शनिवार, 24 दिसंबर 2016

एक शीतल बयार - सुधांशु फ़िरदौस की कविताएँ

पिछले कुछ समय से सोचा कि लिखने से अवकाश लेकर कुछ पढना चाहिये. और इस विचार के साथ ही जो पहली रचनामाला मेरे सामने आई वो एक युवा कवि की है. इन्हें बहुत समय से पढता रहा हूँ और सहज ही अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता रहा. किंतु इन प्रतिक्रियाओं से परे, यह दुबला-पतला, किंतु गहन और गम्भीर कविताओं का सृजन करने वाला कवि धीरे-धीरे मेरे हृदय में स्थान बनाता चला गया. भोजपुरी के लोककवि भिखारी ठाकुर के शब्दों में कहूँ तो,

तीस बरिस के भईल उमिरिया, तब लागल जिव तरसे
कहीं से गीत, कबित्त कहीं से, लागल अपने बरसे!


इस कवि की जितनी भी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं, उन्हें पढ़कर यही लगता है कि कविता एक टीस बनकर इस रचनाकार के मन में उभरी है और ऐसे में कहाँ से गीत और कहाँ से कविताएँ बरसने लगीं यह शायद उस कवि को भी नहीं पता होगा. उस युवा कवि का नाम है सुधांशु फ़िरदौस.” अपने ब्लॉग समालोचन पर उनकी कविताएँ प्रस्तुत करते हुए श्री अरुण देव उनका परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं:

सुधांशु फ़िरदौस की कविताओं में ताज़गी है. इधर की पीढ़ी में भाषा, शिल्प और संवेदना को लेकर साफ फ़र्क नज़र आता है. धैर्य और सजगता के साथ  सुधांशु कविता के पास जाते हैं. बोध और शिल्प में संयम, संतुलन और सफाई  साफ बताती है कि उनकी कितनी तैयारी है. ये क्लासिकल मिजाज़ की कविताएँ हैं, पर तासीर इनकी अपने समय के ताप से गर्म हैं.

यहाँ उनकी कुल आठ कविताएँ पाठकों के समक्ष हैं, जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा गया है - तीन शीर्षक के अंतर्गत.

मुल्क है या मक़तल – यहाँ दो कविताएँ राष्ट्र के प्रबंधन से एक प्रश्न करती हैंजबकि प्रश्नकर्त्ता को उसका उत्तर ज्ञात है और यही छटपटाहट है उसकी. यह प्रश्न हर अवाम का है अपने मुल्क के हुक्काम से.

ये आड़ी-तिरछी सी लकीरें
जिनसे बने हुए दायरे को हम मुल्क कहते हैं 
जहाँ आज़ादी के लिये रूहें तडपती
कैदखाने नहीं तो और क्या हैं?
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क्या नफासत से चाबुक मारते हैं हुक्काम
मज़ा आ रहा है कहते हैं अवाम!

और फिर 
हुकूमत का कोई भी अदना सा फैसला 
मामूली सा फरमान 
काफी है आपको ताउम्र करने को हलकान

आम तौर पर व्यवस्था से पीड़ित जनता का दर्द व्यक्त करते हुये लोग कटाक्ष या उपालम्भ का सहारा लेते हैंकिंतु सुधांशु जी ने अपनी कविताओं में एक छिपी हुई करुणा का सहारा लिया है. यही नहींयह कविता किसी व्यवस्थादल या सरकार विशेष की बात नहीं कहतीयह एक आदर्श समाज की बात कहने की इच्छा और न कह पाने की विवशता को दर्शाती है.

इसके बाद शरदोपाख्यान के अंतर्गत पहली चार कविताएँ शीतकाल की धूपदिवससंध्या और शरद पूर्णिमा की रात्रि के शब्द-चित्र ही नहींकिसी बच्चे की बनाई ऐसी पेंटिंग की तरह है जो वह हाथ में कूची पकड़ते ही बनाना शुरू करता है – यानि एक ग्रामीण कैनवस पर शरद ऋतु का एक अनोखा चित्रांकनजहाँ रंगों में एक नयापन हैदृश्यों में एक परम्परागत आकर्षण है और इनसे उत्पन्न होने वाला प्रभाव मुग्ध कर देता है साथ ही प्रवासियों को इस बात का एहसास दिलाता है कि उन्होंने क्या खोया है.

खिली है शरद की स्वर्ण सी धूप
कभी तीखी कभी मीठी आर्द्रताहीन शुष्क भीतरघामी धूप
माँ कहा करती थी चाम ही नहीं 
हड्डियों में भी लग जाती है धूप 
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इस लापरवाह धूप के भरोसे ही 
ओल, अदरख, आलू, आंवला, मूली के 
रंग बिरंगे अचारों के मर्तबानों से सज जाती हैं छतें
सज जाते हैं आँगन

जिसे लग जाए ये धूप 
उसके माथे में कातिक-अगहन तक उठाता रहता है टंकार 
जो बच गए उनके मन को शिशिर-हेमंत तक उमंग भरती
नवरात्र के हुमाद से सुवासित करती रहती है ये धूप

और इन कविताओं के अंत में एक कविता महानगर को समर्पित. जहाँ शरद पिछली कविताओं की तरह शरीर को नहीं ठिठुराता, बल्कि वातानुकूल कक्ष में सिर्फ़ कैलेण्डर के बदलते एक महीने का एहसास भर करवा रहा होता है.


लोग व्यस्त हैं सप्ताहांत के जलसों में 
या पड़े हैं टेलीवीज़न देखते बिस्तर पर निढाल 
जाने किसके खीर से भरे भगोने में गिरेगी अमृत बूँद 

और अंत में एक लम्बी कविता कालिदास का अपूर्ण कथा गीत. इसे पढना और एक-एक शब्द को अपने अंतस में उतारते जाना, एक ऐसा अनुभव है मानो शब्द अमृतकण की तरह कण्ठ से उतर रहे हैं और अश्रु बनकर आँखों से अविरल बह रहे हैं. इस लम्बी कविता को कवि का आत्मकथ्य तथा कवि और कविता का अंतर्द्वंद्व कह सकते हैं. इस कविता के विषय में कुछ भी कह पाने के लिये मैं स्वयम को कदापि समर्थ नहीं पाता. आज जितनी कविताएँ लिखी जा रही हैं, उन रचनाकारों को केवल एक बार ईमानदारी से यह कविता पढ़ना अनिवार्य मानता हूँ मैं. एक कवि की महायात्रा का एक प्रभावशाली, भावपूर्ण तथा सम्वेदनशील वृत्तांत...


