गुरुवार, 23 सितंबर 2010

पति,पत्नी और वो!!!

हम तब सातवाँ या आठवाँ क्लास में पढते रहे होंगे. एतवार का दिन था अऊर जाड़ा का मौसम. हमरे घर के सामने हम लोग का खाली जमीन था. दादा जी जानबूझकर ऊ जमीन में न तो कोई दीवाल बनवाए थे, न कोई घेराबंदी किए थे. जमीन के बाहर से सरकारी गली दक्खिन तरफ वाला मोहल्ला को उत्तर तरफ मेन रोड से जोड़ता था. गली के दोसरा तरफ गरीब लोग का कच्चा मकान था, जो लोग छोटा मोटा काम करके अपना गुजर बसर करता था. जाड़ा के दिन में सब लोग हमरे मैदान में धूप सेंकता था.हम लोग भी कोई भेद भाव नहीं रखते थे, अऊर ऊ लोग को भी चाचा चाची कहकर बुलाते थे.

मैदान का था, पूरा बाइस्कोप था. हम लोग हाता से बईठे बईठे देख सकते थे कि रामसरन चचा बीमार हैं. आज तनी ठीक तबीयत हुआ है त उसको लोग धूप में बईठाया है. उनका बड़का बेटा बालेसर देह दबा रहा है अऊर लगता है मने मन गुसिया रहा है कि उसका दोस्त सब खेल रहा है अऊर उसको बाप का सेवा करने का सजा मिल गया. मीना अऊर चम्पा दुनों मिलकर जोर जोर से गा गाकर ‘क’ से कबूतर, ‘ख’ से खरगोस पढ रही है.रामरती चाची अचार लाकर धूप देखाने के लिए कोना में मेहदी के झाड़ के पास रख गई, ओहाँ सबसे जादा देर तक धूप रहता है.

जगदीसवा को तो बस लट्टू खेलने से फुर्सत नहीं. चार गो लड़का को एकट्ठा करके लट्टू खेलने में मस्त हो जाता है. बाकी एगो खासियत है उसका कि उसका लट्टू कभी फँसता नहीं है. हमको तो केतना बार मुँह में चोट लगा है. असल में लट्टू रस्सी में फँसने के बाद सीधा मुँह पर आता है. जगदिसवा हमको लट्टू हाथ पर लेना सिखाया था.

राममूर्ति का निमकी (नमकीन) अऊर चटनी का स्वाद हमको एतना उमर होने पर भी याद है. असल में ऊ लोग दोकानदारी कम दुनियादारी जादा करते थे. उनको पता है कि हमरे घर में लोग उनका निमकी पसंद है, तो अपना बेटा को बोलेंगे कि रजुआ जाकर दुलहिन (हमरी माँ) को दे आओ. कमाल तो ई था कि पैसा का कोनो बाते नहीं. जब माता जी पईसा पूछीं ऊ पईसा बोले, पईसा दे दिया गया अऊर हिसाब बराबर. कोई भेरीफिकेसन नहीं, कोई बही खाता नहीं.

ओहीं मैदान के कोना में मोटकी मछली वाली (एही नाम से हमलोग जानते थे, हमलोग के घर में बनता नहीं था) रोहू ले, हिल्सा ले, पोठिया ले का आवाज लगाकर बईठ जाती थी. देखते देखते पूरा टोकरी साफ. बचा खुचा टुकड़ा भुरवा कुत्ता को देकर ऊ अपना टोकरी वहीं ननकी के घर के पास लगा हुआ सरकारी नल में (तब उसमें पानी भी आता था) धोकर निकल जाती थी.

बस एही सब खेला दिन भर चलता था. हम लोग चटाई बिछाकर पढाई करते थे अऊर खेल भी. बगल में ट्रांजिस्टर पर गाना बजता रहता अऊर हम लोग जोर जोर से गाना भी गाते रहते. ऊ एतवार के दिन हमरे पिता जी आराम कुर्सी पर बैठकर अखबार पढ रहे थे अऊर गाना के ऊपर बीच बीच में अपना एक्सपर्ट कमेंट देते जा रहे थे.

