बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

ये कहानी है पुरानी

एगो राजा था. ऊ जंगल में एक रोज सिकार खेलने गया. साथ में सेनापति, मंत्री अऊर एगो नौकर भी था. जंगल में राजा को एगो हिरन देखाई दिया. पीछा करते-करते राजा अपना सब लोग से अलग हो गया. एही नहीं, सेनापति, मंत्री अऊर नौकर भी रस्ता भुलाकर जंगल में भटक गया सब.
रास्ता खोजते-खोजते नौकर को एगो कुटिया देखाई दिया, जिसके बाहर एगो साधु बाबा भगवान का नाम जप रहे थे. ऊ नौकर उनके पास गया अऊर बोला, ओ अन्धे! अभी तूने इधर से किसी को जाते हुए देखा है?
“मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है!
थोड़ा देर के बाद राजा का सेनापति भी ओही कुटिया के पास आया अऊर साधु से पूछने लगा, ओ साधु! तुमने किसी को इधर से जाते हुए देखा है?
“मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है!
सेनापति चला गया, तब भटकते हुए मंत्री जी भी ओहीं पर पधार गए. ऊ हो साधु से पूछ लिए, हे साधु महाराज! आपने किसी को इधर से जाते हुए देखा है क्या?
“मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है!
आखिर में राजा जी भी रास्ता खोजते-खोजते ओही कुटिया के पास पहुँचे. साधु को ध्यान लगाये देख पूछ बैठे, प्रणाम ऋषिवर! क्या आपने किसी को यहाँ से जाते हुए तो नहीं देखा?
“महाराज की जय हो! मैं तो अन्धा हूँ. मुझे कहाँ कुछ दिखाई देता है! किंतु थोड़ी देर पहले आपका सेवक आपको खोजता हुआ इधर आया था, उसके पश्चात आपके सेनापति और फिर महामंत्री. वे सब लगता है आप ही को ढूँढ रहे थे. अब अंत में आप उन्हें खोजते हुए पधारे हैं!
राजा घोर अचरज में पड़ गया कि ई आदमी अन्धा है त इसको कइसे पता चला कि हमको खोजने वाला हमरा नौकर, सेनापति अऊर मंत्री था. अऊर हम महाराज हैं. ऊ साधु से पूछिए लिया, मुनिवर! आप नेत्रहीन हैं. फिर आपने मुझे ढूँढने वालों को कैसे पहचाना?
ऊ साधु हँसकर बोला, महाराज! बहुत आसान है. आदमी बातचीत से पहचाना जाता है. आपके नौकर ने मुझे ओ अन्धे कहकर पुकारा, आपके सेनापति ने ओ साधु कहकर और आपके मंत्री ने हे साधु महाराज कहा. अंत में जब आप आए तो आपने मुझे प्रणाम ऋषिवर कहकर सम्बोधित किया! यह सम्बोधन ही तो किसी व्यक्ति की पहचान हैं!

सायद छट्ठा सातवाँ किलास में ई कहानी पढे होंगे. बाकी अभी तक दिमाग में ताजा है. एतने नहीं, नौकरी भी अइसा मिला है कि जगह-जगह घूमकर समाज के हर तबका के अदमी के साथ दिन-रात उठना बइठना हो गया है. अब त बातचीत से पता चल जाता है कि कऊन जगह का अदमी का, का बिसेसता है अऊर बात करने वाला कम्पनी में कोन ओहदा पर काम कर रहा है. राजा वाला खिस्सा के जइसा बड़ा कम्पनी का डायरेक्टर जेतना सालीनता से बतियाता है, ओतने अकड़कर कम्पनी का चपरासी बात करता है. मगर अपबाद भी बहुत देखने को मिला है. अब का करें, हमलोग त सेवा छेत्र में हैं, इसलिए अपना आपा घरे रखकर आते हैं. न रहेगा मैं न होगा झंझट-तकलीफ.

अभी कुछ टाइम पहिले, बड़े भाई सतीस सक्सेना जी हमरे एगो कमेण्ट के जवाब में बोले -

शुक्रिया सलिल भाई,
बिना पढे टिप्पणी देने वाले ब्लॉगरों में सलिल जैसे (एहाँ पर जो सब्द लिखा था ऊ लिखना हम जरूरी नहीं समझते हैं) भी मुझे पढते हैं मेरे लिए यह कम गौरवशाली नहीं. आपके शब्द मुझे याद हैं और वे यकीनन प्रेरणादायक हैं.
आभार भाई!!
ई बात सतीस जी केतना बार कहे हैं अलग-अलग जगह पर. अऊर बात सच भी है. ऊ कहानी के हिसाब से आपके पोस्ट पर जेतना कमेण्ट आता है ना, ऊ कमेण्टवा सबको ध्यान से पढ़िये. आपको अपने बुझा जाएगा कि कऊन अदमी आपका पोस्ट पढने के बाद कमेण्ट किया है अऊर कऊन बिना पढे; किसको आपका कबिता समझ में आया है, किसको नहीं; कऊन आपका असली परसंसक है, कऊन नहीं.

