बुधवार, 26 सितंबर 2012

मैं हूँ ना!!

हे भगवान! इस चप्पल को इसी समय टूटना था! अभी कितने काम पड़े हैं और आस-पास कोई मोची भी नहीं.
मैं हूँ ना! बोलो क्या करना है, चप्पल मरम्मत करवा दूँ या नई दिलवा दूँ?
तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे अलादीन का जिन्न तुम्हारा हुक्म बजा लाने को तैयार हो!
बन्दा किसी जिन्न से कम है क्या! वो देखो सामने चप्पलों की दुकान है. चलकर नयी ले लेते हैं ना!
सुनील! प्लीज़ तुम तो रहने ही दो, मैं ले लूंगी.
कहती हुई अंजना बाटा की दुकान में दाखिल हो गयी और अपने लिये चप्पल पसन्द करने लगी. एक चप्पल उसे पसन्द आई, थोड़ी ऊँची हील की अच्छी चप्पल थी. उसने चप्पल पैरों में डाली और सामने लगे आईने में देखने लगी. पैरों से नज़र हटी भी नहीं थी कि उसने देखा, आईने में सुनील नाक सिकोड़े उसके पीछे ही खड़ा था.
तुम यहाँ भी चले आए, मेरे पीछे-पीछे. मुझे पता था कि तुम्हें ये हील पसन्द नहीं आयेगी.
.....
ओफ्फोह बाबा! अब ये अपनी नाक सिकोड़ना बन्द करो. मैं वो वाली ले लेती हूँ... और सुनो, अभी मेरे पास पैसे हैं, इसलिये तुम्हें पेमेण्ट करने की ज़रूरत नहीं.
अंजना ने टूटी चप्पल डिब्बे में बन्द करवाई और नई चप्पल पहनकर दुकान से बाहर निकल गई.

सुनील के पागलपन की ये इन्तिहाँ थी कि वो साये की तरह अंजना के साथ लगा रहता था. अब चाहे खुशी चाहे ग़म, हमेशा उसके साथ. अंजना भी याद करती थी वे दिन, जब सुनील की पोस्टिंग कोलकाता में थी. उसके बग़ैर लगता था कि वो एक कदम नहीं बढा सकती. ख़ुद को कितना बेसहारा महसूस करती थी. इतनी बड़ी दुनिया में ऐसा लगता था कि जैसे वो खो जायेगी. तब तो कई मौकों पर वो महसूस करती कि काश अभी सुनील यहाँ होता तो मेरा ये काम कितनी आसानी से हो गया होता.

और उसके उलट आज तो ये हाल है कि वो साये की तरह अंजना के पीछे रहता है. न नौकरी है उसके पास, न कोई काम. बस सारे दिन अंजना के साथ लगा रहता है. अभी उसी रोज़ की तो बात है. डॉक्टर ने मना किया था अंजना को ठण्डी चीज़ें खाने से. फिर भी बाज़ार में उसने आइसक्रीम ख़रीदी और बस एक स्कूप मुँह में डाला ही था कि न जाने कहाँ से सुनील उसके सामने आकर खड़ा हो गया और लगभग चीख़ते हुये बोला, पकड़ लिया! अभी टौंसिल का दर्द गया नहीं और तुमने आइसक्रीम खाना शुरू कर दिया! तुमने क्या सोचा था कि मुझे पता नहीं चलेगा!

सुनील ने यह बात इतनी ज़ोर से और अचानक कही कि अंजना के हाथ से आइसक्रीम का प्याला गिरते-गिरते बचा. उसने गुस्से और खीझ से भरकर जवाब दिया, मेरा दर्द ख़तम हो गया है तभी तो खा रही हूँ और डॉक्टर के कहने से क्या होता है. दो चम्मच आइसक्रीम खाने से मैं मर नहीं जाउंगी!
ठीक है! मैं बेकार ही तुम्हारे और आइसक्रीम के बीच आया. खा लो. कहो तो एक बड़ा सा बटर-स्कॉच और मंगवा दूँ. तुम्हारा फेवरिट फ्लेवर!!
अब ताने मत मारो. लो मैं नहीं खाती.