“इस गाने के समय शंकर जयकिशन और लता मंगेशकर के बीच झगड़ा हो गया था, इसलिए यह गाना सुमन कल्याणपुर ने गाया है. इस गाने की धुन शंकर ने बनाई है, क्योंकि शारदा से वही गवाते थे.” हमलोग उनके बात को मन ही मन रिकॉर्ड करते जाते थे.

अचानक जोर का हल्ला गुल्ला सुनाई दिया. देखे कि दक्खिन वाला गली से एगो आदमी अपना औरत को बाल से पकड़कर खींचता हुआ मैदान में ले आया अऊर थप्पड़ थप्पड़ से मारने लगा. ऊ औरत बचने का कोसिस कर रही थी, मगर आदमी उसको कसकर पकड़ कर घसीट रहा था अऊर पीट रहा था. औरत रोए जा रही थी, मगर वहाँ खड़ा कोई भी आदमी या औरत उसका बीच बचाव करने नहीं आ रहा था आगे.

हमरे पिता जी आव देखे न ताव, मैदान में पहुँचकरआगे, उस औरत को अलग किए अऊर खींचकर एक झापड़ उस आदमी को मारे. एतना जोर का तमाचा था कि पूरा मैदान उसका आवाज से खामोस हो गया. मगर उसके बाद जो हुआ उसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता.

ऊ औरत हमरे पिता जी का हाथ पकड़ ली अऊर चिल्लाकर बोली, “ई हमरा घर का लड़ाई है, आप कऊन होते हैं इसमें पड़ने वाले. ई हमरा आदमी है, हमको मार दे कि काट कर गंगा जी में बहा दे, आपको का. खबरदार जो आप हमरे आदमी पर हाथ उठाए!!”

पिता जी को काटो तो खून नहीं.

56 टिप्‍पणियां:

  1. कितने सोझ होते है न ई बिहारी बाबू लोग :)

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  2. बहुत बढ़िया प्रस्तुति .......

    इसे पढ़े, जरुर पसंद आएगा :-
    (क्या अब भी जिन्न - भुत प्रेतों में विश्वास करते है ?)
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_23.html

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  3. Kab shuru kiya aur kab khatm ho gaya,patahi nahi chala...laga aur likha hota to aoor majaa aata!

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  4. अब का बोलीं नेकी अउर उपर से बदनामी. लेकिन आपके पिता जी उहय काम कइनै जवन उनका के करै के चाहत रहल.....

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  5. हाँ यही मानसिकता है औरतों की और इसीलिए कोई उन्हें बचाने नहीं पहुंचता...
    पढ़े -लिखे घरो में भी यही है, भले ही शब्द बदल जाएँ...भाव यही रहते हैं.
    शुरुआत के दृश्यों का चित्रण क्या खूब किया...बहुत ही रोचक..एक एक बात मानस-पटल पर अंकित है आपके...शायद हम सबके

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  6. कब उबरेंगे हम इस मानसिकता से! स्वामी, परमेश्वर, और पता नहीं क्या-क्या?

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  7. सलिल जी !!! जीवंत चित्रण...जहाँ एक ओर बाबू जी के व्यक्तित्व के दर्शन हुए वहीं दूसरी ओर आपके बचपन के दिनों का भी कुछ ज्ञान हुआ । बाबू जी ने जो किया वह स्वभाविक था ...लेकिन पति और पत्नी के बीच में तो वो ही साबित हो गए न ?

    हमेशा की तरह सीख देती पोस्ट...पर संवेदनशील व्यक्ति शायद वही करेगा जो बाबू जी ने किया ।

    आपके पिटारे से निकलने वाली अगली पोस्ट का इंतजार है ।

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  8. चलती हुई भाषा का वरदान है आपको . पूरे दृश्य को जीवंत कर देते हैं आप .

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  9. सलिल जी गाँव की याद दिला दी आपने ! घर का खुला आँगन और उसमें से लगातार गुजरते जाने पहचाने चेहरे अक्सर याद आ ही जाते हैं !

