बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

ये कहानी है पुरानी

एगो राजा था. ऊ जंगल में एक रोज सिकार खेलने गया. साथ में सेनापति, मंत्री अऊर एगो नौकर भी था. जंगल में राजा को एगो हिरन देखाई दिया. पीछा करते-करते राजा अपना सब लोग से अलग हो गया. एही नहीं, सेनापति, मंत्री अऊर नौकर भी रस्ता भुलाकर जंगल में भटक गया सब.
रास्ता खोजते-खोजते नौकर को एगो कुटिया देखाई दिया, जिसके बाहर एगो साधु बाबा भगवान का नाम जप रहे थे. ऊ नौकर उनके पास गया अऊर बोला, ओ अन्धे! अभी तूने इधर से किसी को जाते हुए देखा है?
“मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है!
थोड़ा देर के बाद राजा का सेनापति भी ओही कुटिया के पास आया अऊर साधु से पूछने लगा, ओ साधु! तुमने किसी को इधर से जाते हुए देखा है?
“मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है!
सेनापति चला गया, तब भटकते हुए मंत्री जी भी ओहीं पर पधार गए. ऊ हो साधु से पूछ लिए, हे साधु महाराज! आपने किसी को इधर से जाते हुए देखा है क्या?
“मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है!
आखिर में राजा जी भी रास्ता खोजते-खोजते ओही कुटिया के पास पहुँचे. साधु को ध्यान लगाये देख पूछ बैठे, प्रणाम ऋषिवर! क्या आपने किसी को यहाँ से जाते हुए तो नहीं देखा?
“महाराज की जय हो! मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है! किंतु थोड़ी देर पहले आपका सेवक आपको खोजता हुआ इधर आया था, उसके पश्चात आपके सेनापति और फिर महामंत्री. वे सब लगता है आप ही को ढूँढ रहे थे. अब अंत में आप उन्हें खोजते हुए पधारे हैं!
राजा घोर अचरज में पड़ गया कि ई आदमी अन्धा है त इसको कइसे पता चला कि हमको खोजने वाला हमरा नौकर, सेनापति अऊर मंत्री था. अऊर हम महाराज हैं. ऊ साधु से पूछिए लिया, मुनिवर! आप नेत्रहीन हैं. फिर आपने मुझे ढूँढने वालों को कैसे पहचाना?
ऊ साधु हँसकर बोला, महाराज! बहुत आसान है. आदमी बातचीत से पहचाना जाता है. आपके नौकर ने मुझे ओ अन्धे कहकर पुकारा, आपके सेनापति ने ओ साधु कहकर और आपके मंत्री ने हे साधु महाराज कहा. अंत में जब आप आए तो आपने मुझे प्रणाम ऋषिवर कहकर सम्बोधित किया! यह सम्बोधन ही तो किसी व्यक्ति की पहचान हैं!

सायद छट्ठा सातवाँ किलास में ई कहानी पढे होंगे. बाकी अभी तक दिमाग में ताजा है. एतने नहीं, नौकरी भी अइसा मिला है कि जगह-जगह घूमकर समाज के हर तबका के अदमी के साथ दिन-रात उठना बइठना हो गया है. अब त बातचीत से पता चल जाता है कि कऊन जगह का अदमी का, का बिसेसता है अऊर बात करने वाला कम्पनी में कोन ओहदा पर काम कर रहा है. राजा वाला खिस्सा के जइसा बड़ा कम्पनी का डायरेक्टर जेतना सालीनता से बतियाता है, ओतने अकड़कर कम्पनी का चपरासी बात करता है. मगर अपबाद भी बहुत देखने को मिला है. अब का करें, हमलोग त सेवा छेत्र में हैं, इसलिए अपना आपा घरे रखकर आते हैं. न रहेगा मैं न होगा झंझट-तकलीफ.