ज्ञान ही नहीं अर्जित करना होता 
बचानी होती है स्निग्धता और प्रांजलता भी
कला-कर्म की शुरुआत होती है सबसे पहले सहृदयता से 
कवि न रचे एक भी मूल्यवान पंक्ति
लेकिन सहृदयता का त्याग कवि के स्वत्वा का त्याग है
कोई नहीं जानता प्रसिद्धि गजराज पर चढकर आएगी या गर्दभ पर 

या फिर


कोई नहीं जानता है कहाँ से आता है कालिदास
कोई नहीं जानता कहाँ को चला जाता है कालिदास
हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन
जहाँ पहुँच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ
वहीं उतरती हैं पारिजात-सी सुगन्धित 
स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकती 
मेघदूत की पंक्तियाँ
उसके बाद केवल किम्वदंतियाँ
जनश्रुतियाँ...

सुधांशु फ़िरदौस जी की कविताओं की भाषा स्वत: अंतर्मन से प्रस्फुटित भाषा है जो कहीं संस्कृतनिष्ठ है तो कहीं उर्दू से प्रभावित, किंतु यह सब उतना ही सहज है, जितनी सहजता से उन्होंने उन कविताओं को जिया है.

टॉल्स्टॉय के अनुसार – कोई कृति चाहे कितनी ही कवितामयी, कौतूहलजनक या रोचक क्यों न हो, वह कलाकृति नहीं हो सकती, यदि कलाकार अपनी कला से दूसरों को प्रभावित न करता और स्वयम आत्मविभोर नहीं होता.

और विश्वास कीजिये गणित के इस शोधार्थी की रचनाएँ एक बेहतरीन समीकरण है पाठकों को प्रभावित करने और आत्मविभोर होकर कविता के सृजन करने का.

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

दाँतों की डॉक्टरनी

हर रोज़ घूमते-फिरते न जाने कितने लोग मिलते हैं. किसी के साथ कोई रिश्ता निकल आये तो उससे दो बातें भी हो जाती हैं और कितने तो बस कुछ दूर साथ चलकर अपने रास्ते निकल जाते हैं. ये बोलने-बतियाने वाले या चुपचाप निकल जाने वाले भी अपने अन्दर कितनी कहानियाँ और क़िस्से छिपाये रहते हैं, कौन जाने. ज़रा सा कन्धे पर हाथ रख दो या प्यार से पूछो – कैसे हो दोस्त, तो हज़ारों दास्तानें फूट पड़ती हैं.

ऐसे ही एक रोज़ फेसबुक पर एक पोस्ट में अभिषेक ने एक मोबाइल ऐप्प के ज़रिये, एक महिला डेण्टिस्ट का ज़िक्र किया. जैसा कि हमेशा उसके साथ होता है, उसके तमाम दोस्तों ने इस घटना को एक मज़ाकिया शक्ल देकर उसकी चुटकी लेनी शुरू कर दी. पोस्ट देखकर दो किरदार मेरे दिमाग़ में उभरे. मैंने भी चुटकी लेते हुये एक मरीज़ और डेण्टिस्ट की बातचीत पोस्ट की. मक़सद था अभिषेक के साथ चुहलबाज़ी करना. इसको एक थर्ड परसन का फ़्लेवर देने के लिये, इसे एक उपन्यास का अंश बता दिया. लोगों की प्रतिक्रियाएँ देखते हुये ये सिलसिला दो चार पोस्ट तक चला. जिसमें अलग-अलग तरह की बातें थीं; बेमक़सद, बेतरतीब.

इसी बीच जब गिरिजा दी को यह पता चला कि ये किसी उपन्यास का टुकड़ा नहीं, बल्कि मेरी रचना है तो उन्होंने मुझसे कहा कि सम्वाद अच्छे हैं, लेकिन इसमें कहानी नदारद है. अब कहानी लिखना तो मेरे बस की बात नहीं थी. सो मैं घबरा गया. रोज़ कुछ न कुछ लिखकर बतौर फेसबुक स्टैटस पोस्ट तो किया जा सकता है, लेकिन कहानी लिखने के लिये बहुत सी बातों का होना ज़रूरी है, जो मुझमें बिल्कुल नहीं. एक घटना को संस्मरण के रूप में तो मैं प्रस्तुत कर सकता हूँ, लेकिन एक काल्पनिक घटना बुनना मेरे लिये असम्भव था. ऐसे में पीछे लौटना भी मुमकिन नहीं था मेरे लिये.

यही नहीं, एक और समस्या ये थी कि अब मेरे किरदार भी मेरे बस में नहीं थे. वे पूरे के पूरे घटना में ढल गये थे. अगर इस तरह बीच रास्ते में उन्हें छोड़ देता तो वो मेरी रातों की नींद हराम कर देते. मुझसे रातों को जगा कर सवाल करते कि “कश्ती का साहिल होता है, मेरा भी कोई साहिल होगा” तो क्या जवाब देता. एक कहानी के किरदार इस तरह बेदखल हो जाएँ कहानी से तो कभी माफ़ नहीं करते और ऐसे में मैं दुनिया भर की बद्दुआ तो सह सकता हूँ अपने पात्रों की क़तई नहीं.

फेसबुक पर मेरी पोस्ट कोई नहीं पढ़ता और उसपर कमेण्ट करना तो बिल्कुल ही ज़रूरी नहीं समझता. फिर भी कुछ लोग इससे जुड़े, इसे पढ़ा और बहुत मज़ेदार प्रतिक्रियाएँ दीं. इससे एक फ़ायदा ये हुआ कि मुझे एक रास्ता मिल गया; एक सिरा, जिसे पकड़कर मैं इस बेतरतीब से सिलसिले को “कहानी” का नाम दे सकता था. लोग कहानी का अनुमान लगाते गये, मैं कहानी में बदलाव लाता गया और प्रतिक्रियाओं की भीड़ में बदन समेटे कहानी आगे बढ़ती रही.
सिर्फ दो पात्रों से शुरू हुए सिलसिले में प्रियंका की ज़िद के कारण एक नया कैरेक्टर दाख़िल हुआ और फिर कहानी की माँग के हिसाब से दो और ज़रूरी कैरेक्टर शामिल हुये, जिसमें से एक इस पूरी कहानी का केन्द्रीय पात्र था, जबकि कुछ लोग सिर्फ़ ज़िक्र में शामिल रहे. कहानी का यह फ़ॉर्मैट मुझे हमेशा से पसन्द रहा है, हो सकता है कि कहानियाँ पढ़ते समय उन्हें विज़ुअलाइज़ करना और उनका ड्रामेटाइज़ेशन मुझे हमेशा सहज लगता रहा है. माँ प्रतिभा सक्सेना ने जबसे अपने ब्लॉग पर “कथांश” शीर्षक से एक धारावाहिक कथा-शृंखला प्रस्तुत की थी, तब से यह विचार मेरे दिमाग़ में समाया था. माँ के कहने पर उनकी एक पूरी पोस्ट मैंने अपनी तरह से लिखी थी, जिसे उन्होंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट भी किया था. तो ये स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि इस शृंखला की जननी डॉ. प्रतिभा सक्सेना हैं.  