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  10. salil hr post apanepan kee gandh liye hotee hai .sadgee kee chaasanee me pagee hone se mithaa swaad chod jatee hai .
    Chaitanya ko comment nahee chod pa rahe hai Error 503ke kaaran.

    vaise k fir yaha bhee hai .

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  11. कितनी सुन्दर पोस्ट लिखी है आपने हर द्रश्य जीवित हो उठा .....वर्णन इतना अच्छा कि खुद को द्रश्य में महसूस करता है हर पाठक . बाबूजी कितने निश्छल और न्यायप्रिय रहे ये तो आज पता चल ही गया साथ ही साथ ये भी पता चला कि ये फिल्मो कि इतनी जबरजस्त जानकारी आपको कैसे हुई :)
    सादर

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  12. सदियों से,पुरुष ही स्त्री के केंद्र में रहा है। मगर पुरुष अभागा न जाने किस दुनिया में जीता है।

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  13. यही मानसिकता है जो औरतों को आगे बढ़ने नहीं देती थक गए नारी वादी नारे लगा लगा के.
    पर बचपन का बाइस्कोप खूब दिखाए आप मजा आ गया .

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  14. शानदार अभिव्यक्ति, छुटपन की यादों को इतने सुन्दर शब्द आप ही के बस की बात है सलिल जी, मेरा साधुवाद, हमारा भी ब्लॉग पढ़े ! उपकृत होऊंगा, सच तो यह है कि अपना लिखा,जब तक सही नज़रों से न गुज़रे,संतुष्टि नहीं होती,प्लीज़ फालो,इफ यू कैन ! ..........................

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  15. शानदार अभिव्यक्ति, छुटपन की यादों को इतने सुन्दर शब्द आप ही के बस की बात है सलिल जी, मेरा साधुवाद, हमारा भी ब्लॉग पढ़े ! उपकृत होऊंगा, सच तो यह है कि अपना लिखा,जब तक सही नज़रों से न गुज़रे,संतुष्टि नहीं होती,प्लीज़ फालो,इफ यू कैन ! ..........................

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  16. सलिल भाई मुझे आपकी इस पोस्‍ट में एक बच्‍चे की नजर से देखा गया यह मार्मिक विवरण लगा।

    मेरी राय मैं तो आपके पिताजी भी अपनी जगह सही थे और वह औरत भी। अगर कोई गलत था तो उसका पति।

    जो पाठक इसे स्‍त्रीवादी नजरिए से देख रहे हैं,मुझे लगता है वे बहुत जल्‍दी निष्‍कर्ष पर पहुंच गए।
    मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस औरत को अपने पति के हाथों पिटते ही रहना चाहिए। पर उसकी इस बात में भी बहुत गहरा संदेश छिपा था कि यह हमारे बीच का मामला है।

    सचमुच धिक्‍कारना तो उस पति को चाहिए जो जी जान से चाहने वाली(मुझे तो यही ध्‍वनि आई) अपनी पत्‍नी को इस तरह बेइज्‍जत करने पर तुला था।
    वैसे यह तो आप ही बता सकते हैं कि क्‍या यह दृश्‍य आम बात थी, या ऐसा पहली ही बार हुआ था।

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  17. बड़े भाई, आपका तो टिप्पणी भी सीधे दिल में उतर जाता है... हमरा ई पोस्ट लिखने का उद्देस एही था कि लोग उस सवाल का जवाब दें जो हमरे पिताजी को “ काटो तो खून नहीं” वाला हालत में छोड़ गया था… अऊर ई घटना पहिला था कि आखिरी नहीं कह सकते..मगर अईसा जरूर था कि हमरे पिता जी देखकर अघा गए हों, नहीं तो ऊ उठकर झापड़ नहीं मारते, चुप रह जाते कि जाने दो रोज रोज का खिस्सा है.