बहुत सा लोग का कमेण्ट का लम्बाइये से आपको बुझा जाता है कि पूरा पढने के बाद आपका कहा हुआ हर बात के साथ सहमत चाहे असहमत होते हुए अपना बात लिख रहे हैं. अऊर का मजाल है कि उनका कहा हुआ कोनो बात का बुरा लग जाए. अइसा लोग का कमेण्ट अच्छा लिखने का प्रेरना के साथ-साथ, खुद का आकलन करने का मौका भी देता है. एही नहीं ब्लॉग जगत का एगो मोहावरा “आत्ममुग्ध होना” भी लिखने वाला के साथ नहीं चिपकता है.

ई त सोचने वाल बात है कि हर अदमी का लिखा हुआ सब पोस्ट आपको पसन्द आए, उसमें कहा हुआ हर बात से आप सहमत हों अऊर कोनो पोस्ट में कोई कमी नहीं देखाई दे. अइसा हालत में अच्छा लिखा है त खुलकर तारीफ कीजिए, बाकी कहीं कमी नजर आए त ऊ भी बताइये जरूर. बिगाड़ के डर से ईमान का बात न कहने से बहुत नोकसान हुआ है समाज में.

अंत में एगो अऊर छोटा सा कहानी ऊ लड़िका का, जो हर आने-जाने वाला राहगीर को पत्थर मारकर लुका जाता था. एक रोज एगो अदमी उधर से गुजरा त उसको भी ढेला मारा ऊ लड़िका. ऊ अदमी गुसियाया नहीं, बल्कि उसको बोलाकर चार आना का सिक्का धरा दिया. एतना सानदार ईनाम पाकर अगिला अदमी को बड़का पत्थर फेंककर मारा. ई अदमी उसको पकड़कर पीट दिया. इसलिये आप अपना कमेण्ट का चवन्नी देकर कहीं ऊ बच्चा का नोकसान त नहीं न कर रहे हैं. ज़रा सोचिये. जो अच्छा नहीं लगा उसको खुलकर बताइये. गदहा को गदहा कहिए, वैशाखनन्दन कहकर काहे हमारा इज्जत बढाते हैं. अपने मुनव्वर राना साहब भी कहते हैं कि

इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए!

47 टिप्‍पणियां:

  1. "डायरेक्टर जेतना सालीनता से बतियाता है, ओतने अकड़कर कम्पनी का चपरासी बात करता है."
    माफ़ी चाहता हूँ सलिल जी पर आपकी इस बात से सहमत नहीं हूँ. मेरी उम्र आपसे कम है पर अब तक का मेरा अनुभव इसके लगभग उलट है. मेरे लिए अपवाद इस पक्ष में है.
    बाकी आपकी टिप्पणियों का तो मैं भी प्रसंशक हूँ. "सुन्दर प्रस्तुति" जैसे टिप्पणियों के बीच आपकी टिप्पणी सुकून देती है.

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    1. " बड़ा कम्पनी का डायरेक्टर जेतना सालीनता से बतियाता है, ओतने अकड़कर कम्पनी का चपरासी बात करता है. मगर अपबाद भी बहुत देखने को मिला है."

      आपने पूरा वक्तव्य कोट नहीं किया है... मैंने स्पष्ट लिखा है कि इसका अपवाद भी "बहुत" देखने को मिला है!! दोनों तरफ.
      मैं आजतक (जहाँ तक याद आता है) कभी जजमेण्टल नहीं हुआ किसी भी पोस्ट पर!! इसलिए यह भी वक्तव्य अनुभव पर आधारित है (उम्र भी अनुभव भी) मेरा निर्णय या फ़ैसला कतई नहीं!

      चलिए अच्छा लगा कि मेरी इस पोस्ट का तात्कालिक असर देखने को मिला.

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    2. पूरा वक्तव्य कोट भले नहीं किया पर पढ़ा तो जरुर है इसलिए मैंने भी लिखा है -"मेरे लिए अपवाद इस पक्ष में है"
      अपवाद का मतलब यही है न सर कि मूल नियम की तुलना में इसकी सम्भावना बहुत कम होती है? इसलिए "बहुत" अपवाद होने पर भी ऐसे लोग अल्पसंख्यक ही रहेंगे.