अभी कुछ टाइम पहिले, बड़े भाई सतीस सक्सेना जी हमरे एगो कमेण्ट के जवाब में बोले -

शुक्रिया सलिल भाई,
बिना पढे टिप्पणी देने वाले ब्लॉगरों में सलिल जैसे (एहाँ पर जो सब्द लिखा था ऊ लिखना हम जरूरी नहीं समझते हैं) भी मुझे पढते हैं मेरे लिए यह कम गौरवशाली नहीं. आपके शब्द मुझे याद हैं और वे यकीनन प्रेरणादायक हैं.
आभार भाई!!
ई बात सतीस जी केतना बार कहे हैं अलग-अलग जगह पर. अऊर बात सच भी है. ऊ कहानी के हिसाब से आपके पोस्ट पर जेतना कमेण्ट आता है ना, ऊ कमेण्टवा सबको ध्यान से पढ़िये. आपको अपने बुझा जाएगा कि कऊन अदमी आपका पोस्ट पढने के बाद कमेण्ट किया है अऊर कऊन बिना पढे; किसको आपका कबिता समझ में आया है, किसको नहीं; कऊन आपका असली परसंसक है, कऊन नहीं.

बहुत सा लोग का कमेण्ट का लम्बाइये से आपको बुझा जाता है कि पूरा पढने के बाद आपका कहा हुआ हर बात के साथ सहमत चाहे असहमत होते हुए अपना बात लिख रहे हैं. अऊर का मजाल है कि उनका कहा हुआ कोनो बात का बुरा लग जाए. अइसा लोग का कमेण्ट अच्छा लिखने का प्रेरना के साथ-साथ, खुद का आकलन करने का मौका भी देता है. एही नहीं ब्लॉग जगत का एगो मोहावरा “आत्ममुग्ध होना” भी लिखने वाला के साथ नहीं चिपकता है.

ई त सोचने वाल बात है कि हर अदमी का लिखा हुआ सब पोस्ट आपको पसन्द आए, उसमें कहा हुआ हर बात से आप सहमत हों अऊर कोनो पोस्ट में कोई कमी नहीं देखाई दे. अइसा हालत में अच्छा लिखा है त खुलकर तारीफ कीजिए, बाकी कहीं कमी नजर आए त ऊ भी बताइये जरूर. बिगाड़ के डर से ईमान का बात न कहने से बहुत नोकसान हुआ है समाज में.

अंत में एगो अऊर छोटा सा कहानी ऊ लड़िका का, जो हर आने-जाने वाला राहगीर को पत्थर मारकर लुका जाता था. एक रोज एगो अदमी उधर से गुजरा त उसको भी ढेला मारा ऊ लड़िका. ऊ अदमी गुसियाया नहीं, बल्कि उसको बोलाकर चार आना का सिक्का धरा दिया. एतना सानदार ईनाम पाकर अगिला अदमी को बड़का पत्थर फेंककर मारा. ई अदमी उसको पकड़कर पीट दिया. इसलिये आप अपना कमेण्ट का चवन्नी देकर कहीं ऊ बच्चा का नोकसान त नहीं न कर रहे हैं. ज़रा सोचिये. जो अच्छा नहीं लगा उसको खुलकर बताइये. गदहा को गदहा कहिए, वैशाखनन्दन कहकर काहे हमारा इज्जत बढाते हैं. अपने मुनव्वर राना साहब भी कहते हैं कि

इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए!

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

मेरे भैया - एक लघु-कथा

रामलाल के रिटायर होने के बाद, उसके सामने दो सबसे बड़ी ज़िम्मेवारी थी, सिर पर एक मुकम्मल छत और बेटी का ब्याह. रिटायरमेण्ट के पैसों से वो सिर पर पक्की छत का तो इंतज़ाम कर सका, ताकि इज़्ज़त से मकान में नहीं घर में रह सके. लेकिन ईमानदारी की नौकरी में उसने कोई जमा-पूँजी नहीं इकट्ठा की इसलिए रजनी की शादी की उसे बड़ी चिंता रहती थी. कहने को तो वो बड़े फ़ख्र से कहता था कि उसकी असली जमा पूँजी तो उसकी औलाद हैं, बेटा रमेश और बेटी रजनी. उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाकर इस क़ाबिल बना दिया है कि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें.

रमेश अच्छी नौकरी पर लग गया और उसने पिछले साल दिल्ली में अपने साथ काम करने वाली एक लड़की से शादी कर ली. लड़की वाले जल्दी शादी करने पर इतना ज़ोर दे रहे थे कि समय कम होने के कारण रामलाल और रजनी शादी में शामिल नहीं हो पाए. हालाँकि शादी के महीने भर बाद वो अपनी पत्नी को उनसे मिलवाने ले गया. बहू की जमकर आवभगत हुई और फिर एक सप्ताह के बाद दोनों काम पर लौट गए. हर हफ्ते नियम से फ़ोन करते हैं दोनों.