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  18. आपकी लेखनी का जवाब नहीं क्या बांध के रखते हो। ...और रही बात उन महिला की, तो भारतीय महिलाएं होती ही ऐसी हैं। खुद भले ही अपने पति को कितना भी बुरा-भला कह लेंगी, लेकिन कोई उन पर हाथ उठाए तो सहन नहीं कर सकतीं। खासकर अपने सामने तो कतई नहीं। चाहे तो इसे उनका दोष कह लें या गुण कह लें।

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  19. हमें तो वो औरत ठीक लगी जी। होते हैं कुछ चरित्र ऐसे भी, जब तक ऐसा हो न तब तक उन्हें लगता ही नहीं कि उनका ध्यान रखा जा रहा है।
    सारी गतिविधियों का ऐसा सटीक वर्णन किया है आपने कि आँखों के सामने चित्र घूम गया।

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  20. सुंदर संस्मरण ,एक आम भारतीय नारी की तरह सोच तो है किंतु इसका फायदा पतियों ने बहुत उठाया ।

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  21. बताइये, ये डायलॉग बोलकर कितना महान बन गयीं। पीड़िता से वीरांगना।

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  22. सलिल भाई, आपने मेरे जिज्ञासा शांत की। अब मैं थोड़ा और आगे बढ़कर यह कह सकता हूं कि पिताजी ने जो किया वह किसी भी संवेदनशील पुरुष (या स्‍त्री )की प्रतिक्रिया होगी। जो उस वक्‍त इस गुणा-भाग में नहीं पड़ता कि उसके हस्‍तक्षेप का अंजाम क्‍या होगा। क्‍योंकि मानवीय धरातल पर उसे उस समय यही सबसे उचित लगता है कि यह घोषित और स्‍थापित जीवन मूल्‍यों के खिलाफ है,इसलिए इसका विरोध किया जाना चाहिए।

    दूसरी बात जब यह रोज की घटना बन जाती है,तो एक तरह से वह जिन्‍दगी का हिस्‍सा हो जाती है। दोनों (औरत-आदमी) की अपनी अपनी विवशताएं और आवश्‍यकताएं होंती हैं और समझौते होतें हैं। जब दोनों की अपनी सीमाएं पार हो जाती हैं,तो फिर रास्‍ते अलग हो जाते हैं।

    यह कहना आसान है कि मारने पीटने वाले आदमी के साथ स्‍त्री क्‍यों रहे,उसे छोड़ क्‍यों नहीं देती। पर इसका जवाब कोई नहीं देता कि वह जाए कहां। क्‍या करे। दुर्योग से अपने पिछले तीस पैंतीस साल के जीवन में मैंने ऐसे तीन चार मामलों को बहुत निकट से देखा है। उनमें सतर्क हस्‍तक्षेप भी किया है। लेकिन एक सीमा के बाद आप खुद हाशिए पर खड़े होते हैं।

    असल में यह चर्चा बहुत दूर तक जाती है। इस पर गंभीर विमर्श की जरूरत है।

    अभी यहां सब पाठक उस औरत को ही नाम रख रहे हैं,या उसे एक आम भारतीय नारी का प्रतिनधि बता रहे हैं। यह सोच भी बदलने की जरूरत है।
    मैं यहां एक और सवाल रखता हूं कि क्‍या होता अगर औरत की जगह आदमी ने पिताजी का हाथ पकड़ लिया होता और कहा होता,यह हमारा मामला है।

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  23. हमें भी अपना बचपन याद आ गया। कैसे दिन थे वो? बढिया पोस्‍ट।

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  24. कितनी समझदार औरत थी, क्या उचित अवसर ढूढा उसने अपने रहमदिल पति का दिल जीतने का ! :)

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  25. संस्मरण त बहुते अच्छा लागा....... अंत तक पढ़ते ही चले गए हम त ...... अंत देख कर त माजा गईल.... इहे हम चोसे थे.... इ त कामन बात है... अईसा ही होता है...बहुते बढ़िया लिखे हैं आप....

