उसको अगर नबजुबती नहीं, त जुबती तो कहिए
सकते हैं. नाम था सकीला. बातचीत करने का लहजा हैदराबादी था. अपना आदत है कि सामने
वाला इंसान जऊन जुबान में बात कर रहा हो, कोसिस करते हैं कि उसके जुबान में बतिया
लें उससे. अपने धन्धे में सम्बन्ध बहुत माने रखता है. बातचीत से सम्बन्ध बनता है
अऊर सम्बन्ध से भरोसा. भरोसा हर धन्धे का बुनियाद है, हमरे धन्धे का उसूल.
सकीला बाजी के साथ बात करते हुए कब उनको
बुझाने लगा कि हम बिस्वास करने जोग आदमी हैं, हमको नहीं पता चला. देखते-देखते हम
भी भाई जान हो गये. हर महीने नियम से सकीला बाजी हमरे ऑफिस में आतीं अऊर हमसे
हिसाब-किताब करवातीं – “अम्मी को पाँच हज़ार, नसरीन को तीन हज़ार... नहीं नहीं भाई
जान नसरीन को आठ कर दो, बुआ को पाँच देना है.. पिछले महीने नसरीन उनो से लेकर
अम्मा को दी... ज़ाफर को दो हज़ार. और मेरे अकाउण्ट में पन्दरह हज़ार! कित्ते हो गये
भाई जान!”
“तैंतीस हज़ार!”
”ठीक है भाई जान! मेरे पन्दरह सिकोटी बैंक
में जमा कर दो अऊर बाक़ी के नसरीन के खाते में तारा बैंक में.”
हमको मालूम था कि तारा बैंक का मतलब बैंक
ऑफ इण्डिया (उसका लोगो एक बड़ा सा तारा है) अऊर सिकोटी बैंक था सिण्डिकेट बैंक
जिसका तलफ्फुज़ सकीला बाजी का ओही था. दू चार महीना के बाद हम भी तारा बैंक अऊर
सिकोटी बैंक बोलने लगे थे.
सकीला बाजी का काम एहीं खतम नहीं होता था.
ऊ हमेसा बहुत फुर्सत में आती थीं. पइसा भेजने का काम हो जाने के बाद खत लिखकर
बताना होता था कि नसरीन के खाता में जो पैसा जमा हुआ है उसमें से अम्मी, ज़ाफर अऊर
बुआ को केतना देना है. उसके अलावा खत में खैरियत, नसरीन के बच्चे को पढने का
नसीहत, ज़ाफर को मन लगाकर काम करने का सीख अऊर हर दो लाइन के बाद बहुत खुश है यहाँ
सारजाह में. लगभग हर महीने खत में एही सब लिखा जाता था. हमको ई सब इसलिये मालूम है
कि ऊ खत लिखने का काम हमारा था.
सकीला बाजी लगभग अनपढ थी. हमपर भरोसा था इसलिये
घर का बहुत सा बात ऊ हमसे लिखवाती थी. असल में सुरू सुरू में ऊ हमको मुसलमान समझती थी.
इसलिये जब हम पहिला बार खत लिखने से मना कर दिए काहे कि हमको उर्दू लिखना नहीं आता
था, त ऊ बोली हिन्दी में लिख दो भाई जान. मजा तब आया जब हम ऊ खत पढकर सुनाए त उनका
रिऐक्सन था – “कैसी बाताँ करते भाई जान. पूरा ख़त उर्दू में लिखा है, लेकिन आपकी
उर्दू (देवनागरी) देखने में उर्दू जैसी नहीं लगती.”
एक रोज कहीं कोई गलती हो जाने के कारन
सकीला बाजी को बोलाने का जरूरत पड़ा. काहे कि ऊ महीना में बस एक बार आती थीं,
इसलिये दोबारा उनका आने का इंतजार में महीना भर निकल जाता. हमको जब हमारा स्टाफ
बताया त हम फॉर्म पर दिया हुआ मोबाइल नम्बर पर फोन लगाए. उधर से ठेठ अरबी में कोई
मर्द का आवाज सुनाई दिया. हम सकीला भर बोल पाए. उधरवाले को का बुझाया मालूम नहीं,
फोन कट गया.