रामलाल जब भी कभी रजनी की शादी की बात रमेश से करता है तो वो अपनी मजबूरी बता देता है कि नई नौकरी है, समय की कमी है, दिल्ली में उसकी बिरादरी के लड़के कहाँ मिलते हैं. घुमाफिराकर रामलाल को उसने यह भी कह दिया कि अब आप रिटायर हो चुके हैं तो बिरादरी में ढूँढिए, परिवार में देखिए, रिश्तेदारों को कहिए... ज़रूर अच्छा रिश्ता मिल जाएगा साथ यह भी जता दिया था कि उसने अभी नया घर बसाया है इसलिए पैसों की तंगी लगी रहती है.

रजनी पढ़ी लिखी लड़की थी, नौकरी की तैयारी भी कर रही थी. यह भी समझती थी वो कि उसका भाई उसके लिए कोई रिश्ता नहीं ढूँढेगा और बूढे बाप के लिए इधर उधर भटकना मुश्किल था. उसे किसी से प्यार भी तो नहीं था कि लव मैरिज का ही सन्योग बन जाता. उसकी शिक्षा और आत्मसम्मान ने उसके चरित्र को इतना मज़बूत तो बना ही दिया था कि वो किसी पर डोरे डालने जैसे स्तर तक भी नहीं जा सकती थी.

एक दिन रजनी की पक्की सहेली ने किसी से उसका परिचय करवाया. उसका व्यवहार बिल्कुल खुली किताब की तरह था. एक खुली खिड़की की तरह कोई भी उसके अन्दर झाँक सकता था. उसमें कोई भी ऐसा ऐब रजनी को नहीं दिखा, जिससे वो उससे दूर हो सके. उसने रामलाल को भी उससे मिलवाया. बूढ़ा बाप... उसे तो यूँ लगा मानो उसका रमेश उसे मिल गया हो.

जल्दी ही उसने रजनी के लिये बिरादरी  के अन्दर कुछ रिश्ते सुझाए.  उनमें से कुछ वाहियात लोग निकले, कुछ लड़के लोफर निकले.. लेकिन वो तो पता चल ही जाता है. शादी कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं. फिर भी रजनी ने उसपर भरोसा नहीं खोया. रामलाल को भी बस उसपर ही भरोसा था. उसने रजनी से कहा कि वो बस अपने शहर या उसके आस-पास ही रिश्ता चाहती है ताकि बाबा को जब चाहे आकर देख ले, मिल ले. अगर वो कहे तो किसी और शहर में भी अच्छे लड़के मिल सकते हैं. रजनी ने बाबा से बात की और बनारस या उसके पास लड़का देखने की बात बताई. सोचा बनारस में रजनी की बुआ रहती हैं, इसलिए लड़के के घर-परिवार का पता लगाने में सहूलियत रहेगी.

इसे संजोग कहें या रजनी की किस्मत. उसने तीन-चार रिश्ते बनारस, लखनऊ के बताए. बनारस के एक परिवार में बात आगे बढ़ी और उन्होंने साफ कह दिया कि उन्हें बस लड़की के गुण और व्यवहार की गारण्टी चाहिए, वे बिना दहेज शादी करने को तैयार हैं. रजनी की बुआ ने बताया कि उस परिवार में उनके ससुराल की रिश्तेदारी है. लड़का बड़ा सुशील है, कोई ऐब नहीं, अच्छी नौकरी है और रमेश से अच्छा कमाता है.

अगले ही हफ्ते रजनी रामलाल के साथ बनारस अपनी बुआ के पास चली गई. लड़के वालों को लड़की बहुत पसन्द आई. उन्होंने रजनी के पढ़ने या नौकरी करने से कोई ऐतराज़ नहीं जताया. शादी पक्की और सगाई की तारीख हफ्ते भर बाद की तय हो गई. बैंक से पैसे निकालकर, जल्दी-जल्दी रामलाल ने सारी तैयारियाँ की.

आज रजनी की सगाई है और वो जितना खुश अपनी सगाई से नहीं है, उससे ज़्यादा खुशी उसे इस बात की है कि उसके बाबा खुश हैं. रमेश भैया को ख़बर कर दी गई, लेकिन उसके पास कोई ज़रूरी प्रोजेक्ट था इसलिए वो नहीं आ सका. हाँ उसने ये वादा किया कि वो शादी पर ज़रूर आएगा भाभी के साथ.