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  26. मेरी राय मैं तो आपके पिताजी भी अपनी जगह सही थे और वह औरत भी। अगर कोई गलत था तो उसका पति।

    मैंने ऐसे तीन चार मामलों को बहुत निकट से देखा है। उनमें सतर्क हस्‍तक्षेप भी किया है। लेकिन एक सीमा के बाद आप खुद हाशिए पर खड़े होते हैं। r.u

    your sesibility .... out of word..

    pranam.

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  27. ांअजकल किसी को सलाह देने का जमाना कहाँ रहा है।अधिकतर लोग इसी लिये चुप लगा कर तमाशा देखते हैं तभी तो ऐसे लोगों का साहस बढ जाता है कि शरेआम नारी को पीटे। अगर आपके बाबू जी जैसे सभी लोग हो जायें तो ऐसे लोगों पर लगाम कसी जा सकती है फिर किसी को अच्छी सीख देने के लिये चाँटा नही खाना पडेगा। बहुत अच्छा संस्मरण। बधाई।

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  28. यथार्थ लेखन। शीर्षक से ही भावनाओं की गहराई का एह्सास होता है।

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  29. बचपन की यादों को साकार करती हुई अच्छी पोस्ट ..

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  30. शानदार पोस्ट है भईया जी पर अगर आप हमको भोजपुरी सिखा दें तो हम इसका आनंद और अधिक ले पाएंगे..........बधाई आपको !!

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  31. ओह क्या जीवंत चित्रण किया है....सब आँखों के आगे घूम गया..

    वैसे भाईजी एगो बात कहें,
    आज जो देखते हैं बात बात पर मेहरारू तलाक का कागज लेकर तैयार हो जाती है और पूरा खानदान को बड़े घर की हवा खिलाने का चेताती है,उसके सामने यह स्थिति दुखद होते हुए भी ठीके लगता है...

    आदर्श स्थिति तो ई होता है कि दुनो दुनो का सम्मान करें...पर यदि यह नहीं भी है तो बाल बचवान के लिए असम्मान पूर्वक भी घर जोड़ कर रख लेना चाहिए...

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  32. Mehrarun k dil bada naram hola tabbe na u apke pitaji ke hath pakada lay.

    ऊ औरत हमरे पिता जी का हाथ पकड़ ली अऊर चिल्लाकर बोली, “ई हमरा घर का लड़ाई है, आप कऊन होते हैं इसमें पड़ने वाले. ई हमरा आदमी है, हमको मार दे कि काट कर गंगा जी में बहा दे, आपको का. खबरदार जो आप हमरे आदमी पर हाथ उठाए!!”

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  33. आपकी पोस्ट पढने मुझे थोडा समय ज्यादा लगता है क्योकि समझना भी तो पड़ता है ?
    सब कुछ कैसे बदल गया है पहले कोई छोटे बड़े का अंतर नहीं था (आर्थिक )आज समाजवाद के नारे ने इस अंतर को बढ़ा दिया या यो कहे की आमिर गरीब के मन की गांठे और बढ़ गई |पिताजी ने कोई गलत नहीं किया |राजेश उत्साही जी की टिप्पणी से सहमत |
    बहुत बढ़िया पोस्ट |सारा गाँव का जीवन याद आ गया न कोई दिखवा न कोई तनाव कितना सच्चा जीवन जिया था बचपन |

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  34. बिहारी बाबु बहुत सुन्दर वर्णन किये हैं आप उस समय का जो पढ़कर अच्छा लगा. बस एक बात अपने भी हम कह दें आपके मंच से कि घर परिवार कि बात तभी तक घर परिवार कि बात होती है जब तक वो घर कि चार दीवारी के भीतर रहे. घर कि चार दीवारी से बाहर जो कुछ भी होता है तो वो सार्वजानिक हो जाता है जिस पर अपनी बात कहने का हक़ समाज के हर व्यक्ति का होता है. इसलिए मेरी समझ से आपके पिताजी को उस औरतिया को भी एक ठो झन्नाटेदार झापड़ रसीद करना चाहिए था और उससे कहना चाहिए था कि अगर तुम्हारे आपस के बात ही है तो अपने घर में ही रह कर निपटो बाहरी लोगों को क्यों तमाशा दिखा रही हो?