      बस यही मैं अर्ज करना चाहता हूँ कि उम्र और अनुभव में आपसे कम होने के बावजूद मैंने उन लोगों को ज्यादा देखा है जिन्हें आप अपवाद समझते हैं.

      और निर्णय या फ़ैसला तो मैं भी नहीं साबित कर रहा था. मैं तो बस अपनी असहमति दर्शा रहा था. उम्मीद है आप इस असहमति को अन्यथा नहीं लेंगे :)

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  2. कहानी के माध्यम से जो कहना चाहते हैं आप उसमें सफल हैं आप ... जो अच्छा है उसको खुल के अच्छा कहना ही चाहिए ... पर मुझे लगता है कुछ नवोदय ब्लोगेर्स को प्रोत्साहित जरूर करना चाहिए चाहे कुछ गलत भी हो ... जहाँ तक आपकी टिप्पणियों की बात है ... उसकी तो हर किसी को प्रतीक्षा रहती है ... विस्तृत अवलोकन के बाद ही ... पूरे मंथन के बाद ही अमृत की बूँदें जो निकलती हैं ...

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  3. सलिल जी यह सच है बहुत से लोग बिना पढ़े टिप्प्णी करते हैं। दरअसल उनका सोचना होता है कि ऐसा करने से उनके ब्लॉग पोस्ट पर भी बहुत सारी टिप्प्णियां मिलेंगी। लोभ और लालच आदमी को अँधा कर देता है। बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहकर सच में समाज का बहुत नुक्सान हो चूका है। अब ये नुक्सान और नहीं बढ़ाना चाहिए।

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  4. पहले तो हम भी सभी को पूरा पढ़ कर ही अपना कमेन्ट दिया करते थे ... पर आजकल जैसे को तैसा वाले उसूल पर है ... और कहीं कहीं तो हम भी भेड़चाल मे शामिल रहते है ... पर हाँ कुछ लोग ऐसे है जिन को पढ़ना हर बार अच्छा लगता है और पूरा पढे बिना वहाँ कभी कमेन्ट नहीं करता |

    राजा वाली कहानी मैंने भी शायद स्कूल मे या किसी कमिक्स मे पढ़ी थी |

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  5. आपका लिखा बिना पूरा पढे कोई रह ही नहीं सकता है ..... रोचक के साथ बहुत गहरी बात भी समाये रहता है .....
    राजा की कहानी से लेकर कमेन्ट तक की बात से पूरी तरह सहमत हूँ ......
    बहुत लोग कमेंट मेन एक शब्द @सुंदर लिख कर अपने कार्य पूरा कर लेते हैं ..... पोस्ट दुखद हो तो सिर पीट लेने का मन करता है .....
    हार्दिक शुभ कामनाएँ

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  6. सलिल जी, कहानी के जरिये बहुत महत्वपूर्ण बातों की ओर संकेत किया है आपका यह प्रयास प्रशंसनीय है !
    कई बार पोस्ट पर सार्थक टिप्पणी उस पोस्ट को और भी महत्वपूर्ण बना देती है, इसलिए पोस्ट को ध्यान से पढ़कर ही प्रतिक्रिया करनी चाहिए ! टिप्पणियां टिप्पणीकार के व्यक्तित्व को दर्शाते है और दी हुयी टिप्पणी उस पोस्ट का सारांश होती है ! लेकिन सभी लिखने वाले हो तो प्यार से पढने वाले पाठक बहुत कम मिल जाते है इसीलिए मै बहुत कम ब्लॉगों अनुसरण करती हूँ ताकि, आराम से बहुत सारे लेखकों को पढ़ सकूँ, महत्वपूर्ण पहलुओं पर कोई लेखक लिख रहा है तो उस पोस्ट पर सार्थक टिप्पणियों का विमर्श जरुरी होता है लेकिन हम वहाँ भी बहुत सुन्दर बहुत बढ़िया जैसी टिप्पणी दे आते है जो कि टिप्पणी कम प्रशंसा अधिक लगती है और एक मत्वपूर्ण पोस्ट सार्थक प्रतिक्रिया के अभाव में वंचित रह जाती है !