जहाँ तक शुरुआती पोस्ट में दाँतों के ईलाज में दंत-चिकित्सा से जुड़े तथ्यों का प्रश्न है, उसके लिये आवश्यक जानकारी अभिषेक और मेरी सहयोगी सुश्री सरोज चौधरी ने उपलब्ध करवाई. रश्मि प्रभा दी, अंशुमाला, सुमन पाटिल, अर्चना तिवारी, प्रियंका गुप्ता, निवेदिता, वन्दना दी, वाणी, श्री मनोज भारती, डॉ. सुशील त्यागी और देवेन्द्र पाण्डेय जी ने समय समय पर अपनी कीमती टिप्पणियों के माध्यम से मुझे रास्ता दिखाया. मेरी बहन विनीता, भाई शशि प्रिय, बहु अनुपमा और पौत्री अभिलाषा के प्रोत्साहन ने बड़ा बल दिया. सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव  के ब्लॉग की टैग लाइन और ख़लील जिब्रान की एक उक्ति जो मुझे सदा से आकर्षित करती रही है, सम्वादों में पिरोकर मैंने साझा किया. चुँकि इस कथा में हर पात्र अपनी दिव्य दृष्टि से अपने भूत और भविष्य में झाँक रहा था तथा एक दूसरे से साझा कर रहा था, इसलिये भाई चैतन्य आलोक ने शीर्षक सुझाया “संजय उवाच” जो इस कथा को एक सांकेतिक अर्थ प्रदान करता है.

एक बात परमात्मा को साक्षी मानकर स्वीकार करना चाहता हूँ कि इस कहानी में सम्वादों के माध्यम से जितनी भी घटनाओं का ज़िक्र आया है, उनमें कुछ भी बनावटी नहीं है. इन सारी की सारी घटनाओं का अपने जीवन काल में साक्षी रहा हूँ मैं और जानता हूँ कि मेरे परिवार में या बाहर जो कोई भी उन घटनाओं से जुड़ा रहा है उन्हें वे बातें स्मरण हुई होंगी. जाने-अनजाने मैंने किसी को आहत किया हो तो उसके लिये भी मैं क्षमा चाहता हूँ, क्योंकि मुझे पता है कि कई जगहों पर अपने पात्रों की बातों से मैं ख़ुद आहत हुआ हूँ.


मेरे लिये कहानी लिखना एक प्रयोग था और सम्वादों के माध्यम से लिखना भी उसी प्रयोग का हिस्सा था. इसमें कितना सफल हुआ या असफल रहा यह फ़ैसला तो आपके हाथों में है. लेकिन मैंने सोच रखा था कि अपने किरदारों को आज़ाद छोड़ दूँगा ताकि वो खुलकर अपनी बात कह सकें और मेरा दखल बिल्कुल ही न हो. गुरुदेव राही मासूम रज़ा के शब्दों में मैं कोई तानाशाह नहीं कि कहानी लिखते समय अपने पात्रों के हाथ में एक डिक्शनरी थमा दूँ और हण्टर फटकारते हुये कहूँ कि तुम्हें एक भी लफ्ज़ इससे बाहर बोलने की इजाज़त नहीं है. 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

अब ठहाके लगाओ कब्र में तुम

हम त रेडियो के जमाना में पैदा हुए, इसलिए रेडियो पर नाटक करते थे, बचपने से. आकासबानी पटना के तरफ से हर साल होने वाला इस्टेज प्रोग्राम में, पहिला बार आठ साल का उमर में इस्टेज पर नाटक करने का मौका मिला. नाटक बच्चा लोग का था, इसलिए हमरा मुख्य रोल था. साथ में थे स्व. प्यारे मोहन सहाय (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सुरू के बैच के इस्नातक, सई परांजपे से सीनियर, 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' अऊर परकास झा के फिल्म 'दामुल' के मुख्य कलाकार) अऊर सिराज दानापुरी. प्यारे चचा के बारे में फिर कभी, आज का बात सिराज चचा के बारे में है.

देखिए त ई बहुत मामूली सा घटना है, लेकिन कला का व्यावसायिकता अऊर कलाकार का बिबसता का बहुत सच्चा उदाहरन है. सिराज चचा एक मामूली परिबार से आते थे, अऊर उनका जीबिका का एकमात्र साधन इस्टेज पर कॉमेडी सो करना था. इस्टैंड-अप कॉमेडी के नाम पर आज टीवी में जेतना गंदगी फैला है, उससे कहीं हटकर. स्वाभाविक अऊर सहज हास्य उनका खूबी था. खुद को कभी कलाकार नहीं कहते थे, हमेसा मजदूर कहते थे. बोलते थे, “एही मजूरी करके दुनो सिरा मिलाने का कोसिस करते हैं."

रेडियो नाटक का रेकॉर्डिंग के समय, रिहर्सल के बीच में जब भी टाईम मिलता था, ऊ सब बड़ा अऊर बच्चा लोग को इस्टुडियो के एक कोना में ले जाकर, अपना कॉमेडी प्रोग्राम सुरू कर देते थे. सबका मनोरंजन भी होता था, अऊर रिहर्सल बोझ भी नहीं लगता था. सिराज चचा सीनियर कलाकार थे, इसलिए उनको आकासबानी से 150 रुपया मिलता था, अऊर हम बच्चा लोग को 25 रुपया.

एक बार रिहर्सल के बीच पुष्पा दी (प्रोग्राम प्रोड्यूसर अऊर हमरी दूसरी माँ, जिनका बात हम अपना परिचय में कहे हैं) सिराज चचा को उनका रोल के लिए एगो खास तरह का हँसी निकालने के लिए बोलीं. ऊ बिना पर्फेक्सन के किसी को नहीं छोड़ती थीं. पहिला बार ऊ सिराज चचा से झल्ला गईं. बोलीं, “सिराज भाई! क्या हो गया है आपको. कुछ जम नहीं रहा.सिराज चचा ने हँसी का बहुत सा सैम्पल दिखाया. लेकिन पुष्पा दी को कोई भी मन से पसंद नहीं आया. आखिर बेमन से रिहर्सल हुआ अऊर रेकॉर्डिंग का टाईम आया.

