर के बरिस्ठ नागरिक हैं. आज लौटे तो सही, सहर आपकी इंतजार में था .
जवाब देंहटाएंअब पूर्ण वापसी का दिन दूर नहीं!
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