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  7. गदहा को पढ़ते ही नहीं, अइसे भी अब कम ही पढ़ पाते हैं … चवन्नी का खेल आखिर कब तक, अगले कदम पर ही सर फूट गया . आदमी की पहचान आदमी को ही होती है, वर्ना चवन्नी पाकर बड़ा पत्थर मारनेवाले न खुद को जानते हैं, न सामनेवाले को .
    पंचतंत्र,हितोपदेश जैसी बाल्यकाल की कहानियाँ भी उन्हें ही याद होती हैं, जो हैं और जीवन की आपाधापी में उसका इस्तेमाल करते हैं

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  8. आपकी नसीहत तो सचमुच विचारणीय है.लेकिन अच्छे पोस्ट तो जरूर पढ़े जाते हैं.

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  9. सम्बोधन ही व्यक्तित्व की दशा बता देता है।

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  10. फलो से लदा हुआ वृक्ष हमेशा झुका हुआ रहता है विनम्र रहता है उसे अपनी विशेषताएं और सम्पन्नता दिखाने कि जरुरत नहीं पड़ती ..

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  11. कमेंट्स पढ़कर ही सब समझ में आ जाता है ! लेकिन क्या करें ..

    RECENT POST - आँसुओं की कीमत.

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  12. प्रोत्साहन की आवश्यकता सबको रहती है , रचना के बारे में ईमानदारी से कहे शब्द अपना विश्वास छोड़ने में समर्थ होते हैं ! विनम्रता तो दिल जीतने में समर्थ है ही !
    शुभकामनायें आपको !!

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  13. बहुत अच्छी प्रस्तुति...... !! मेन बात जो कमेंट्स के बारे में.... कमेंट्स पढ़ के ही देना चाहिए... उससे सही कमेंट्स उभर के आते हैं और पोस्ट कर्ता को अच्छा भी लगता है ....

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  14. चवन्नी बाला खिस्सा पर --
    माया -मोह बुढ़ापे में बढ़ जाता है
    बचपन में बस एक रुपैया अच्छा लगता है
    और पूरा पढ़ने के बाद ई चवन्नी बाला टिप्पणी
    बहुत अच्छी प्रस्तुति!

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  15. आपकी बात बिल्कुल सही है । झूठी प्रशंसा से सच्ची आलोचना ज्यादा हितकर होती है । हाँ रचना को ठीक से पढकर दी गई टिप्पणी रचनाकार का मनोबल ही नही बढाती , प्रेरणा व परिष्कार का कार्य भी करती है ।

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  16. आपकी इस प्रस्तुति को आज की छत्रपति शिवाजी महाराज की ३८४ वीं जयंती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  17. मैंने आपकी पोस्ट पूरी पढ़ी है पर टिप्पणियाँ नहीं :)
    और आपसे छोटी हूँ पर अनुभव मेरा भी आप जैसा ही कुछ है.
    पद नहीं तो कम से कम शिक्षा कितनी है यह तो समझ में आ ही जाता हैं किसी इंसान के व्यवहार से.

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  18. कहीं पढ़ा था कि यदि यह जानना हो कि फलाँ आदमी कैसा है? तो यह मत देखो कि वह आपके साथ कैसा व्यवहार करता है बल्कि यह देखो कि वह अपने से निम्न स्तर के व्यक्ति से कैसा व्यवहार करता है।

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  19. बोल-चाल और व्यवहार से किसी के व्यक्तित्व का अनुमान किया जा सकता है .

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  20. नेत्रहीन साधु वाली कहानी कई दिन से दिमाग में कुलबुला रही थी, अच्छा हुआ कि आपने लिख दी(क्रेडिट खुद को दिये देता हूँ - इसे आत्ममुग्धता भी माना जा सकता है:) ) ऐसी ही एक कहानी हमारे बाबा सुनाते थे एक मनिहारे की, जो अपनी गदही के अड़ जाने पर उसे ’चल मेरी माँ’ ’चल मेरी बहन’ कहकर बुलाता था। किसी ने इस बात पर उसका मज़ाक उड़ाया तो उसका तर्क ये था कि चूडि़याँ बेचने का काम होने के कारण वास्ता औरतों से पड़ता है और अपनी ज़बान ठीक रखने के लिये वो अपनी गदही को भी आदरसूचक शब्दों से पुकारता है। एक दूसरी कहानी रंगे सियार की है, जो साथियों की ’हुंआ हुंआ’ सुनकर खुद को कंट्रोल में नहीं रख पाया और पोल खुल गई।
    रही बात टिप्पणियों की, हमारे साथ तो कई बार ऐसा होता है कि बहुत अच्छा लगने पर यह नहीं सूझता कि क्या कमेंट किया जाये। जहाँ आवश्यक हो और उचित लगे और अवसर हो तो वहाँ असहमति जरूर जता देते हैं। आम धारणा के विपरीत ये भी पाया है कि अपेक्षाकृत युवा साथियों में सहनशीलता ज्यादा है बनिस्बत स्थापित ब्लॉगर्स के, वरना एकाध बिग-गन को किसी के द्वारा कुछ सलाह दिये जाने पर ये भी प्रत्युत्तर देते देखा है कि ’अब आप मुझे बतायेंगे कि कैसे लिखना है?’ शायद इसीलिये लोग पंगा लेना अवायड कर जाते हों। वाह-वाहात्मक टाईप के कमेंट ऐसे ब्लॉगर्स को ही ज्यादा मिलते हैं। जिनके लिये टिप्पणियों की संख्या मायने रखती हैं, वो लिखते कैसा भी हों लेकिन टिप्पणियाँ जरूर मीठी मीठी करते हैं।
    आज तो मैं भी पता नहीं किस वजह से बहुत ज्यादा लिख गया :)