सिराज चचा, बीच में अपना चुटकुला लेकर सुरू हो गए. ओही घड़ी एगो लतीफा पर सब लोग हँसने लगा, अऊर सिराज चचा भी अजीब तरह का हँसी निकाल कर हँसने लगे. माइक ऑन था, इसलिए आवाज कंट्रोल रूम में पुष्पा दी को भी सुनाई दिया. ऊ भाग कर इस्टुडियो में आईं, अऊर बोलीं, “सिराज भाई! यही वाली हँसी चाहिए मुझे."

लेकिन इसके बाद जो बात सिराज चचा बोले, ऊ सुनकर पूरा इस्टुडियो में सन्नाटा छा गया, दू कारन से. पहिला कि पुष्पा दी को कोई अईसा जवाब देने का हिम्मत नहीं कर सकता था अऊर दुसरा, एगो मजाकिया आदमी से अईसा जवाब का कोई उम्मीद भी नहीं किया था. सिराज चचा जवाब दिए, “दीदी! आप उसी हँसी से काम चलाइए. क्योंकि यह हँसी डेढ़ सौ रुपए में नहीं मिलती है, इसकी क़ीमत पाँच से छः सौ रुपए है." एतना पईसा ऊ अपना इस्टेज प्रोग्राम का लेते रहे होंगे उस समय.

रेकॉर्डिंग हुआ, अऊर सिराज चचा ने अपना ओही डेढ़ सौ रुपया वाला हँसी बेचा. एगो कलाकार का कला दिल से निकलता है, लेकिन पहिला बार महसूस हुआ कि पेट,  दिल के ऊपर भारी पड़ जाता है.

एक बार हम दुनो भाई रात को रिहर्सल के बाद घर लौट रहे थे. हमलोग के साथ सिराज चचा भी थे. हमलोग पैदल चल रहे थे, ओही समय एगो आदमी साइकिल पर पीछे से आता हुआ आगे निकल गया. आझो याद है हमको कि ऊ आदमी सिगरेट पी रहा था अऊर जोर-जोर से कुछ बड़बड़ाता जा रहा था. हम दुनो भाई हंसने लगे. मगर सिराज चचा बहुत सीरियसली बोले कि हँसो मत, वो ‘पैदायशी आर्टिस्ट’ है. और कमाल का बात ई है कि कोनो अपने आप से बात करने वाला आदमी को देखकर आझो हमारे परिबार में ई मुहावरा सबलोग बोलता है.

जब पटना में दानापुर हमारा पोस्टिंग हुआ त पता चला कि उनका अकाउंट हमारे बैंक में है अऊर जब ऊ हमको देखे तो उनको बिस्वास नहीं हुआ कि जो बच्चा उनके साथ एक्टिंग करता था, आज एतना बड़ा हो गया है. पहिला बार जब मिले तो बहुत दुआ दिए.



आज से छौ साल पहिले ई पोस्ट का पहिला हिस्सा हम लिखे थे अपना ब्लॉग पर, तब सायद अपना बहुत सा याद में से कुछ याद सेयर करते हुए. जहाँ तक याद आता है हम अपना कोई भी पुराना पोस्ट नहीं दोहराए होंगे, लेकिन ई पोस्ट को दोहराने का कारन एही रहा कि आज सिराज चचा हमारे बीच नहीं रहे. व्हाट्स ऐप्प पर पटना से एगो अखबार का क्लिपिंग मिला जिसमें उनके मौत का खबर था. सिनेमा के तरह बहुत सा टाइम जो उनके साथ बिताए थे, याद आ गया. परमात्मा उनको जन्नत बख्से!

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

धड़कनों की तर्जुमानी


देखी होगी तुमने/ मेरी सोती जागती कल्पनाओं से
जन्म लेती हुई कविताओं को/ प्रसव वेदना से
मुक्त होते हुए/ सुनी होगी...
उनकी पहली किलकारी/ मेरी डायरी के पन्नों पर
और/ महसूस किया होगा... / सृजन का सुख
मेरे मन के/ कोने-कोने में


एक कविता के जन्म की इतनी सुंदर व्याख्या शायद कोई हो भी नहीं सकती. हर रचनाकार इस पीड़ा से गुज़रता है और नवजात रचना को देख यही कहता है. साथ ही यह भी लालसा अंतर्मन में जन्म लेती है कि इस रचना को सब सराहें, आख़िर अपने बच्चे की प्रशंसा किसे बुरी लगती है.

कविता की यह अनुभूति श्रीमती मृदुला प्रधान की है, जो उन्होंने संकलित किया है अपने कविता संग्रह “धड़कनों की तर्जुमानी” में. दो कम अस्सी रचनाओं का यह संकलन वास्तव में उनकी धड़कनों की आवाज़ हैं. मिथिला की पावन भूमि पर जन्मी मृदुला जी ने भारत के विभिन्न भागों में ही नहीं, विश्व के कई देशों का भ्रमण किया है. लेकिन उनकी कविताओं को पढकर भारत की माटी की सुगंध महसूस की जा सकती है. इनकी एक और विशेषता है कि इन्होंने हिंदी के साथ-साथ मैथिली, बांगला और उर्दू भाषा में भी कविताएँ लिखी हैं.

सामाजिक मंच पर इनसे जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को यह पता होगा कि इनकी साहित्यिक गतिविधियाँ निरंतर चलती रहती हैं, चाहे वो किसी मित्र के यहाँ साहित्य विमर्श हो, कविता पाठ हो, कवि गोष्ठी हो या साहित्य अकादमी का कोई अनुष्ठान.

यह संकलन 2014 में प्रकाशित हुआ. इसमें संकलित रचनाओं के रचनाकाल के विषय में मृदुला जी ने कुछ नहीं कहा है. किंतु कुछ रचनाएँ मैंने लगभग छह वर्ष पूर्व पढ़ी है, तो यह संकलन एक अनवरत रचनाधर्मिता का परिणाम है. इनकी प्रिय शैली मुक्त छंद में कविता करना है, अत: सारी कविताएँ मुक्त छंद में हैं, लेकिन इनमें एक लयात्मकता दिखाई देती है. यह अलग बात है कि कहीं-कहीं यह लयात्मकता भंग हो जाती है. कुछ हद तक इन रचनाओं को नज़्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है.

मृदुला जी की कविताएँ, पाठक के मन पर कोई बोझ नहीं डालतीं, न कोई दार्शनिकता या आध्यात्मिकता का शोर मचाती हैं. ये सारी कविताएँ, हमारे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं का एक बारीक और भावपूर्ण अवलोकन है. जैसे “ढूँढती हूँ उस लड़की को” में अपने समय की स्कूल जाने वाली लड़की का एक ऐसा शब्दचित्र खींचा है उन्होंने कि एक स्केच सा लगता है और सबसे प्यारी बात यह है कि उस खोयी लड़की में वो ख़ुद को तलाशती हैं.