इस खुशी और जश्न के माहौल में वो उसे कैसे भूल सकती थी, जिसकी वज़ह से ये खुशियाँ उसके जीवन में आई थीं. उसे इतना अच्छा रिश्ता मिला. उसने वो किया जो उसका सगा बड़ा भाई भी नहीं कर पाया. ख़ैर ये समय कड़वाहट का नहीं. उसने सोचा कि अपने इस "अनोखे भाई" को एकबार धन्यवाद तो कह दे.

उसने लैपटॉप ऑन किया और टाइप किया डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू. जोडियाँस्वर्गमेंबनतीहैं.कॉम. साइट के खुलते ही उसने मुस्कुराकर कहा – मेरे भैया! तुम्हें शुक्रिया कहते हुए शर्म आ रही है! तुम्हारी वज़ह से आज ये दिन नसीब हुआ है. लव यू भैया!!

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

गिफ्ट - रिटर्न गिफ्ट

तनी मनी अन्धबिस्वासी हर अदमी होता है. अब ऊ चाहे निपट गँवार हो, चाहे पढ़ा-लिखा समझदार. कोनो न कोनो अन्धबिस्वास मन में जरूर बइठाए रहता है. छींक देने से काम गड़बड़ हो जाना, मगर दू बार छींक देने से पहिलका का असर ख्तम हो जाना, सामने में छींकने अऊर पीठ के पीछे छींक सुनाई देने के असर में बहुत फरक होता है. ओइसहिं बिलाई रस्ता काट जाए त काम बिगड़ जाना, अऊर करिया बिलाई हो त बस काम खतमे समझिए. कोनो जरूरी काम से निकलिए अऊर कोनो पीछे से पुकार ले त बस बंटाढार. अब लौटकर घर के अन्दर आइए अऊर एक गिलास पानी पी लीजिए, तब निकलिए. नहीं त दही खा लेने से ऊ सब खराब असर खतम हो जाता है.

एगो कहावत था हमलोग के लड़िकाई में – भुसकोल बिद्यार्थी का बस्ता भारी! माने पढ़ना लिखना साढ़े बाईस, टिकिया घोस में नाम लिखाइस ( साढ़े बाईस यानि 30% से कम नम्बर लाने वाला और टिकिया घोष यानि टी.के. घोष एकैडमी – पटना का एक स्कूल जिसमें कोई पढ़ना नहीं चाहता जबकि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्री बिधान चन्द्र रॉय और मेरे स्वर्गीय पिता जी इसी स्कूल के छात्र रह चुके हैं). ऊहो बिद्यार्थी परिच्छा देने जाएगा त भर कटोरा दही खाकर, एकदम आजमाया हुआ नोस्खा है. साढ़े बाईस वाला बिद्यार्थी भी पचीस परसेण्ट ले आता है.

हमरे चैतन्य जी, भद्रा देखिए के सब जरूरी काम करते हैं. कोनो दिन काम गड़बड़ा जाता है त फोन करके बताते हैं, क्या बोलूँ सर जी! सब चौपट हो गया! पता नहीं कैसे मेरे दिमाग से निकल गया कि आज दो बजकर अट्ठाईस मिनट तक भद्रा है! बिजली वाले इंजीनियर हैं, मगर ई सब मामला में ज्योतिस इंजीनियर पर भारी पड़ जाता है.

हम सब भाई लोग बिलाई के रस्ता काटने वाला अन्धबिस्वास नहीं मानते हैं. अगर रास्ता काटते हुए देखाइयो दे जाता है त रोड पर हम लोग दौड़कर काटा हुआ रस्ता को पार करने का कोसिस करते हैं. असल में ट्रैफिक रुक जाता है रोड पर – पहिले आप, पहिले आप के चक्कर में. बाकी हमलोग त ठहरे बुड़बक, ऊ एगो मसहूर लाइन है ना ई. एम. फोर्स्टर साहब का - Fools rush in, where Angels fear to tread!