और जब तक सुनील कुछ जवाब देता, उसने पूरा कप गार्बेज-बिन में डाल दिया. आस-पास खड़े लोग अजीब सी नज़रों से उसे देख रहे थे, मगर तब तक वो दुकान से निकल गयी.
घर लौटते समय, उसने बिजली की दुकान से बल्ब खरीदा.
ये बल्ब क्यों ख़रीद रही हो तुम?
आज रात आलू-बल्ब की सब्जी बनाऊँगी.... बालकनी का बल्ब फ्यूज़ हो रखा है चार दिन से. स्ट्रीट लाइट की रोशनी से कब तक काम चलाऊँ. वहाँ बैठकर पढाई भी नहीं कर पाती.”
“अरे हाँ! मैं भी जब तुम्हें दूर से देखने की कोशिश करता हूँ तो तुम्हारा चेहरा साफ़ नज़र नहीं आता. सी.एफ.एल. ले लो ना, बिजली भी बचाए और चेहरा साफ़ नज़र आये!”
“अगली बार!”

अंजना घर के दरवाज़े तक पहुँच गयी. उसने कंधे की ओट से सुनील को देखा और ‘बाय’ कहकर अंदर चली गयी. उसे लगा सुनील उसे देख रहा होगा छिपकर, इसलिए सबसे पहले वह बालकनी में बल्ब लगाने लगी. ऊंचे वाले स्टूल को उसने होल्डर के नीचे फर्श पर रखा और संभलकर स्टूल पर चढ़ गयी. पंजे उचकाकर जैसे ही वो बल्ब होल्डर में लगाने लगी कि उसका बैलेंस बिगड गया, उसकी साँस रुक गयी और धडाम से ज़मीन पर गिरने ही वाली थी कि सुनील की बाहों ने उसे थाम लिया.

“तुम्हें क्या लगा था कि मैं दरवाज़े से लौट गया. मैं तुम्हारे पीछे-पीछे दबे पाँव अंदर आ गया था, मुझे पता था कि तुम फिसलने वाली हो. और मैं तुम्हें कैसे गिरने देता!”
“ओह सुनील! तुम्हें गुज़रे, कितने साल हो गए. अब तो मैंने हिसाब रखना भी बंद कर दिया. तुम्हारे दोनों बच्चों को बड़ा करना, उन्हें पढ़ा लिखाकर उनके पैरों पर खडा होने के काबिल बनाना, उनकी शादी, उनका घर बसाना... और अब अकेले कितने काम करने पड़ते हैं मुझे.”
“मैं जानता हूँ, देखता जो रहता हूँ तुम्हें. तुम्हारे साथ-साथ, तुम्हारे पीछे-पीछे!”
“लोग कहते हैं कि अंजना इतनी हिम्मत कैसे जुटा लेती है तू. अकेली औरत और इतनी बड़ी दुनिया... तुम्हें पता है, कहाँ से जुटाती हूँ मैं ये हौसला और हिम्मत?”
“कहाँ से!”
“तुमसे... जब तुम कोलकाता में थे, तब मुझे लगता था कि मैं अकेली हूँ, तुम नहीं मेरे साथ. लेकिन अब तो लगता है कि मैं एक मिनट को भी अकेली नहीं.”
“कभी डर नहीं लगता तुम्हें!”
नहीं. डर लगते ही कानों में तुम्हारी आवाज़ गूंजने लगती है. मैं हूँ ना!”

