मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

उलझे धागे



न कभी जन्मे - न कभी विदा हुए 
जो सिर्फ अतिथि रहे इस पृथ्वी-गृह पर 
११ दिसंबर १९३१ एवं १९ जनवरी १९९० के मध्य 

ओशो को पढते हुए अचानक उनके प्रवचन "अथातो भक्ति जिज्ञासा" के अंतर्गत देखा कि गुलज़ार साहब की कुछ नज्में उद्धृत की हैं उन्होंने. प्रेम के भाव से ओत-प्रोत नज्मों का आध्यात्मिक विश्लेषण देखकर चकित रह गया.
आज प्रिय ओशो के जन्म-दिवस पर उनकी उसी प्रवचनमाला का एक मोती प्रस्तुत है:
***


क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं 
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ 
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा 
अगरचे एहसास कह रहा है 
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं 
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है 
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा 
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ 
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले 
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं 
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 


स्नेह हो या प्रेम या श्रद्धा या भक्ति – प्रीति का कोई भी रूप, प्रीति की कोई भी तरंग – बाधा एक है – अहंकार. क्षुद्रतम प्रेम से विराटतम प्रेम तक बाधाएं अलग-अलग नहीं हैं. एक ही बाधा है सदा – अस्मिता! मैं यदि बहुत मजबूत हो तो प्रेम नहीं फल सकेगा. मैं का अर्थ है, परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़े होना! प्रेमी की तरफ पीठ करके खड़े होना! मैं का अर्थ है – अकड.

परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, सिर्फ तुम पीठ किये खड़े हो. परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, हाथ बढ़ाओ तो मिल जाए. ज़रा गुनगुनाओ, तो आवाज़ उस तक पहुँच जाए. ज़रा मुडकर देखो, तो दिखाई पड़ जाए. मगर अहंकार कहता है - मुडकर देखना मत. अहंकार कहता है - पुकारना मत. अहंकार अटकाता है और अहंकार के जाल बड़े सूक्ष्म हैं. मनुष्य और परमात्मा के बीच इसके अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं है.

एक आदमी ने ईश्वर की बहुत-बहुत प्रार्थना की. ईश्वर प्रसन्न हुआ और ईश्वर ने उसे एक शंख भेंट कर दिया और कहा, इससे जो तू माँगेगा, मिल जाएगा. वह आदमी क्षण भर में धनी हो गया. जो माँगा, मिलने लगा. जब माँगा, तब मिलने लगा. लाख रुपये कहे तो तत्क्षण छप्पर खुला और बरस गये.
अचानक उसके भाग्य में परिवर्तन देखकर दूर-दूर तक खबरें पहुँच गयीं कि चमत्कार हो रहा है. न वह घर से बाहर जाता है, न कोई व्यवसाय करता है और खज़ाने खुल गये हैं.
एक सन्यासी उसके घर में आकर मेहमान हुआ. सन्यासी सुबह पूजा कर रहा था. गृहस्थ ने उस सन्यासी को पूजा करते देखा. उस सन्यासी के पास एक बड़ा शंख था. सन्यासी ने उस शंख से कहा कि मुझे लाख रुपये चाहिये. वह गृहस्थ पीछे खड़ा होकर सुन रहा था. उसने सोचा अरे! इसके पास भी वैसा ही शंख है और मुझसे भी बड़ा है.
शंख बोला लाख से क्या होगा, दो लाख ले लो!
गृहस्थ के मन में बड़ी लोभ की वृत्ति उठी कि शंख हो तो ऐसा हो. मेरे पास है, लाख माँगता हूँ, लाख दे देता है, जितना माँगो उतना दे देता है यह भी कोई बात हुई! यह है शंख! लाख कहो, दो लाख कह रहा है! माँगने वाला कहता है – लाख, शंख कहता है – दो लाख ले लो! पैरों पर गिर पड़ा सन्यासी के. कहा, “आप सन्यासी हैं! आपके लिए ऐसे शंख की क्या ज़रूरत? मैं गृहस्थ हूँ, फिर मेरे पास भी शंख है, वह आप ले लें! वह उतना ही देता है जितना मांगो. आपको वैसे ही ज़रूरत नहीं है.”
सन्यासी राजी हो गया. शंख बदल लिए गए. सन्यासी उसी सुबह विदा भी हो गया. साँझ पूजा के बाद गृहस्थ ने शंख को कहा, “लाख रुपया.”
शंख ने कहा, “लाख में क्या होगा! दो लाख ले लो!”
गृहस्थ बड़ा प्रसन्न हुआ, कहा, “धन्यवाद! तो दो ही लाख सही!”
शंख ने कहा, “दो में क्या होगा, चार ले लो!”
बस, शंख ऐसे ही कहता चला गया. चार कहा तो कहा- आठ ले लो, और आठ कहा तो कहा-सोलह ले लो!
थोड़ी देर में गृहस्थ की तो छाती काँप गयी. देने लेने की तो कोई बात ही नहीं थी, सिर्फ संख्या दुगुनी हो जाती थी.