मगर अइसा नहीं है कि हम बहुत परगतिसील हैं. हमहूँ अन्धबिस्वास पर बहुत बिस्वास करते हैं. सनीचर के दिन कोनो अदमी को पइसा नहीं देते हैं, मतलब बजटेड पइसा से बाहर. जो हिसाब किया हुआ खर्चा है उसके अलावा. किसी का कर्जा भी लौटाना है त सोमबार को लौटाएंगे बाकी रहते हुए सनीचर को नहीं. का मालूम कहाँ से ई बात दिमाग में बइठ गया है कि सनीचर को बैंक आधा होता है अऊर एतवार को बन्द. कहीं किसी को दे दिया अऊर कोनो इमर्जेंसी हो गया त किससे माँगने जाएंगे! आज जमाना चौबीस घण्टा नगदी वाला हो गया है अऊर आधा दर्जन क्रेडिट कार्ड रहता है पर्स में, मगर अन्धबिस्वास बैकवर्ड होता है ना, उसको थोड़े ना पता है कि ए.टी.एम का होता है!

कहीं भी बाहर जाने के नाम पर रेल/हवाई जहाज का टिकट कनफर्म होने पर भी दू दिन पहिले से खाना बन्द अऊर टॉयलेट चालू. पूरा जात्रा के बीच में फिर से कोनो बजेटेड खर्चा से बाहर खर्चा करने में डर लगता है. हजार रुपया का खाना खा लेंगे, मगर पाँच सौ रुपया कोई चीज खरीदना हो त सिरीमती जी अपना फण्ड से खरीद लें, हम अपना जेब ढीला नहीं करते हैं. का मालूम काहे एगो अजीब सा डर मालूम होता है.



पटना से लौटते समय अहमदाबाद का दिल्ली से ट्रांजिट फ्लाइट था. तीन घण्टा दिल्ली में टर्मिनल-3 पर इंतजार. सिरीमती जी फोन पर बिजी थीं अऊर हम दुनो बाप-बेटी बुक-स्टॉल में. ऊ अपना किताब देख रही थी अऊर हम अपने मतलब का किताब देखने में मगन थे. खरीदना नहीं था हमको, काहे कि ऊ हमरे बजट में नहीं था. अचानक देखाई दिया रवि सुब्रमनियन का – BANKERUPT!  इनका अब तक का पूरा कलेक्सन है हमरे पास. ई किताब नया था. उलट-पलट कर देखे, अऊर मने मन सोचे कि फ्लिपकार्ट से मंगवा लेंगे! एगो अऊर किताब पता चला कि हमसे छूट गया इन्हीं का – BANKSTER! दुनो किताब नोट कर लिए. ओही समय मोबाइल पर सिरीमती जी का फोन आ गया, कहाँ हैं? हमको यहाँ बैठाकर खुद गायब हो जाते हैं!
आ रहे हैं! अब इस उमर में कहाँ जाएँगे छोडकर!
कोई मिलेगी भी नहीं अब आपको! लौटकर यहीं आना होगा!
एही सब बतियाते हुए, हम वेटिंग लाउंज के तरफ सिरीमती जी को कम्पनी देने बढ़ गए!
झूमा? आपही के साथ थी न?
ओफ्फोह कोनो बच्चा है जो भुला जाएगी! एक्साइटमेण्ट में एही बोली निकलता है मुँह से! वो देखो, आ रही हैं मेम साब!
खाली फालतू पैसा बरबाद करती है. देखिए नॉवेल लेकर आ रही है. कोर्स का किताब कभी देखे हैं इतना मन लगाकर पढते हुए!

तुम भी बेकार उसके पीछे पड़ी रहती हो. अब यहाँ कोर्स का किताब पढेगी!

तब तक बेटी हमरे सामने आकर खड़ी हो गई अऊर पैकेट हमरे हाथ में थमा दी!

क्या ली?

खोल के देखो डैडी!

खोलकर देखे, त उसमें रवि सुब्रमनियन का ओही किताब BANKERUPT था!

आपको आपकी एनिवर्सरी पर कोई गिफ़्ट नहीं दे सकी! ये तो आपके फेवरिट हैं! और आप खरीदोगे भावनगर जाकर फ्लिपकार्ट से, इसलिए मैंने अभी ले लिया!

सो स्वीट!

मेरा रिटर्न गिफ्ट दो!

हम मुस्कुरा दिए. मने मन कहे:

तुम्हें और क्या दूँ मैं दिल के सिवाए,
कि तुमको हमारी उमर लग जाए!