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(यह लघु-कथा लिखने का मेरा प्रथम प्रयास है. इसकी घटनाएँ तथा पात्र परमात्मा की नहीं मेरी रचना हैं. अगर किसी से मेल हो तो इसे ऊपरवाले के स्क्रिप्ट की कार्बन कॉपी न मानकर महज इत्तेफाक समझें)

65 टिप्‍पणियां:

  1. जिसे बेचैन आत्मा से प्यार हो जाय या कहें जिस पर बेचैन आत्मा लट्टू हो जाय उसका यही हाल होता है सलिल भैया। का जीते जी, का मर कर भी वह तो अपनी माशूका से प्यार करता ही रहेगा। लघु कथा बहुत कुछ कहती है जो आपने नहीं लिखा, जो मैं जान नहीं पाया लेकिन आनंद आ गया पढ़कर।

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    1. जो नहीं लिखा,जब वो पता चल जाए तो हमें भी बता दिया जाए :)

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    2. देवेन्द्र जी ,
      इस प्रेम कथा के नायक का नाम लेते / उचारते वक़्त कथा लेखक का नाम ज़ेहन में कौंध कौंध जाता है :)

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  2. भाव प्रबल ....बहुत सुंदर लघु कथा ...!!
    शुभकामनायें सलिल जी ॥!!आगे भी लिखते रहें ...!!

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  3. अपना साया जब साथ छोड़ने का मन रखता हो, वहाँ ऐसा साथी मिल जाये..बड़ी सुन्दर लघुकथा।

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  4. padhe nahi hain chacha abhi bas aise hi kahne aa gaye ki aaj hum bhi itne din baad apne blog par kuch post kiye hain aur lagbhag ek mahina baad aap bhi.....
    subah padhenge ye laghu-katha :)

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  5. आप की तरह ही कहानी में मासूमित झाँक रही है।

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  6. बड़ा अजीब लगता है इस तरह की पोस्ट पढने में... मन में अजीब सा होने लगता है... आखें उदास हो गयी हैं.. :-/ कभी कभी इंसान लाचार हो जाता है....

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  7. एक बात तो आज मैंने तय कर ली है कि आपकी किसी पोस्ट का अंत पढ़े कमेंट नहीं सोचूंगा।

    तीन बार अपने विचार बदलने पड़े।

    कहने को शब्द नहीं मिल रहे हैं इस प्रेम को देख कर इसलिए शे’र से काम चला रहा हूं।

    चल तो रहा है फिर भी मुझे ये गुमाँ हुआ
    थम सा गया है वक्त तेरे इन्तजार में

    जब भी तुम्हारी याद ने हौले से आ छुआ
    कुछ राग छिड़ गये मेरे मन के सितार में

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  8. सलिल जी ,बहुत गहरी भावना व्यक्त करती आपकी यह लघुकथा पहली बार लिखी गई रचना तो बिल्कुल नही लग रही । हाँ खडी बोली में आपकी रचनाएं कम से कम इस ब्लाग पर तो मैंने नही पढी ।

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  9. बहुत ही लाजवाब कथा...प्रेम के ऊपर जितना लिखा जाए उतना कम..|

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  10. प्रेम सदा अमर रहता है ......ये लघुकथा मेरे दिल के बहुत करीब लगी मुझे...........क्या अनुमति मिलेगी पॉडकास्ट बनाने की ,और "मेरे मन की" पर पोस्ट करने की ...

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  11. साहित्यिक अभिरुचि वाला कलम यदि प्रेम पर चलता है तो छोटा-छोटा (लघु)ही काटता है.आपने पहले लघु प्रयास में कई गुरुओं को मात दी है !

    ...काश,ऐसा प्रेम ही सर्वत्र हो !

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  12. आपका पहला प्रयास तो कहीं से नहीं लग रही यह कहानी। इतना प्रवाह, इतनी सहजता, जैसे जिंदगी की रील चल रही हो। क्लाइमेक्स तो गजब का था। चौंकाने वाला एलीमेंट किसी शॉर्ट फिल्म की मानिंद था। इस पोस्ट से इस ब्लॉग में नयापन आ गया जो इसकी एकरसता तोड़ रहा है। बधाई इस बेहद कामयाब पहले प्रयास के लिए...