एक उच्च-सामाजिक परिवेश में रहकर भी उन्हें आधुनिकता के नाम पर शालीनता की उपेक्षा तनिक भी पसंद नहीं. उनकी कविता “कि मुझे क्यों दिखता है” संस्कारों की धज्जियाँ उड़ाती आधुनिकता के प्रति एक प्रश्न है. या फिर गृहिणियों की दिनचर्या के दो अलग-अलग रुख़ प्रस्तुत कर उन्होंने हाई-सोसाइटी की तथाकथित गृहिणियों पर तंज़ भी किया है. वहीं दूसरी ओर उनकी प्रणय रस से सिक्त कविताएँ किसी भी युवा दिल की तर्जुमानी है. प्रकृति से जुड़ी कविताएँ भी किसी पेण्टिंग से कम नहीं.  

इस संकलन में समाहित सभी कविताओं में और मृदुला जी की लगभग सभी रचनाओं में जो बात रेखांकित करने वाली है, वह है उनका अंदाज़-ए-गुफ़्तगू. सारी कविताओं में वो बतियाती हुई दिखाई देती हैं, चाहे उनके समक्ष कोई हो, या न हो! कभी उनसे जो उनके साथ नहीं, कभी प्रकृति से, कभी निर्जीव सी लगने वाली किसी शै से और कोई नहीं मिला तो सहारा रेगिस्तान में ख़ुद का ख़ालीपन तलाशती, ख़ुद से बतियाती हैं. चुँकि बातचीत के माध्यम से वो नज़्म कहना चाहती हैं, इसलिये भारी भरकम बात भी इतने आसान से लफ़्ज़ों में कह देती हैं कि बस जहाँ छूना चाहिये – कविता छूती है. रोज़ की चाय हो, किसी का जन्मदिन, किसी की कमी हो, उलाहना हो, प्यार हो, चुप्पी हो, अतीत की यादें हों या महानगर की कॉलोनी का सण्डे... कोई भी रंग अछूता नहीं उनकी कविताओं से.

कविताओं को पढ़ते हुये जो बात खटकती है, वो है जेण्डर की भूल. कई जगह हर्फ़ की कौमें छा गयीं को छा गये लिखना, “मरुभूमि कितना सूना लगता है” (मरुभूमि कितनी सूनी लगती है) या “नए-नए तरकीबों” (नई-नई तरकीबों) का लिखना रुकावट पैदा करता है. लेकिन कविता के भावों के समक्ष ये व्यवधान वैसे ही हैं जैसे किसी मीठी किशमिश के दाने के तले में चिपका तिनका. मिठास वही है.

कविता-संग्रह का प्रकाशन आत्माराम ऐण्ड संस, दिल्ली-लखनऊ ने किया है और सजिल्द पुस्तक की कीमत है रु.295.00. मुद्रण की कई त्रुटियाँ भी हैं, जिनसे शब्दों के अर्थ भी बदल गये हैं.

यह कविता संग्रह, उनका छठा संग्रह है, जो उनके अनुभव का दस्तावेज़ है. इस संग्रह को पढने के बाद मेरा दावा है कि आप कविता के शिल्प की प्रशंसा तो करेंगे ही, उनमें अभिव्यक्त भावों में ख़ुद को पाएँगे भी. सबसे बड़ी बात यह है कि ये तमाम कविताएँ (जिनमें कुछ ख़ालिस उर्दू में हिंदी तर्जुमा के साथ हैं) आपको “देखी हुई” लगेंगी. जहाँ ये कविताएँ आपके चेहरे पर एक मुस्कुराहट और शांति बिखेरती हैं, वहीं कुछ कविताओं में बिखरा उदासी का अण्डरटोन भी आपको साफ़ सुनाई देता है. ख़ुद मृदुला प्रधान जी के शब्दों में –

बैठा है ख़्यालों में छुपा, दर्द बेज़ुबाँ
आँखों की नमी क़ैद है, पलकों की परत में!

मेरी बात:
फेसबुक पर मृदुला दी की कविताओं के साथ ख़ुद मैंने न जाने कितनी जुगलबंदी की है. कमेण्ट से हुई शुरुआत, कई बार मेरी कुछ अच्छी नज़्मों (जिन्हें मैंने सहेजा नहीं) की प्रेरणा भी बनी हैं. एक शालीन व्यक्तित्व जिससे कोई भी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता.

दीदी! आज आपको इस पोस्ट के माध्यम से जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!!


सोमवार, 19 सितंबर 2016

अ ट्रेन फ्रॉम मुम्बई


मुम्बई: 26 नवम्बर 2008

गरीबी से परेसान अऊर परिवार-समाज से निकाली हुई एगो औरत अपना बीस साल की बच्ची को लेकर मुम्बई पहुँची. ई सोचकर कि ओहाँ से कोनो दोसरा गाँव-सहर में जाकर खेत में मजूरी करके अपना अऊर बेटी का पेट पाल लेगी. अपना गाँव में जब कोनो सहारा नहीं रहा त सबै भूमि गोपाल की. रात को छत्रपति सिवाजी टर्मिनस इस्टेसन पर आकर कोनो ट्रेन से आगे जाने का बिचार था. अचानक रात में साढे नौ बजे के आस-पास तीन चार गो जवान बन्दूकधारी, फौजी वर्दी में ओहाँ आया अऊर दनादन फायरिंग सुरू कर दिया. देखते देखते ओहाँ लास का अम्बार लग गया. कुछ लोग गोली से मरा अऊर बहुत लोग भगदड़ में चँपा गया. एही भागदौड़ में ऊ औरत का हाथ अपना बेटी के हाथ से छूट गया अऊर फिर अदमी का समुन्दर में ऊ कहाँ बह कर बिला गई, पते नहीं चला. बेटी सदमा में, न कुछ बोलने के हालत में, न बताने के हालत में. कुछ चोट भी लगा अऊर खून भी निकल रहा था. बाद में पुलिस अऊर स्वयम सेवक लोग मिलकर उसकी माए को खोजने का कोसिस किया, मगर सब बेकार. अंत में दू दिन बाद, उसको लोग बान्द्रा इस्टेसन पहुँचा दिया जहाँ अऊर भी बहुत सा लोग झुण्ड में था. 