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    1. 1. आप अनुज हैं मेरे, इसलिए जो कुछ है सबका क्रेडिट आपको है... आप जैसे लोग आस-पास न होते तो यह सब लिखा भी नहीं जाता! अलबत्ता पूज्य बाबा की कहानी कभी ज़रूर इस्तेमाल करूँगा, बाकायदा उनको क्रेडिट देते हुए!
      2. सही कहा कि युवा साथियों में सहनशीलता अधिक है. आप को तो यही कहा कि "अब आप मुझे बतायेंगे कि कैसे लिखना है" मुझे तो यह तक सुनने को मिला कि अब बिहारी हमें बतायेंगे कि कैसे लिखना है."
      3. बहुत ज़्यादा लिखने में स्वप्न मंजूषा जी और अंशुमाला जी का जवाब नहीं. एक एक बात पोट से भटकती नहीं और अपना पक्ष बिना लाग-लपेट के कह जाती हैं! बुरा लगे तो सिंगट्टे से! ऐसे में कौन बुरा मानेगा!
      हाँ आप वाक़ई ज़्यादा लिख गये! दिन का सारा कोटा यहीं ख़तम!! :)

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    2. ये तो समझता हूँ कि मुझ जैसे न होते तो यह सब आप शायद न ही लिखते। रही बात क्रेडिट की तो ’गोली किसकी और गहने किसके’ बड़ों का कहा और दिया सब सिर माथे पर।
      "अब आप मुझे बतायेंगे कि कैसे लिखना है" किसी और ने किसी और को कहा था। काश मुझे कहा होता :) मेरा दोनों पक्षों से शुरू से ही कोई वास्ता नहीं रहा था इसलिये स्तर महसूस कर लिया, इतना ही बहुत है।
      कुछ ऐसे ब्लॉगर हैं जिनसे किसी मुद्दे पर मतभेद होने पर भी इतना विश्वास रहता है कि वो हमें और हम उन्हें समझते हैं, कोरी वाहवाही वाली लाईन तो अपनी भी नहीं है। कई जगह तो हम खुद छोटी सी बात ऐसी कह आते हैं कि सामने वाले को बुरा लग सकता है लेकिन हर जगह ऐसा नहीं हो सकता।
      कोटा है राजस्थान वालों का, हमारा तो जलालाबाद है लेकिन वो कहानी फ़िर सही। आज अवकाश ले रखा था तो दोबारा पढ़ने आ गया वरना वाकई कई दिन का कोटा अपना चुक जाता:)

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    3. जब दो ब्लॉगर बात कर रहे हों तो एक पूर्व ब्लॉगर की बात क्या करना। (बैंकर लिखने वाला था, ब्लोगरी की आदत ने ब्लॉगर लिखा दिया). पोस्ट की भावना से सहमत हूँ। विमर्श ने (गैर बैंकरों का भी) कुछ अवलोकनों/पूर्वाग्रहों को पुष्ट ही क्या है (या शायद अपना नंबर फिर चैक कराने का वक़्त आया है). शायर कि बात सही है कि सच्चाई छिप नहीं सकती बनावट के उसूलों से लेकिन गुमनाम शायर की बात भी पूरी गलत तो नहीं -
      तत्व एक कोयले हीरे में, रख कोयला हीरा खोते न
      फल ज़हरीले दिख पाते तो, बीज कनक के यूँ बोते न
      मुझे तो यही लगता है कि दुनिया का कारोबार अपने-अपने धर्म-क्षमता-समझ के अनुसार होता है, और जो जैसा करता है उसकी सीमाओं में शायद वही मुमकिन होता है। द्रोणाचार्य भी याद आए लेकिन "वो कहानी फिर सही"

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    4. आपके कहे के बाद गुंजाइश कहाम बचती है कुछ कहने की... पोस्ट की थीम से सहमत होना इसकी सफलता है.. बाकी तो विद्वानों का विवेचन है!!
      आपके आगमन पर सुस्वागतम!!