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  13. यूं तो सारे हालात पुनरावृत्ति की शक्ल में दिखाई दिए यानि कि इस प्रेम व्यवहार में नया जैसा कुछ भी नहीं है पर आपने उसे जिस सन्देश के लिए इस्तेमाल किया , जिस तरह से इस्तेमाल , वो अदा ,वो शैली एकदम नई नकोर है अछूती है ,बस यही इस कथा की खासियत है ! सो लगता नहीं कि कहानी पर पहली बार हाथ आजमायें गये हैं !

    कथा अनुभूति /अहसासात के लेवल पर बेहद अपील करती है अस्तु साधुवाद !

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  14. कोई शक नहीं है की प्रेम के बहुत गहरे रूप को आप ने दिखाया है , एक बात मैंने ध्यान दिया है कितनी ही कहानिया आदि मैंने पढ़ी है पर जब बात पति पत्नी के प्रेम की हो तो पत्रों का क्रम ऐसा ही होता है जैसा आप की कथा में है ,आज तक कोई ऐसी कहानी नहीं पढ़ी जहा आप की कथा से उलट पात्र हो , क्या पुरुष भी इस बात का कल्पना नहीं कर पाता है की कोई पति भी अपनी पत्नी से इस गहराई तक प्रेम कर सकता है , बड़ी तमन्ना है ऐसी कहानी पढ़ने की, देखना चाहती हूं की उस कहानी को कितना सच और अपने दिल के करीब लोग ( और मै भी ) महसूस करते है |

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    1. बिल्कुल ऐसा तो नहीं, लेकिन बहुत कुछ ऐसा जैसा आप कह रही हं, अजाकल हिटलर दीदी में चल रहा है।

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    2. अंशुमाला जी,
      आम तौर अपने पोस्ट पर कमेंट्स के जवाब नहीं देता.. शर्म आती है और एम्बैरेस्मेंट महसूस होती है.. ज़रूरी हो, या सवाल हो तभी कुछ कहता हूँ..
      आपने जिस कहानी का ज़िक्र किया है वो भी है दिमाग में, कहानी क्या हकीकत है... लेकिन कुछ बातें अपने तईं रखने का मन होता है.. देखूं शायद कभी लिख पाऊँ!!

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    3. @ शर्म आती है और एम्बैरेस्मेंट महसूस होती है..
      लो जी ! ये तो उलटा ही मामला हो गया जब मै ब्लॉग जगत में नई थी और किसी को टिप्पणी देती थी तो लगता था की पता नहीं जिसे टिप्पणी दी जा रही है उसके लिए उसका कोई महत्व भी है की नहीं उसे पढता भी है की नहीं , यहाँ तो बड़े बड़े लोग है और मै आम सी महिला , फिर संजय जी को सभी को जवाब देते देखा तो बड़ा अच्छा लगा और खुद भी वैसा ही करने लगी | मुझे तो लगता है की जवाब देने से टिप्पणी देने वाले को और भी अच्छा लगता है और एक संवाद भी कायम हो जाता है , हा हर बार तो नहीं किन्तु कभी कभी तो उसकी जरुरत लगती है |

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  15. कुछ समय पहले अली जी ने अपने ब्लॉग पर कुछ ऐसा कहा था की हमारे विचार मौलिक नहीं हो सकते है क्योकि हम दुनिया में आने वाले पहले इन्सान नहीं हमसे पहले ही कोई उन विषयों पर विचार रख चूका होता है | जैसा कई बार आप ने देखा होगा की हम जो कहना चाहते है जिस विषय पर अपनी पोस्ट लिखना चाहते है बिल्कुल वही कोई और लिख देता है , बिल्कुल वैसे ही ये कहानी अपने बचपन में दूरदर्शन में देख चुकि हूं बस कहानी के मात्र में महिला मछुआरन रहती है जिसका पति समुद्र में जा कर वापस नहीं आता है किन्तु उसके लिए हमेसा उसके साथ रहता है यहाँ तक की उसे गुंडों तक से बचा लेता है , मुझे याद है ऐसा ही कई बार पहले भी कई लोगों के साथ हो चूका है मेरे साथ भी |

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    1. खूब याद दिलाया ...दूरदर्शन के स्वर्णिम दिनों की याद !