दोसरा दिन सकीला बाजी घबराई हुई आईं.
“क्या मसला हो गया भाई जान!”
हम बताए, कागज पर दस्तखत लिये अऊर काम खतम
हो गया. जाते हुए ऊ बोली – “भाई जान! आइन्दा फोन मत किया कीजिये मोबाइल पर!”
हमको समझ में आ गया बन्द परदा के पीछे का
हक़ीक़त. हम सिर हिलाकर बोले कि नहीं बाजी, ऐसा आइन्दा नहीं होगा!
सब कुछ पहिले जैसा चलने लगा. एक रोज सकीला
बाजी एक बुज़ुर्गवार के साथ हमरे ऑफिस में आईं. ऊ बुजुर्ग सोफा पर बैठ गए अऊर हम
सकीला बाजी के काम में लग गए. किसको केतना पैसा भेजना है अऊर उसके साथ खत में पैसा
के बँटवारे का तफसील.
ई सब हो जाने के बाद हम धीरे से बोले – “मुलुक
से अब्बू तशरीफ लाए हैं, बाजी?”
हमारा इसारा ऊ बुजुर्ग के तरफ था जो अरबी
लिबास (दिशदशा) पहने सोफ़ा पर बइठे हुए थे.
“नहीं भाई जान! मुलुक से तो बस ख़त आते! ये
तो हमारे मियाँ हैं!”
(कल बॉबी जासूस फ़िल्म में सुप्रिया पाठक को देखकर मुझे फ़िल्म ‘बाज़ार’ याद आ गई, जिसका सच मुझे इस घटना को देखकर पता चला... हैदराबाद से लड़कियों को ले जाकर खाड़ी देशों में बेच/ब्याह दिया जाना बूढे अरबी लोगों से... आँखों देखा सच!)
सलिल भैया , मैं जैसे आपकी पोस्ट ही पढ़ने बैठी थी । मन खुश होगया पढ़कर । बाजा़र फिल्म तो नही देखी लेकिन आपका कथ्य समझ में आगया । हृदय के कोमल विस्तार और ममत्त्व से लेकर मर्म को स्पर्श करता हुआ ।
जवाब देंहटाएंउफ्फ्फ .... बंद परदों के पीछे की हकीकत ....
जवाब देंहटाएंजाने कितनी सकीला बाजी होंगीं हमारे ही परिवेश में ....
मन मिलता तो बहुत कम लोगों से ही है ..... सकीला बाजी अपनी ड्यूटी कर रही थीं और आप अपनी किए ......
जवाब देंहटाएंफ़िर भी बहुत छोटी है ये दुनिया ....
भाई आपका लिखा एक साँस में पढ़ जाती हूँ ..... हर एक पंक्ति में उत्सुकता बनी रहती हैं ......
जवाब देंहटाएंबंद परदों के पीछे की हकीकत बहुत घर में होता होगा न
God ब्लेस्स you
बॉबी जासूस फ़िल्म तप नाजों देख पार शकीला बाजी दीमाग मैं घऱ कर गईं
जवाब देंहटाएंAsl me hota hai tabhi cinema bnta hai n
जवाब देंहटाएंहलके फुल्के अंदाज़ में शुरू करके कहाँ लाकर छोड़ दिया पोस्ट को.....
जवाब देंहटाएंदादा आपकी किस किस बात पर फ़िदा हुआ जाय समझ नहीं आता....
हमारा तो न जाने क्यूँ अरब कन्ट्रीज के नाम से ही दिल बैठा बैठा सा जाता है :-(
सादर
अनु
सकीला बाजी की मन:स्थिति सोच कर रूह काँप गयी .... सादर !
जवाब देंहटाएंसहजता सरलता से पढ़ते हुए अचानक मन कैसा कैसा हो गया - एक ज़िन्दगी में कितने घुमावदार रास्ते - गहरे विश्वास में भी मनाही करने की विवशता !!! आपने समझा, वरना लोग इसीको शिकायत बना लेते हैं …
जवाब देंहटाएंदेख लो तुम आज हमको जी भरके .......