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  21. ये लो 25 हो गई टिप्पणी । अब कैसे बोलोगे छोटा ब्लागर ? और टिप्पणी का क्या है यहाँ @ सुंदर और बहुत सुंदर ही चला करता है । पढ़ना और फिर लिखना होता रहता है । पहले टिप्पणी कर दी जाये । फिर पढ़ भी लिया जायेगा किसी दिन आके । बहुत मौज करलिये । कुछ दिन रुकिये सरकार ब्लागर कार्ड बनवा के देने वाली है । वहीं से पता चलेगा । किसमें कितना टिप्पणी करना है किसमें नहीं करना है कौन मंत्री ब्लागर है और कौन प्रधानमंत्री ब्लागर । बाकी आज के अंधे साधू बाबा की जय जय कार होवे :)

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  22. यूँ तो इज्जत देने , करने में रुतबा , नाम से ज्यादा प्रत्येक व्यक्ति के स्वयं के स्वभाव पर निर्भर करता है। फिर भी यह मानने में गुरेज नहीं है कि संघर्ष कर निम्न वर्ग से आगे बढ़ते व्यक्तियों के स्वभाव में एक भिन्न प्रकार की रुक्षता आ जाती है , जो गाहे बगाहे अपना असर दिखाती है।
    पढ़ने के इच्छा रखने वाले टिप्पणी पढ़ कर ही करते है , मगर जो लोग सिर्फ मौज लेने के यहाँ है , या फिर अपने उच्च साहित्यकार होने के गुमान में हैं , टिप्पणी की रस्म निभाते हैं। अपवाद यह भी है कि कुछ लोग इतना अच्छा लिखते हैं कि सामान्य पाठक के लिए टिप्पणी लिखना मुश्किल होता है या फिर कभी पोस्ट पर टिप्पणी करने लायक कुछ होता ही नहीं !

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  23. कल रात बहुत थका था। आपकी पोस्ट पढ़ी और नींद में ही कुछ लिख दिया। सुबह पढ़ने आया था कि रात में मैने क्या लिखा पोस्ट की किसी पंक्ति को पढ़कर यह खयाल आया होगा..ठीक ही है कुछ गड़बड़ नहीं है।

    पहले मैं धड़ाधड़ आलोचना करना था। जो कमी मिलती वही लिखता अच्छी की तारीफ़ नहीं करता। बाद में जब अपनी पोस्ट पर कमेंट पढ़ने लगा तो जाना कि यह अच्छा-अच्छा कहने वालों का ही प्लेटफार्म है। अब कमियों को अनदेखा करता हूँ और अच्छे की तारीफ करता हूँ।

    इससे एक बड़ा लाभ भी महसूस किया है। नज़रिया सकारात्मक होने से सोच भी सकारात्मक हुई है..! ऐसा लगता है। कुछ ब्लॉग पर खुलकर लिखता हूँ जहाँ लगता है कि कुछ उल्टा-पुल्टा भी लिखा गया तो वे अन्यथा नहीं लेंगे।
    संजय जी की तरह मैने भी लम्बा लिख दिया। उन्होने तो मजेदार लिखा मैं उलझकर रह गया। अक्सर थके-मांदे या जल्दबाजी में कमेंट करना पड़ता है। :(

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    1. आप कहीं न उलझे हैं महाराज, मजे लेने के तरीके हैं आपके भी। हमारा एक मित्र है महीने दो महीने में शाम को पीकर अपने मन के सब अरमान निकाल लेता था और सुबह एक्सक्यूज़ दे देता था, "कल खा-पी रखा था, पता नहीं क्या-क्या कह गया होऊंगा :)

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  24. प्रणाम दादा
    आपकी पोस्ट कोई कविता या कहानी तो है नहीं कि तारीफ़ करूँ.....मगर आपकी भाषा शैली निःसंदेह बहुत प्रभावित करती है | ज़्यादातर आपकी पोस्ट ज़ोर से पढ़ती हूँ...उसी लहजे के साथ जिसमें लिखी गयी है :-)
    दोनों कहानियाँ सीधी बात कहती हैं.....दूसरी वाली ज्यादा अच्छी थी क्युकि कभी कभी किसी और की बेहद बुरी कविता/ग़ज़ल पर कोई जानदार टिप्पणी दिखती है तो अपनी कविताओं के स्तर पर खुद को ही शक होने लगता है....
    मगर फिर भी नकारात्मक टिप्पणी करना आसां नहीं है दादा....हमें जब किसी का लिखा भाता नहीं या समझ नहीं आता,तो हम बिना कुछ लिखे खसक जाते हैं बस !!
    :-)