अहंकार महाशंख है. तुम मांगो, उससे कई गुना देने को तैयार है - देता कभी नहीं. हाथ कभी कुछ नहीं आता. अहंकार से बड़ा झूठ इस संसार में दूसरा नहीं है. सारी भ्रांतियों का स्रोत है. उससे ही उठती है सारी माया. उससे ही उठाता है सारा संसार. संसार को छोड़कर मत भागना – क्योंकि कहाँ भागोगे, अहंकार तुम्हारे साथ रहेगा. जहाँ अहंकार रहेगा, वहाँ संसार रहेगा. छोड़ना हो कुछ तो अहंकार छोड़ दो. और मज़ा यह है कि छोड़ना कुछ भी नहीं पड़ता.

अहंकार कुछ है ही नहीं, सिर्फ भाव है. सिर्फ मन में पड़ गयी एक गाँठ है. धागे उलझ गए हैं और गाँठ हो गयी है. धागे सुलझा लो और गाँठ खो जायेगी. ऐसा नहीं है कि धागे सुलझने पर गाँठ भी बचेगी, कि जब धागे सुलझ जायेंगे, तब गाँठ भी हाथ आयेगी. गाँठ कुछ है ही नहीं.

तुम्हारे विचार के धागे ही उलझ गए हैं. जितने ज़्यादा उलझ गए हैं, उतनी बड़ी गाँठ हो गयी है. उलझते ही चले जा रहे हैं, सुलझाव का कोई उपाय नहीं दिखता है. यही गाँठ बाधा है. धागे चित्त के सुलझ जाएँ, परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं था. 

37 टिप्‍पणियां:

  1. अहा , आज पहला कमेन्ट मेरा होगा |
    गुलज़ार की ये नज्म तो पहले भी सुनी थी लेकिन ओशो ने इसका अध्यात्मिक विवेचन किया है , नहीं मालूम था |
    मुझे ओशो की वो कहानी याद है , एक लड़के और मोमबत्ती वाली जिसे आपके ब्लॉग पर ही पढ़ा था , और आज ये दूसरी कहानी |
    बहुत अच्छी तरह से अपनी शिक्षा को मुझ तक पहुंचा पायी है | धन्यवाद , इन कभी न भुलने वाली शिक्षाओं के लिए |

    सादर

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  2. सलिल दादा सुबह सुबह आपकी पोस्ट पढ़ कर लगा आज दिन अच्छा बीतेगा....
    आभारी हूँ!!

    सादर
    अनु

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  3. अहोभाव !

    ओशो के जन्मदिन को मनाने का इससे सुन्दर तरीका नहीं हो सकता !!

    चैतन्य आलोक !

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  4. उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
    मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
    क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
    नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ

    इस अहंकार को संतों ने बहुभांति समझाया, सावधान किया, पढ़ते हैं, जानते हैं कि यह है! लेकिन क्षण बदला कि हम सब भूलकर पुनः अहंकारी हो जाते हैं। अहंकार कभी संतुष्टि नहीं देता लोभ को ही जन्म देता है। महाशंख के चक्कर में अपना शंख भी गंवा देता है। कही सुना था जब तक हम 'आ' नहीं कहते 'राम' नहीं मिलता, जब तक राम 'आ' नहीं कहते 'आराम' नहीं मिलता। पूरी जिंदगी गुल़जार के नज्म की तरह उसी मोड़ पर खड़े-खड़े बीत जाती है। मजा यह कि जि़ंदगी और ठहरने के बीच चहलकदमी भी हमेशा होती रहती है!..

    जब मैं चला
    पश्चिम की ओर
    पूरब ने कहा
    आ मेरी ओर

    जब मैं चला
    पूरब की ओर
    पश्चिम ने कहा
    आ मेरी ओर
    जीवनभर चलता रहा
    कभी इधर
    कभी उधर
    जब चलने की शक्ति न रही
    एक किनारे
    थककर बैठ गया
    मील के पत्थर बताने लगे
    मैं तो अभी वहीँ था
    जहाँ से चलना शुरू किया था!
    .........

    यह मील का पत्थर ही हमारे अंहकार को तोड़ पात है लेकिन हाय! हम उसे जीवन भर नहीं पहचान पाते। यह ठीक वैसे ही है जैसे ओशो जैसी !महान आत्मा हमारे जीवन काल में हमारे आस पास रहकर करीब से गुजर गई और हम अपने अंहकार के वशीभूत होकर उनमें कमियाँ ही ढूँढते रहे।

    इस पोस्ट ने आज का दिन बना दिया..मुझसे जाने क्या-क्या लिखा दिया!

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    1. देवेद्र भाई!
      बिलकुल सही बात कही आपने... जब गौतम, बुद्धत्व को प्राप्त हुए तो लोगों ने उनसे कई बार पूछा कि आपने क्या पाया. और उनका उत्तर था कि जो पाया वो पहले से पाया ही हुआ था. अब आप ही बताइये, सागर में रहने वाली मछली को कोई 'सागर क्या है' इस प्रश्न का उत्तर बता सकता है? अब मछली अगर सागर को ढूँढने निकले तो क्या पायेगी!!
      सार्थक अभिव्यक्ति!