भावनगर: गुजरात

जइसे पटना का पहचान तीन ठो “ग” से है – गंगा जी, गाँधी मैदान अऊर गोलघर, ओइसहिं भावनगर में भी तीन ठो “ग” बहुत मसहूर है. मगर सम्भलकर... कोनो भावनगर वाला अदमी को ई बात बोल दिये त बमक जाएगा. ऊ तीन “ग” है – गाय, गाँठिया अऊर गाण्डा! इसमें बमकने वाला बात “गाण्डा” है – माने पागल. हम जब खोज किये त पता चला कि एहाँ सच्चो में बहुत सा मानसिक रोगी पाया जाता है. अब त बहुत सा मानसिक रुग्नालय हो गया है, नहीं त एक टाइम था कि ऊ लोग सड़क पर घूमता रहता था, जइसे गाय. लोग नियम से गाय को चारा खिलाते हैं, बाकी गाय रोड पर बइठल है त कोनो नहीं उठाता है. बचा गाँठिया, त ई नमकीन ब्यंजन एहाँ के घर घर का पहचान है.
हाँ त ई मानसिक रोगी लोग के बारे जब पड़ताल किये तब पता चला कि पच्छिम रेलवे का भावनगर इस्टेसन अंतिम इस्टेसन है, उसके बाद समुन्दर. इसलिये एहाँ आने वाला गाड़ी में ई रोगी लोग को बइठाकर अलग अलग जगह से रवाना कर दिया जाता था. बाद में ई सहर का दयालु सोभाव ऊ लोग को अपना लेता था. बहुत तादाद में एहाँ पागल लोग का खेप आता रहता था.

मुम्बई: बान्द्रा टर्मिनस:

अपना घाव पर पट्टी बाँधे, ऊ लड़की बेचारी अपना माए को नहीं खोज पाई. हारकर कोनो से माँगकर आधा पेट कुछ खाई. कम उमर के लड़की को, का करे कुछ नहीं बुझा रहा था. एही परेसानी में सबेरे से साँझ हो गया अऊर साँझ से रात. जब कुच्छो समझ में नहीं आया त रात को प्लेट्फारम पर जऊन गाड़ी सामने देखाई दिया, ओही गाड़ी में चढ़ गई अऊर एगो कोना देखकर बइठ गई.

भावनगर टर्मिनस:

पच्छिम रेलवे का मण्डल होने के बावजूद भी एकदम उपेच्छित इस्टेसन है - भावनगर टर्मिनस. मगर मेहनतकस लोग के लिये, बस मेहनत का महत्व है, का आदर – का उपेच्छा. ई इस्टेसन पर अस्सी परसेण्ट कुली बूढी औरत सब हैं. बाकायदा बर्दी पहने अऊर बाँह में ताबीज के जइसा बिल्ला बाँधे. कोनो बुजुर्ग औरत ई नहीं देखती कि उसका बिल्ला नम्बर 786 त नहीं, काहे कि उसको पता है कि ईमानदारी अऊर मेहनत करने वाले का बिल्ला नम्बर 786 होइये जाता है. एगो बात अच्छा है कि ई लोग समान अपना माथा पर नहीं उठाती हैं, बल्कि पोर्टर लोग का गाड़ी में खींचकर ले जाती है. एही इस्टेसन पर बहुत सा हौकर लोग एगो झोला में तरह तरह का फरसाण (नमकीन नास्ता) बेचते हुये भी देखाई दे जाता है.

भावनगर : हमारा ऑफिस

छोटा जगह होने के कारन लोग के साथ बेक्तिगत पहचान बन जाना सोभाविक है, खासकर तब जब लोग बहुत मिलनसार हो. एक रोज अपना केबिन के सीसा से देखे कि कोनो कुछ बेचने वाला आया है अऊर सब इस्टाफ लोग उससे कुछ न कुछ खरीद रहा है. हम बोलाए अऊर पूछे कि ई सब का हो रहा है त पता चला कि ऊ बेचने वाला आदमी गूँगा-बहिरा है. मगर बहुत दिन से आता है अऊर सब लोग उससे नमकीन, बिस्कुट खरीद लेता है. दिन भर मेहनत करता है बेचारा अपना परिबार के लिये. ऊ हमरे पास भी आया अऊर का मालूम का बात था उसमें कि बस हमारा दोस्ती हो गया उसके साथ. कुछ गुजराती में लिखकर, कुछ इसारा में अऊर कुछ अजीब सा आवाज निकालकर जो बताया उससे एही समझ में आया कि ऊ कोनो सेठ के एहाँ से ई सब सामान लेता है अऊर दू-चार रुपिया के मुनाफा पर बेचता है. दिन में इस्टेसन पर, दुपहर में ऑफिस सब में अऊर साँझ को साइकिल पर झोला बाँधकर गाँव में बेचते हुये घर लौट जाता है.

बान्द्रा एक्स्प्रेस: अंतिम स्टेशन

जब सबेरे करीब दस-साढे दस बजे ऊ लड़की का गाड़ी आकर इस्टेसन पर लगा त पूरा गाड़ी खाली हो गया, माने ई गाड़ी आगे नहीं जाने वाला था. ऊ गाड़ी से उतरी अऊर डरी-सहमी सामने लगा हुआ नलका में पानी से मुँह-धोकर आगे का करे एही सोच रही थी, तब तक उसके सामने एगो झोला लिये हुये भेण्डर आकर खड़ा हो गया. उसको एगो गाँठिया का पैकेट निकालकर दिया. लड़की के पास पइसा त था नहीं, इसलिये ऊ मना कर दी. मगर ऊ बेचने वाला जबर्दस्ती उसको हाथ में धरा दिया अऊर इसारा से बताया कि पइसा देने का जरूरत नहीं है. ई हालत में जब ‘दुख ने दुख से बात की’ तब ऊ लड़की को समझ में आया कि ऊ फरसाण बेचने वाला गूँगा है. ऊ लगभग रोते हुये उसको इसारा से बताई कि उसका ई दुनिया में कोई नहीं है. एक मिनट सोचने के बाद ऊ गूँगा उसको अपने साथ अपना घरे ले गया अऊर अपना माँ को सब बात बताया. ऊ लड़की रोते हुये अपना पूरा कहानी बताई. बूढ़ी माँ उसको अपना गले से लगा ली.

भावनगर: कुछ समय बाद

बूढी औरत के काम में वो लड़की हाथ बँटाने लगी अऊर धीरे धीरे भासा अऊर बेगानगी का दीवार मिट गया. ऊ लड़की को जइसे उसकी माँ मिल गई. मगर बूढ़ी औरत दुनिया देख चुकी थी. एक रोज रात को खाने के टाइम पर तीनों जब एक साथ बइठ कर खाना खा रहे थे, तब बूढ़ी ऊ लड़की से बोली, “देखो, यहाँ रहते हुये तुम्हें दो तीन हफ्ते हो चुके हैं. तुम दोनों जवान हो और समाज में लोगों को जवाब भी देना पड़ता है! मैं तुमपर किसी तरह का ज़ोर नहीं दे रही. लेकिन मेरा बेटा घर चलाने भर कमा लेता है और मैं भी काम करती हूँ. तुम भी मेरे काम में हाथ बँटाती हो. बस मेरे बेटे के साथ भगवान ने यही अन्याय किया है कि उसकी ज़ुबान छीन ली है. फिर भी मैं तुमसे पूछ रही हूँ कि क्या तुम मेरे बेटे से शादी करोगी?” बिना सुने ऊ लड़का सब समझ गया अऊर लड़की के तरफ देखने लगा. ऊ लड़की चुपचाप अपना सिर झुका ली अऊर माँ के गले से लग गई. बूढ़ी भी दुनो बच्चा को अपना छाती से लगा ली.