जवाब देंहटाएंयह गाना अब भी उदास कर जाता है ।
फ़िल्में कम देख पाता हूँ ...किंतु देखी हुई फ़िल्मों की सूची में बाज़ार भी है । शकीला बाज़ी भारत की मुस्लिम आबादी का एक सच हैं ...जो ख़ुशी नहीं बल्कि आँखों में नमी का सबब हैं । जो पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते उनके लिए तो ये ज़िन्दगी ही आख़िरी है ....तुरुप के पत्ते को यूँ तमाम कर देने की हिम्मत (विवशता) का समझौता दर्द के साथ गुस्सा भी दिलाता है मुझे । भारतीय मुस्लिम लड़कियों की किस्मत ग़रीबी के कुएं से निकलकर पेट्रोलियम के कुएं में जाकर समा जाती है । और ये कामुक हैवान ......
जवाब देंहटाएंमुल्क से तो बस खत आते हैं...।
जवाब देंहटाएंअपनों के खतों की राह देखते ही जिन्दगी का गुजर जाना एक त्रासदी है हर विवश स्त्री की । मुझे गाँव की एक घटना याद आई जिसमें कुछ बड़े लोगों के संरक्षण में एक स्त्री को कहीं से खरीदकर या भगाकर लाया गया था । उसके विरोध करनेपर उसे रस्सी से बाँधकर घसीटा गया पीटा गया । गाँव के लोग चुपचाप देखते रहे और मैं महीनों मन ही मन जलती रही । इस घटना को लेकर एक कहानी भी लिखी थी पर वह नष्ट होगई । फिर लिखने का साहस नही हुआ ।
जहाँ एक ओर स्त्रियाँ सशक्त होकर कहीं कहीं स्वयं शोषण कर रही हैं वहीं आज भी शोषित महिलाओं की भरमार है ।
शकीला के जीवन की वास्तविकता जान कर सिहर उठी हूँ .इस समाज में स्त्री पर पुरुष के ज़ुल्मों की कहानी कोई नई बात नहीं है .इस विषय में बहुत पढ़ा है .
जवाब देंहटाएंवही तालिबानी मनोवृत्ति ...औरत के लिए जीवन जहन्नुम बन जाता है - कहीं कोई छुटकारा नहीं .
:( पोस्ट पर कोई कमेन्ट नहीं।
जवाब देंहटाएंहमेशा सोचता हूँ कि "पान कल के लिए लगाते जाएँ" जैसी लाइन किस किस्म के इंसान लिख पाते हैं। :(
आखिर कब तक?
जवाब देंहटाएंपर्दे के पीछे की सच्चाई चौंकाती ही है
जवाब देंहटाएं'बाज़ार' और 'मंडी' देखी हुई हैं
अक्सर यह कथ्य सत्य प्रतीत होता है कि सिनेमा, समाज का आइना होता हैं
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमन को छू गयी भाई जी यह घटना !
जवाब देंहटाएंहैदराबाद में पुराना शहर है यहाँ इस प्रकार उम्र दराज अरबी शेख लोग उनकी मज़बूरी का फायदा उठाकर कमसिन लड़कियों के साथ निकाह करना आम बात है, अभी कुछ दिन पहले की बात है इसके पहले तीन शादियां कर चूका एक शेख चौथी शादी करने की कोशिश में पुलिस ने पकड़ लिया ! हैरानी के साथ मुझे ख़ुशी इस बात की हुयी कि कड़े इंतजाम के बाद उसके साथ निकाह करने वाली उस लड़की ने ही घर से भाग कर पुलिस स्टेशन पहुंचकर कंपलेट लिखवाई और वह पकड़ा गया ! बदलाव आ रहा है लेकिन धीमी चाल से ! बहुत सुन्दर पोस्ट !