    सादर
    अनु

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  25. भई पढ़ कर मजा आया। बाकि ज्यादा दिमाग-उमाग हम में नाहि।

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  26. बड़के भैया !! आपके लिए तो चवन्नी काहे, सिक्का का बोरा न्योछावर :)
    एतना शानदार आर कौन लिख सकता है :)

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  27. शुरू से अंत तक रोचकता से अपनी बात कहने में पूरी तरह सफल रहा आपका आलेख, उत्‍कृष्‍ट लेखनशैली के लिये एक बार पुन: बधाई
    सादर

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  28. जहाँ तक हमको समझ में आया है, आपकी प्रस्तुति में दो लघुकथाएँ,
    दो सन्देश दे रहीं हैं :

    पहला सन्देश विनम्रता का है । विनम्रता का अभ्यास इस प्रकार करना चाहिए कि किसी का भी अपमान नहीं हो । मुझे लगता है, विनम्रता एक भाव तो है ही लेकिन एक क्रिया भी है, जिसे लिख कर, बोल कर, अपने हाव-भाव से, महसूस कराया जाता है, जिससे पढ़नेवाला व्यक्ति, सुनने वाला व्यक्ति, सामने वाला व्यक्ति, गरिमायुक्त महसूस कर सके । हालाँकि विनम्रता का लक्ष्य एक-दूसरे को सहज बनाना होता है, लेकिन हम ये भी जानते हैं कि 'कोस-कोस पर पानी बदले, पाँच कोस पर बानी', इसलिए संस्कृति, प्रदेश, परिवेश, भाषा, दशा-दिशा, के साथ 'विनम्रता' भी अपने रूप बदल देती है :)
    बुझा रहा है एन्थ्रोपोलोगी भी अब पढ़ना पड़ेगा :):)

    दूसरा सन्देश :
    प्रशंसा सबको अच्छी लगती है, लेकिन अधिक प्रशंसा विष का काम करती है, मनुष्य अहंकारी हो जाता है । हाँ ज़रुरत भर प्रशंसा अमृत का काम करती है । टिप्पणियों में, असहमतियों, आलोचनाओं का स्वागत होना चाहिए, इनको चुनौती के रूप में स्वीकारना चाहिए। ये आलोचनाएँ पत्थर पर छेनी का काम करतीं हैं, जिससे आपका व्यक्तित्व निखरता है, आपको नया या थोड़ा बदला हुआ दृष्टिकोण मिलता है ।

    कबीर ने तभी तो कहा है : निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय, बिनु साबुन पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।

    अब हम ज्यास्ती बोल दिए हों, तो माफ़ी-साफी दे दीजियेगा, काहे से कि देख रहे हैं, ईहाँ कोटा पर भी कोटा है :)

    ये भी एक प्रशंसनीय प्रस्तुति रही आपकी !

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  29. जेब्बात! आखरी लइनवा को छोड़कर बाकी जेतना बात आप लिख गई हैं ना, उहे हमरे ई पोस्ट का असली इनाम है.. रहा ऐंथ्रोपोलॉजी पढने का बात, त पढिए लीजिए. पढाई का कोनो उमर नहीं होता है!! :)
    बिसय बहुत बढिया है, मगर किताब बहुत कम उपलब्ध है (ई ऊ जमाना का बात है जब इस्टुडेण्ट होते थे)!!
    ई बात त सहिये है कि आलोचना हमेसा चेक ऐण्ड बैलेंस का काम करता है जबकि तारीफ एक्केबार अहंकार पैदा कर देता है. वइसे एगो बात है जो अदमी डिजर्भ नहीं करता है ऊ समझ जाता है लोग तारीफ करके उसको बुड़बक बना रहा है! :)
    जास्ती बोलने पर आपको छमा माँगने का कोनो जरूरत नहीं है.. काहे से कि आपको तो इसका खुल्ला छूट है.. और कोनो कोटाबन्दी नहीं है... इसलिए बेधड़क होके लिखते रहिये... छमा-उमा त हमरा डिक्सनरी में हइये नहीं है!! (अब ई मत बोलिएगा - कहाँ से खरीदी ऐसी बकवास डिक्शनरी)!! हा हा हा!!