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  16. यह कहानी श्रेणी में ही आती है, लघुकथा का फार्मेट कुछ अलग होता है। कहानी अच्‍छी है, अन्‍त तक पाठक को बांधे रखती है।

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  17. बहुत सुन्दर कहानी \विचार ,पेम और विश्वास साथ है तो भौतिक देह मायने नहीं रखती |

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  18. बहुत सुन्दर कथा सलिल जी......हमारी कहानी की समीक्षा आपने की थी आँच पर.....दिल चाह रहा है हम भी कुछ सार्थक कहें इस कथा पर....मगर वो हूनर भी हममें कहाँ....
    सच्ची मन भा गयी(रुला गयी)...
    सादर
    अनु

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  19. बहुत सुंदर कथा,
    पढते हुए लगा कि इतनी जल्दी खत्म हो गई।

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  20. arey main to kahani me aanand le rahi thi ye soch kar ki vo sunil nahi salil ji honge....lekin yaha to character ko apne bhagwan ko pyara kar diya.

    rochak prayas hai. ant tak bandhe rahe. :-)

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    1. सुनीता जी,
      हम भी कहाँ अमर हैं.. मगर मुश्किल ये है कि उस मौत के लिए भी उम्र भर इंतज़ार करना पडता है!!

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  21. नहीं. डर लगते ही कानों में तुम्हारी आवाज़ गूंजने लगती है. मैं हूँ ना!”
    शुरू से अंत तक बिल्‍कुल साथ-साथ ...
    बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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  22. न होकर भी होना...इस विश्वास भरे एहसास में जो चलता है,वह सारी मुश्किलें पार कर लेता है .... आपका हर प्रयास सोच,सुकून,मुस्कान देता है सलिल भाई

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  23. ओह .. बहुत सुन्दर कहानी | पहला प्रयास ऐसा है ? तो आगे क्या आने वाला है ?

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  24. kya kahen chacha..ekdam nishabd ho gaya main to!
    itni achhi kahani sirf aap hi likh sakte hain!!

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  25. ek bhawnatmak ehsas ko aapne badi hi sunderta ke saath
    laghukatha ka roop de diya hai.....pratham prayas ki badhayee.....

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  26. बहुत ही स्वीट सी कहानी
    मौजूदगी से ज्यादा गहरा मौजूदगी का अहसास होता है.

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  27. आत्मिक प्रेम डूब कर किया गया प्रेम है जो भीतर की छवि को बाहर साकार करता है . सुनील के प्रति अंजना का गहन प्रेम उसके साथ साया सा चलता है !
    बहुत प्यारी सी कहानी !

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  28. चर्चा मंच से यहाँ पहुंच गई ,एक रोचक कहानी मिली ,पढ़ने को !!

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  29. सचमुच अच्छी लघु कथा प्रयास सार्थक है लिखते रहें

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  30. आत्मिक प्रेम की गहराई में डूबी सुंदर कहानी अंत तक रोचकता प्रवाह बनाए
    रखने में सफल,इस उत्कृष्ट कहानी लेखन के लिये सलिल जी,हार्दिक बधाई,,,,

    RECENT POST : गीत,

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  31. बहुत अच्छी लगी ये लघु कथा. सच में जो चले जाते हैं, वो हमेशा के लिए हमारे अस्तित्व से जुड़ जाते हैं.

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  32. पहले सोचा बीबी को भी पढ़वा देता हूँ ये सुंदर लघु कथा फिर सोचा रहने दो मैं थोडे़ मैं हूँ ना :)).