स्वीकारोक्ति:
यह घटना एक मूक वधिर व्यक्ति के इशारों और कुछ लिखकर बताए गए वर्णन के आधार पर प्रस्तुत की गयी है. इसलिए इसमें कुछ स्वतंत्रता मेरे द्वारा ली गयी है, लेकिन उतनी ही मात्रा में, जिसमें घटना की मूल भावना प्रभावित न हो. इसमें पात्रों के नाम लड़का और लड़की ही बताए गए हैं, जबकि मैं चाहता तो पंकज भाई और चन्दन बेन भी लिख सकता था. लेकिन नाम में क्या रखा है और इंसानियत का कोई नाम हो भी नहीं सकता. और अंत में, चूँकि यह एक घटना का सिलसिलेवार बयान है, कोई कहानी नहीं, इसलिए इसमें संवादों का कोई स्थान नहीं. 

रविवार, 11 सितंबर 2016

बधाई दो कि दो से तीन अब हम हो गए हैं

बहुत्ते अच्छा लगता है, जब कोई आपके बारे में चिंता करता है. बाकी ई चिंता करना कभी-कभी बहुत इरिटेटिंग हो जाता है. आपका बच्चा दसवाँ पास किया नहीं कि आस पड़ोस में चिंता सुरू कि आगे का करेगा. बारवाँ पास करने के बाद त ई चिंता एकदम्मे से आसमान छूने लगता है... कहाँ कहाँ अप्लाई किया, कोन कोन इंजीनियरिंग में केतना नम्बर आया, कट-ऑफ केतना था, रैंकिंग का है वगैरह वगैरह. इंजीनियरिंग में चला गया त कुछ साल त ठीक ठाक निकला, लेकिन फिर बेतलवा पेड़ पर. कैम्पस सेलेक्सन में का हुआ. अच्छा प्लेसमेण्ट मिला कि नहीं.

कुल मिलाकर आपके लिये आपसे जादा पड़ोस में चिंता फिकिर होता है लोग को. नौकरी लग गया त सादी-बियाह का चिंता अऊर बिआह सादी हो गया त – का भाई, कब तक दू से तीन हो रहे हो. माने जिन्नगी में ई चिंता का फेरा चलते रहता है. आप इरिटेट होइये, चाहे खुस होइये... पूछने वाला को कोई फरक नहीं पड़ता है.

बेटी के होस्टल चल जाने के बाद हम लोग तीन से दू रह गये. मगर तब कोनो चिंता जताने नहीं आया. दिल्ली आने के बाद भी बेटी होस्टले में है. मगर खुसी का बात ई है कि लगभग एक साल बेटी के बिना काटने के बाद हमलोग दू से तीन हो गये हैं. अब ई उमर में दू से तीन होना अजीब महसूस होता है. आदत जो छूट गया है. धीरे-धीरे अब आदत हो गया है आदत नहीं रूटीन कहिये.

सबेरे जब नींद से उसको उठाने जाइये, त बोलती है – अभी थोड़ा और सोने दो. तब समझाना पड़ता है कि हमको ऑफिस जाना है. फिर सम्भालकर उठाना, धीरे से माथा अऊर कंधा पकड़कर बैठाना पड़ता है. गोदी में उठाकर टॉयलेट ले जाना. फिर ब्रस करवाना, नहलाना, कपड़ा बदलना अऊर बाल में कंघी करके चोटी बनाने का काम सिरीमती जी का.

हम त कभी-कभी बहुत प्यार से गाल चूम लेते हैं अऊर कभी-कभी परेसान होकर गोसियाइयो जाते हैं. लेकिन बाद में अफसोस होता है. आजकल त मजेदार ट्यूनिंग हो गया है. ऑफिस से आने के बाद मजाक करना अऊर मिलकर हँसना. हर पाँच मिनट के बाद लेटा दो अऊर पाँच मिनट में बइठा दो. कभी पाँच मिनट से जादा हो गया त हमहीं पूछ लेते हैं कि बइठा दें. त हँसते हुये मूड़ी डोला देती है. हम भी कम नहीं हैं. बोलना पड़ता है – “ई छटाँक भर का जुबान नहीं हिलता है, पसेरी भर का मूड़ी हिल जाता है!” त कहती है – “हमको चिढा रहे हो? बैठा दो!”

खाना का फरमाइस एक से एक. “आज समोसा चाट खाने का मन है”... “आज दोसा बना दो”... कल नूडल्स बना देना... “मकई का रोटी अऊर बैगन का चोखा खाने का मन है”! अब सिरीमती जी का परिच्छा होता है कि ऊ फूड-फ़ूड चैनेल से केतना खाना बनाना सीखी हैं. मगर एक बात है कि उनको हमेसा पूरा नम्बर मिल जाता है.

दू से तीन होना हमेसा खुसी का बात होता है. बहुत लम्बा समय अकेलेपन में बीता है हमारा, अइसे में बहुत डर के साथ जो मधुर अनुभव हो रहा है, उसको बस नया सिरा से जी लेने का मन करता है. सुरू-सुरू में डर ई बात का था कि कइसे सम्भाल पाएँगे. मगर सब सम्भल गया.


रीढ के हड्डी में लगा चोट, पटना में डॉक्टर के लापरवाही से रिपोर्ट में बताया हुआ खराबी को नहीं देख पाना, इसलिये सही ईलाज नहीं होना अऊर एक पाँव से लाचार होकर बिछावन पर लाचार होकर पड़ जाना अऊर व्हील चेयर पर बैठ जाने को मजबूर... हमरी अम्मा.

अब अम्मा कहें कि बच्चा. आज छिहत्तर साल की हो गई. मगर जब गाल चूम लेते हैं त मुस्कुराने लगती हैं. निदा साहब का ऊ दोहा जो हमरी बहिन का पसंदीदा दोहा है आज ओही याद आ रहा है:

जादूगर माँ बाप हैं, हरदम रहें जवान|
जब बूढ़े होने लगें, बन जाएँ संतान ||

शनिवार, 3 सितंबर 2016

आशीष शुभ-आशीष

हिन्दी से हटकर अंगरेजी के अलावा जब हम कोनो दोसरा भासा के बारे में सोचते हैं, त हमको दुइये गो भासा समझ में आता है; पहिला पूरब का बंगला अऊर दोसरा दक्खिन का मलयाळ्म. एक तरफ शरत चन्द्र, रबि ठाकुर, बिमल मित्र, शंकर अऊर सिनेमा के तरफ जाइये त मृणाल सेन, सत्यजीत राय का नाम अपने आप में सम्पूर्न है. दोसरा ओर मलयाळ्म में तकषि शिव शंकर पिळ्ळै, एम. टी. वासुदेवन नायर अऊर सिनेमा में अडूर गोपालकृष्णन, मामूटी, मोहन लाल अऊर भुला गए गोपी. दुनो राज्य में एगो कला अऊर साहित्य का समानता त हइये है.