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  35. आपका लिखा पढ़ते वक़्त ऐसालगता है मानो आँखों के सामने कोई फिल्म चल रही हो जिसे हम बिना पलक झपकाए देख रहे हों...रही बात पिताजी की, तो आज कल आदमी ज्यादा ही सयाना हो गया है...नफा नुकसान देख कर उसके हिसाब से व्यवहार करता है!

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  36. पूरा पोस्ट पढ गए मगर आखिर में आकर तो अपना ही चेहरा सफ़ेद हो गया ..काहे से एक बात हमहुं अईसने सिचुएशन में भिड गए थे ..और हमें तो दुनु बाद में मिल के धर धर के गरियाया था , ऊ तो टोले का संजीबा आ गया बीच में न तो धोलईबो करते खूबे ....।

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  37. @ बड़े भाई उत्साही जीः
    का कहें... हमको लगता है कि अगर ऊ आदमी कहा होता कि ई घर का मामला है त बहुत पिटाता. मगर ऊ मामला में एगो कानूनी पेंच था. जब मुद्दई खुदे मुकदमा बापस ले लिया, त गवाह अऊर मुदाले का करेगा. वैसे हम भी मानते हैं कि इसपर गहन चर्चा होना चाहिए.
    @ अजय झा जीः
    धन्यबाद दीजिए संजीब का.. आप त खुदे कानून के बिसेसज्ञ हैं... इसलिए आप जो किए ऊ जरूर इमोसनल रहा होगा...

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  38. बहुते रोचक और दिलचस्प..आपको पढ़कर आनन्द विभोर हो जाते हैं.

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  39. आप ऐसा ऐसा पोस्ट लिख देते हैं न चचा जी , की हम समझिए नहीं पाते हैं की क्या कहें...
    पोस्ट का पहला हिस्सा में तो पता नहीं हमको भी क्या क्या याद आ गया...निमकी और चटनी, चटाई पे बैठ के पढ़ना...बहुत कुछ याद आया...
    और अंतिम वाला हिस्सा पे हम क्या कहें समझ नहीं आ रहा...

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  40. कल से आपके ब्लॉग पे कमेन्ट देने का कोशिश कर रहे थे...लेकिन पता नहीं क्या एरर आ रहा था.. :(
    मेरे ब्लॉग का भी अपडेट कहीं नहीं दिखा रहा....शायद ब्लॉगर में कुछ खराबी हो या पता नहीं क्या...

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  41. tumhara blog to mujhe flashback me le jaata hai. in ghatnao ko dekha maine bhi hai magar yaad tab aati hai jab tum likhte ho. kul milakar mere liye bhi utani hi nayi hoti hai ye ghatnaye jitni auro ke liye...bilkul vaise hi jaise seb ko zameen par girte kai logo ne dekha tha par newton sabse alag the.

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  42. यही है आज की पत्नी व्रता नारी वैसे ज़्यादातर ओरते यही सब कहती है बेचारी खुद पिट लेंगी लेकिन अपने पति को पीटने नहीं देख सकती !

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  43. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  44. मेरे पड़ोस में एक इंजिनियर महोदय रहते थे .
    एक दिन देखा एक आदमी से १ रुपया माँग रहे थे.
    मुझे बहुत बुरा लगा मैंने कहा " इतने बड़े ओहदे पर काम
    करते है और ऐसा नीच हरकत किये है " ," आप से एसी उमीद
    नहीं थी, कितने शर्म की बात है दूसरे के सामने हाथ फैलाना.
    ओ हसने लगे और कहा " उदेश्य बड़ा है इसलिए शर्म नहीं लगती ".
    मैंने बोला " दूसरे से भीख माँग रहे है ये कैसा बड़ा उदेश्य है "
    तब उन्होंने कहा की मेरा मन गरीबो को देख कर बड़ा परेशान
    हो जाता है, और उनके लिए कुछ करने के लिए मन करता रहता है.
    मेरे तनख्वाह इतना नहीं है कि घर चला सकू और किसी गरीब कि मदद
    कर सकू इसलिए सभी लज्जा शर्म छोड़ कर १ रूपये का भीख मांगता हू.
    कि एक दिन ये १- १ रुपया जमा हो कर बहुत रुपया जमा हो
    जायेगा तब गरीबो के लिए स्कुल या कुछ और कर पाउगा.
    बचपन कि ये घटना मेरे मन में आज भी कभी कभी याद आ जाती है.
    माफ कीजियेगा ,जिसे मै आप के साथ बाटना चाहता हू.
    और एक आग्रह करता हू कि कुछ टिप्पणी जरूर करे.