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  5. ईश्वर अहंकार से दूर रखे , किसी का मन ना दुखे ...
    ओशो को नमन !

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  6. सार्थक सीख देती इस सार्थक पोस्ट के लिए आपको ... और ओशो को नमन !

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  7. ओशो को पढना तब सुरु किया था जब सातवीं में था, पता नहीं इस उम्र में ओशो को पढना चाहिए या नहीं.. ये भी नहीं पता उस समय उनको पढने का शौक कैसे लगा.... बस कहीं से एक किताब मिली... पढ़ा तो ऐसा लगा जैसे कोई दिल खोल के अपनी बात कह रहा है.. जहाँ कोई दोहरी विचारधारा नहीं.. सब सत्य है, पूर्ण सत्य...

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  8. सार्थकता लिये बेहद सशक्‍त प्रस्‍तुति ... अच्‍छी लगी आपकी यह पोस्‍ट ...
    सादर

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  9. जो मिला हुआ, आभार धरो,
    जीवन प्रदत्त स्वीकार करो।

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  10. jab me tha tab hari nahi ,ab hari hain me nahi
    prem gali ati sankari ,jame do na samahi .
    osho bhi kabir jaisa hi lekin aur bhi spasht karke kahte hain .unka har vichar-vishleshan aur tark akatya hota hai. padhkar bahut achchha laga .

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  11. उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
    मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
    क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
    नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ

    बस यही अहंकार ही तो सब कुछ खत्म कर देता है .... कहानी के माध्यम से सार्थक सीख देती पृविष्टि ... आभार

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  12. बहुत सुंदर,
    ओशो को पढने पर कई बार लगता है कि आज सच से सामना हो गया, और मैं हार गया।

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  13. सकारात्मक सोच देता ....सार्थक आलेख .....सत्य कहा आपने ...अहंकार से सतत लड़ते रहना पड़ता है ....

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  14. अहंकार ....यदि यह न हो तो ९९ % समस्याएं न हों.
    सार्थक सन्देश देती सार्थक पोस्ट.

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  15. हम सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहते है ,या बने रहना चाहते है ?कितु ऐसी पोस्ट ,ऐसे विचार आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरणा दायक बन जाते है ।
    आभार ।

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  16. अहंकार कुछ है ही नहीं, सिर्फ भाव है. सिर्फ मन में पड़ गयी एक गाँठ है.

    बहुत उम्दा,प्रेरक आत्मचिंतन कराता आलेख ....बधाई सलिल भाई,,,,

    recent post: रूप संवारा नहीं,,,

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  17. ओशो (ज)उत्सव में सम्मिलित करवाने के लिए आभार ...

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  18. कमाल की पोस्ट है।
    ***
    आज के ही दिन मेरे घर में भी एक पुत्र आए थे। संयोग ही है।

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  19. ओशो के कालजयी विचार !
    अहंकार चूर-चूर हो जाए, मिट्टी में मिल जाए किंतु ढीठ अहम् उसे बार-बार समेटता रहता है।
    अहम् नष्ट हो तो अहम्कार भी नष्ट हो।
    प्रेरक प्रस्तुति।

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  20. कहानी बहुत ही प्रेरक है.. सुबह-सुबह पढ़कर शांति सी महसूस हुई।

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  21. ऐसी ही एक कहानी मन में चल रही थी ...देखूं कब तक लिख पाऊं !
    अहंकार सबसे बड़ी दीवार ...आत्मसम्मान / स्वाभिमान और अभिमान में बहुत बारीक सा अंतर होता है , कई बार इसे समझ पाना मुश्किल भी !

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  22. सार्थक पोस्ट पढ़कर मन प्रसन्न हुआ !
    आभार ...

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  23. परमात्मा प्रतीक्षित है
    राहों पर नज़रें टिकी हैं उसकी
    तुम गुजरो तो सही ...

    अहंकार .... बंजर ज़मीन है

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  24. ओशो के जन्मोत्सव (?) पर हमें शामिल करने के लिए आभार भाई जी :)

    अहंकार का क्या है - बढ़ता ही जाता है .... ओशो जैसा गुरु कहाँ सब को मिल पाता है ?

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  25. अहंकार की भली कही अपने, सचमुच ढपोर शंख ही होता है .... आभार!

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  26. अहंकार समझदार को भी नासमझ बाना देता है. आभार सलिल जी हम सब को यह सोचने का विचार रखने के लिये.

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  27. आपके ओर ब्लॉग पे आई टिप्पणियों के माध्यम से ओशो को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा हूं ... जितना गोता लगाता हूं उतना ही ज्यादा मोती मिलते हैं ...

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  28. दिल खुस हो गया आपका ये मोती देखकर ओशो के जन्म-दिन पर समर्पित. ओशो,जब कोई कविता या चुटकिला चुनकर उसमे अर्थ भरते हैं तो दिल तहे दिल से वाह वाह कह उठता है.

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