अब जऊन कलाकार का नाम हम लेने जा रहे हैं उनके अन्दर ई दुनो राज्य का माटी का मेल है. माँ बंगाली (कथक नृत्यांगना) अऊर पिता केरल से (एक थियेटर कलाकार)... जब ई दुनो प्रदेस का कला अऊर संस्कृति एक्के अदमी में समा जाए, त कलाकार के पर्तिभा का अन्दाजा लगाया जा सकता है, खासकर तब, जब उसका बड़ा होने का समय (बांगला में मानुष होबार शोमय) दिल्ली में गुजरा हो अऊर अभिनय का सिच्छा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मिला हो. ऊ कलाकार हैं – आशीष चेट्टा. चेट्टा (बड़े भाई के लिये मलयाळी सम्बोधन) नहीं कहेंगे, हमसे साल भर छोटा हैं उमर में आशीष विद्यार्थी.

आशीष जी के ऐक्टिंग का झलक हम दूरदर्सन के जमाना में टीवी पर देख चुके थे, सई परांजपे के सिरियल में- “हम पंछी एक चॉल के” अऊर जब सई कोनो कलाकार को चुन लें, त उसके पर्तिभा में कमी होइये नहीं सकता है. उसके काफी टाइम के बाद गोबिन्द निहलाणी का “द्रोहकाल” में देखे. गोबिन्द जी का चुनाव अऊर आशीष का उनके चुनाव के प्रति न्याय देखकर दंग रह गये. पूरा तरह से चरित्र में समा जाना अऊर आवाज के उतार चढाव के साथ चेहरा का बदलता हुआ भाव से ऐक्टिंग करना एतना पर्भावित किया कि का बताएँ. ओम पुरी अऊर नसीर के बीच आशीष को इग्नोर नहीं किया जा सकता था. 


“इस रात की सुबह नहीं” त हम कभी भूलबे नहीं किये. बिना ओभरऐक्टिंग के एगो डॉन का फ्रस्ट्रेसन जो एक मामूली आदमी से पब्लिकली थप्पड़ खाने की बाद होता है, देखने लायक था. एकदम जीवंत... बोले तो असली!


आशीष का चेहरा में मलयाळी झलक है अऊर हिन्दी सिनेमा के पैमाना से उनको इस्मार्ट के कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता है. लेकिन इनके आवाज का क्वालिटी अऊर आँख से एक्टिंग करना का कमाल का है. बाकी जो हाल है हमारा हिन्दी सिनेमा का, टैलेण्ट के साथ किस्मत का फैक्टर अइसा है कि का बताया जाए. आशीष जी का बहुत सा सिनेमा आया, मगर उनको जबर्दस्ती कॉमिक भिलेन बनाकर, कभी बिहारी बोलवाकर उनका दुरुपयोग हुआ अऊर धीरे-धीरे हमको लगा कि ई कलाकार चुक गया.

पिछला साल, जब हम गुजरात में थे, तब एगो सिनेमा देखने को मिला – “रहस्य”. ई सिनेमा आरुषि-हेमराज हत्याकाण्ड पर आधारित था. इसमें बहुत दिन के बाद देखाई दिये आशीष विद्यार्थी. सिनेमा देखने के बाद लगा कि ई कलाकार में आज भी बहुत दम है. गुस्सा, फ्रस्ट्रेसन, मजबूरी को अपने ऐक्टिंग से एतना बढिया एक्स्प्रेस किये थे कि हमको अपना फेसबुक पर एगो इस्टेटस लिखना पड़ा. संजोग से ऊ भी हमरे पोस्ट पर आकर अपना कमेण्ट किये अऊर हमको धन्यबाद बोल गये.


अऊर ई साल आया हमरा सबसे पसन्दीदा सिरियल – “24”. ई सिरियल जेतना हमको स्क्रिप्ट के कसाव के लिये अऊर सब कलाकार का अदाकारी के लिये पसन्द आ रहा है, उससे कहीं जादा हमको आशीष विद्यार्थी के अभिनय के लिये भी पसन्द आ रहा है. खतरनाक अऊर सातिर आतंकवादी के रोल में उनका सधा हुआ ऐक्टिंग से जान आ गया है.

डायलाग से जादा त उनका आँख बोलता है अऊर उनका पूरा चेहरा डायलाग का साथ देता है. जब ऊ कमीनापन पर उतरता है त आपको उससे नफरत होने लगता है. आपको बिस्वासे नहीं होता होगा कि ऊ जो पर्दा पर देखाई दे रहा है ऊ रोशन शेरचन नाम का किरदार है कि आशीष विद्यार्थी... अइसे कैरेक्टर में समा जाना कि लिखने वाले को भी दुनो में अंतर करना मोस्किल हो जाए, एही  ऐक्टर का सबसे बड़ा कामयाबी है.


ऐक्टिंग अऊर आवाज के मामला में पर्दा पर बहुत सा दोस छिप जाता है, काहे कि सामने का द्रिस्य अऊर दोसरा कलाकार भी होता है, त कोनो ऐक्टर का दोस पता नहीं चलता. लेकिन रेडियो पर बोलते समय त सब कुछ आवाजे से बताना पड़ता है. मोबाइल ऐप्प “गाना” पर खाली गाने नहीं सुनाई देता है. आपको “कहानीबाज़ आशीष” के आवाज़ में कहानी का स्रिंखला मिलेगा. अऊर उनके आवाज के जादू से कोई नहीं बच सकता है.



आशीष जी, आपको हम अपना इस  पोस्ट के माध्यम से सुभकामना भेजते हैं कि आप भले कम काम कीजिये, लेकिन अपना ऐक्टिंग के ईमानदारी अऊर आवाज के जादू को ई फिलिम इण्डस्ट्री के टाइपकास्ट करने वाला रोग से अक्छुण्ण रखिये. हमको एही खुसी है कि आपसे जो हम उम्मीद लगाए थे, ऊ अभी तक बरकरार है! “24” के लिये सुभकामना अऊर कहानीबाज़ चलाते रहिये. ऑल द बेस्ट!!