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  45. @दीपू सिंहः
    दीपू बाबू , एगो बहुत पुराना अंगरेजी का कहावत है, रोज का मालूम केतना लोग ई कहावत बोलता होगा, First Impression is the last impression. मगर जल्दी में बनाया हुआ कोनो इम्प्रेस्सन चाहे राय, हमेसा सही हो जरूरी नहीं. वही आपके साथ भी हुआ, स्वाभाविक था. अक्सर हम लोग कपड़ा अऊर पहिरावा से धोखा खा जाते हैं. बढिया कपड़ा पहिने हुए आदमी को समझदार अऊर धोती पहिरने वाला को देहाती बेकूफ, समझ लेते हैं. आप जिनका जिकिर किए हैं, ऊ त बहुत महान आदमी रहे होंगे. भगवान उनको अपना मकसद में कामयाबी दे!!

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  46. bhaiya
    tumne un saare logon ko yaad kara diya jinse apna bachpan juda hai. jis ghatna ka zikr tumne kiya hai vaisi hi ghatna mere saath ghati lekin maine papa wala kaam nahi kiya kyonki mujhe yah ghatna yaad thi.ghatna ko suno.............
    MONI (my maid) ka dulha usko hamare gate par maar raha tha aur MONI ro kar kah rahi thi maami hamra bachawa lekin main mook darshak bani rahi aur papa ko yaad karti rahi. fir uska dulha chala gaya aur main MONI ko yah ghatna bataate huve beech bachao na karne ka kaaran bataya.

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  47. आपके पिताजी वाले प्रकरण से हमारा भी सबाका पड़ चुका है। तब से अपनी तो बोलती ही बंद रहती है इस मामले में। वैसे आप शब्दों में सारा चलचित्र प्रस्तुत कर देते हैं।
    आपकी इस राय से सहमत हूं कि जल्दी और पहली बार में देख कर बनाई गई राय हमेशा सही नहीं होती।

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  48. मेरा भारत महान..
    जन्मदिन पर आपकी शुभकामनाओं ने मेरा हौसला भी बढाया और यकीं भी दिलाया कि मैं कुछ अच्छा कर सकता हूँ.. ऐसे ही स्नेह बनाये रखें..

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  49. एक पक्ष यह कि जब पिटाई सड़क पर हो तो मामला घर का कहाँ रह गया..

    दूसरा पक्ष यह कि वह औरत इसलिए भी चिल्लाई कि कल तो उसे उसी घर में रहना है आज कोई बचा लेगा लेकिन इसके एवज में मेरा मरद मुझे दुबारा मारेगा।

    सत्य यह कि नारी को पुरूष प्रधान अशिक्षित समाज में सदियों से यह दंश झेलना पड़ रहा है।