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  33. पहला प्रयास और इतना शानदार....मेरी शुभकामनाएं

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  34. लगता ही नहीं पहली कहानी है.कितनी आसानी से इतना गूढ़ संदेश दे दिया - सराहनीय!

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  35. आपके मनोविज्ञान का एक यह पहलू भी है जो मुझे उलझन में डाल देता है!उस घर की याद आयी जहाँ किसी का साया अब भी आता हुआ लगता है ....

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  36. इसे पढकर तो ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता कि यह पहली कहानी है. बहुत सुंदर कहानी सीधे दिल को छू जाती कई. गज़ब का अंदाजे बयाँ. मुबारक हो.

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  37. क्या जी! कहानी ने तो पढ़ते पढ़ते आंखों की ह्यूमिडिटी बढ़ा दी!

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  38. बहुत अच्छी और बड़ी सच्ची सी कहानी है सलिल जी. बधाई.

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  39. भावों की बेहतरीन अभिव्यक्ति
    जीवन की सच्चाइयों से जूझते व्यक्तित्व का अत्यंत सुंदर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और चित्रण किया है आप ने
    अति उत्तम !!

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  40. पहले सुना, फिर पढा! दुनिया से जाने वाले दिल से कब जाते हैं भला!

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  41. बाऊ जी (देखिये हम कहाँ से कहाँ तक आ गए , कल सुबह ही सर से शुरू किये थे , कल रात तक चचा और आज सुबह फाइनली बाऊ जी , आप ऊँगली पकडाइये पहुंचा हम खुद पकड़ लेंगे ) , अपने लघु कथा का पहला प्रयास किया था , एकबारगी किसी को यकीन ही नहीं होगा , लेकिन इसके साथ में आपका नाम जुड़ा है न , यकीन करना ही पड़ेगा |
    और एक बात अंत में दिया हुआ "राही मासूम रजा" इश्टाइल विवरण भी बहुत बढ़िया है |

    सादर

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  42. सुबह का पौने छौ बज रहा है और यकीन मानिये मेरी आँखों में नींद का एक कतरा भी नहीं है | दिल अभी और इसी तरह आपको पढ़ना चाहता है लेकिन रात ने ही साथ छोड़ दिया |
    मुझे याद है कि मैंने आपसे कहा था कि आज भर में आपका 'पूरा ब्लॉग' पढ़ डालूँगा लेकिन मैं कच्ची जुबान का निकला , सिर्फ ७५ पोस्ट पढ़ पाया मैं | क्षमा चाहता हूँ :(
    बाऊ जी , मजबूरी है , सुबह कॉलेज जाना है , एक - आध घंटा सो लेता हूँ उस से पहले |
    आपने भले ही बहुत संजीदा बातों को बेहद चुटीले अंदाज में कहा हो और मैं भले ही उनको पढ़कर कितना भी प्रसन्न हुआ हूँ , लेकिन पता नहीं क्यूँ जाते समय मेरी आँखें कुछ गीली सी हैं , क्यूँ , पता नहीं , उस खुशी को मैं सिर्फ महसूस कर पा रहा हूँ , बता नहीं पा रहा हूँ |
    अभी के लिए शायद मेरी सीमायें यहीं तक थीं , चलता हूँ
    जल्द लौटूंगा |
    आपका आशीष चाहिए |
    प्रणाम |

    सादर
    -आकाश

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  43. आत्मिक प्रेम डूब कर किया गया प्रेम है जो भीतर की छवि को बाहर साकार करता है .

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  44. चारो खाने चित्त हो गए हम तो! अब हम ब्लश कर रहे हैं कि उस दिन आपकी लघुकथा पर क्या क्या कह यह सोचकर कि वह आपकी पहली लघुकथा है। 2012 में तो मैं लघुकथा का ल भी नहीं जानती थी।
    आपने अपने अंदर कितने रुस्तम छिपा रखा है।
    मुझे बहुत अच्छी लगी यह।

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