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  30. नैतिक रूप से त सलिल भाई हम बत्तीस आना आपकी बात से एका रखते हैं सलिल भाई कि जब दोस्ती का ढिढोरा पीट के फेसबुकिया समाज में दखलंदाजी हुआ है त दोस्ती क फरजियो ईमानदारी से निभा दिया जाय बाकि का कहे - निहुरा को निहुरा कहना सोहाता नहीं है .... वोटर लिस्ट लेखा 'नाम' ख़ारिज नहीं किये हैं लोग पर इहौ साचिए बूझिये कि ८० परसेंट 'फिरेंड' का आवाजाही रास्ता बदल के हो रहा है। ....
    अब त हमहूँ चाहते हैं कि आपहीन लेखा कहीं ओलियाय के परलोक सुधारा जाय, इहवां पौने दुइये मिसरा पर 'लाइक' अउरी 'सुभानल्लाह' चाहै अउर लुटावे वालन से मूडी फुटौवल क का ज़रूरते का है ……
    आपका ब्लॉग पढने के बाद कलेजा ओइसहीं जुड़ा जाता है जैसे
    समाज में दस गिरहकटुआन के बीच कौनो भल मनई भेटा जाय।
    सारदा माई अइसहीं आपके असीसें

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  31. भैया , दोनो कहानियाँ बहुत कुछ याद दिला गयीं ....
    जहाँ तक टिप्पणियों की बात है तो मैं पढ़ती तो बहुत हूँ पर " कट - कॉपी - पेस्ट " वाली टिप्पणी करती नहीं हूँ और अक्सर बड़ी प्रतिक्रिया भी नहीं दे पाती इसके कारण कई हैं ,वो फिर कभी , ......
    तारीफ़ न समझिये ,पर सच यही है कि आपकी प्रतिक्रिया सबसे अलग और स्पष्ट होने का एहसास कराती है .... लगता है कि जो पोस्ट में नहीं लिख पाये और कहीं मन के किसी कोने में रह गया हो वो भी आपने बांच लिया ....
    आज तो बात एकदम से अंतस में जम गयी वो आपके ही शब्दोंमें दुहरा दूँ " न रहेगा “मैं” न होगा झंझट-तकलीफ " .....सादर !

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  32. हम पूरा पढे हैं लेकिन बस एक स्माईली देकर जा रहे हैं... :-)

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  33. दोनों कहानियों का सार मुझे यही समझ आया कि शब्दों में बहुत सामर्थ्य होती है .... चाहे आपस की बात चीत हो या पोस्ट पर दी गयी टिप्पणियाँ . टिप्पणियाँ करने वालों को सार्थक सलाह देती बढ़िया पोस्ट .

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  34. सलिल जी !!! सादर प्रणाम ..
    दो-दो कहानियों से व्यवहार,आचार,भाषा और बोली-वाणी के मद्देनजर टिप्पणी-शास्त्र का जो विवेचन किया है,वह बेजोड़ है...इसमें पाठकों ने जो तत्व खोज निकाले हैं,उनसे इसकी उपयोगिता स्वत:-स्प्ष्ट है।

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  35. @न रहेगा “मैं” न होगा झंझट-तकलीफ.

    बहुत कम लोग ‘मैं-गिरी‘ से दूर रह पाते हैं।

    इस प्रस्तुति के दोनों भाग बहुत कुछ सिखा रहे हैं ।

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  36. पोस्ट और टिप्पणियाँ ..दोनों ही बहुत रोचक हैं...देर से आना कभी कभी फायदेमंद होता है .

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  37. आह, तीन साल बाद वापस आयी हूँ लॉगिन करने के बाद सोचा पहले किसका लिखू पढू तो पहला नाम आप ही का आया क्यूंकि आपका लिखा पढ़ने से हर बार सिखने को मिलता है, और आज इसे पढ़ कर आनंद आ गया वेसे ये कहानी मैंने पहले कभी पढ़ी भी नहीं थी और अगर पढ़ी हो तो याद नहीं रही हाँ लेकिन वो लड़के वाली ज़रूर पढ़ी थी ! ख़ैर कहानी दोनों ही बहुत अच्छी थी और साथ में ज्ञानवर्धक भी ! पढ़ कर अच्छा लगा ! चलिए अब चलती हूँ "संवेदना के स्वर" पर, चैतन्य भाई से भी तो मिलना है ! पता नहीं उन्हें मैं याद भी हूँ या नहीं ! दरअसल आजकल वो मोदी जी के ध्यान में ही रहते है ना इसलिए ! श्श्श्श्श उन्हें बोलना नहीं कि मैंने ऐसे बोला OK

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