    समाधान यह कि सम्पूर्ण समाज शिक्षित हो।
    ..उम्दा पोस्ट।

    जवाब देंहटाएं
  50. आप का ईमेल पढ़ा बहुत अच्छा लगा. उस दिन आप के
    लेख पर टिप्पणी नहीं लिख पाया था. मै उस आदमी के
    बारे में सोच रहा था कि ओ अपनी पत्नी को क्यों पिट
    रहा था और पत्नी ने आपके पिताजी के बीच बचाव करने
    पर उनको क्यों रोक दिया ?
    इसका कारण मेरे समझ से यही हो सकता है..............
    ओ गरीब व्यक्ति दिन भर काम कर के आया होगा बेचारे को
    मजदूरी भी ठीक ठाक नहीं मिली होगी या मिली ही नहीं होगी.
    शाम को बेचारा मन मार कर घर की ओर चला होगा.
    किसी ने रास्ते में दारु पिला दिया होगा. घर पहुचने पर
    पत्नी ने कहा होगा की कुछ रूपये दो राशन लाउ, बच्चे भूखे है.
    पति बेचारा अब क्या करे यही सोच रहा होगा तब तक
    दारु की गंध उसकी पत्नी की नाक में गई होगी, और ओ
    चिलाने लगी होगी की दारु पिने के लिए पैसे है और घर के
    राशन के लिए पैसे नहीं है. इसी चिल पो में आदमी का दिमाग
    खराब हो गया होगा और ओ अपने मालिक पर का सारा गुस्सा
    पत्नी पर ही निकल ने लगा होगा. मार पिट के क्रिया में ही
    आज के दिन का हाल आपने पत्नी को बताया होगा. तब
    पत्नी बिचारी सोची होगी की मैंने आपने पति को विचारों से
    इतना व्यथित किया उसकी सजा मुझे मिलनी चाहिए .
    तभी आपके पिताजी आगए होगे और उसने उन्हें कोई
    पर्तिक्रिया लेने से रोक दिया होगा.
    ये भी सही है की उसको पत्नी के साथ मार पिट नहीं
    करनी चाहिए. लेकिन ओ तो दिन भर काम की तलाश में
    और पेट के जुगाड में आस्था टीवी चेनल भी नही देख
    पता होगा तो उसके मन में सत्संग की बाते कहा से
    आएगी.
    दीपू सिंह

    जवाब देंहटाएं
  51. हम तुम का ये बैर है ,
    मिल कर बात करेंगे ,
    प्रेम बखत भी दो ही थे ,
    क्यूँ तीजा याद करेंगे ??

    सदर

    जवाब देंहटाएं
  52. bahut achchha laga..kai purane log yaad aa gaye jinko hum kabhi yaad bhi nahi karte hain ...ek samay in logon se daily interaction hota tha...

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  53. यह प्रसंग पढ़कर मुझे चन्द्रशेखर आजाद का एक प्रसंग याद आया जब वे एक जगह छुपकर रहते थे । एक दिन सामने वाले घर में एक आदमी अपनी पत्नी को पीट रहा था । आजाद से न रहा गया । जाकर आदमी को समझाया रोका पर वह नही माना । बल्कि गाली देखर कहने लगा कौन साला है जो मुझे रोकेगा । आजाद अब सामने आ गए और उसका हाथ पकड़कर बोले --तूने साला कहा है तो अब मेरा पूरा अधिकार है कि तुझ जैसे अत्याचारी से अपनी बहिन को बचाऊँ । और सचमुच फिर उस आदमी ने कभी अपनी औरत को नही पीटा ।
    पिताजी में वही आजाद वाली भावना थी जो दुर्लभ होती है । मेरी दादी भी पड़ोस में जाकर ऐसे लोगों को खरी खोटी सुना आतीं थीं । कोई कुछ नही कहता था । पुरुष के साथ मुझे एक तरह से स्त्री भी गलत लगी । अपने सहृदय रक्षक से कम से कम यह तो नही कहना चाहिये था । फिर इतना आपस का मामला था तो वह बाहर गली में नही आना चाहिये था । वरना पिताजी जैसे निश्छल व संवेदनशील लोगों को ( महिला का भी )उबाल आना स्वाभाविक ही था ( है ) । तमाशाबीनों और चतुर व्यवहार-बुद्धि लोगों की बात अलग है ।

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  54. आपका लेख भी पढ़ा और उसपर आई टिप्पणियां भी.आपकी शैली गजब की है. बचपन के दिनों में ऐसी महान सती स्त्रियों की प्रशंसा खूब सुनी है और असल जीवन और फिल्मों में भी खूब देखी हैं.
    टिप्पणियाँ और टिप्पणीकारों के नाम पढ़ पुराने ब्लॉगिंग के दिनों की याद ताजा हो गई.

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