अच्छी ख़ासी बह रही नाव के मुसाफ़िरों की खिलखिलाहट ज्यो नाव के किनारे पहुँच डूबते वक़्त चीख़ में तब्दील हो जाय ....
जवाब देंहटाएंदादा कुँवर बेचैन के एक शेर का दूसरा मिसरा कुछ यूं है -
" कि थोड़ा वक़्त तो लगता है रोकर मुस्कराने मे"
ज़िंदाबाद सलिल भाई (जान)
बंद परदों के पीछे की हकीकत..... सुन्दर पोस्ट...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट में कमेंट करने के लिये कुछ रह नहीं जाता। आप पूरा चित्र खींच देते हैं। पाठक पढ़कर स्तब्ध हो सोचता रह जाता है कि इतनी सरलता से कोई इत्ती बड़ी बात कैसे कह पाता है!
जवाब देंहटाएंगरीबी या कुछ और ... पर इस कडवी सच्चाई को मानना पढता है ... क्योंकि ये सच है ...
जवाब देंहटाएंबाजार फिल्म मेरी भी यादगार फिल्मों में से एक है, बाबी जासूस लगता है अब देखनी पड़ेगी. आपकी किस्सा गोई का कोई जवाब नहीं, सकीला बाजी को भूलना अब आसान नहीं होगा.
जवाब देंहटाएंहकीकत से रूबरू कराती पोस्ट.
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद किस्सा छेड़ा, भाई. मगर छेड़ा तो क्या खूब छेड़ा!
जवाब देंहटाएंआप तो एक धंधा करते-करते कई धंधे कर जाते हो. पैसों को संभालते संभालते संबंधों और ऐतबार को भी संभालने लगते हो.
और कहानी के अंत के तो कहने ही क्या!
पांच तारा (वो भी बड़ा) पोस्ट!!!
इस बार हम को देर हो गई आने मे ... :(
जवाब देंहटाएंउस का नतीजा यह हुआ कि पोस्ट पढ़ते पढ़ते हम भूल गए कि आप का पोस्ट पढ़ रहे है ... अंत शुरुआत से विपरीत होगा ... दिमाग से निकल गया था ... शुरू मे तो यही मान के चलते रहे कि बॉबी जासूस देखी है तो उसी की खुमारी की झलक है पोस्ट मे ... पर अंत आते आते ... याद आ गया कि पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त ... :)
एक बेहद जरूरी मुद्दे को आपने अपने ही अंदाज़ मे उठाया है ... इस ओर आजकल किसी का ध्यान नहीं है |
आपका लिखा सब पढ़ने के लिये प्रतीक्षारत रहते हैं,
जवाब देंहटाएंकतार मैं भी शामिल हूँ ....
इतनी सहजता से लिखते हुये आपने जब परदे के पीछे के सच को उजागर किया तो
मन असहज़ हो गया कुछ देर के लिये
पर सच्चाई तो यही है जो शक़ीला बाज़ी का था
साझा करने के लिये आभार
सादर
मुलुक से सिर्फ ख़त आते ! कितनी लड़कियों /स्त्रियों की त्रासदी है यह !
जवाब देंहटाएंमुलुक वालों की कमाई का जरिया बनी ये लड़कियां !, जैसे उनके लिए ही जीती रही !
दुनिया में आज के समय में विश्वास बहुत बड़ी चीज हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रोचक और प्रेरक प्रस्तुति ... .
पढ़ कर मन भीग गया है। आप बहुत अच्छा लिखते हैं।
जवाब देंहटाएंउसकी यात्रा समाप्त होने को है कहीं आप तो यात्रा पर नहीं निकल गये..
जवाब देंहटाएंबिहारी जी आपके इस ब्लॉग पर ऐसा लगा जैसे पहली बार आई हूँ। सकीला बेगम का इंट्रो और धीरे धीरे पूरी हकीकत.....................कहानी दिल में कहीं कोई सुई सी चुभो जाती है। यह सकीला बी जैसी औरत का ही जज़्बा है कि इस पर भी अपनों का खयाल बराबर रहता है।
जवाब देंहटाएंआप रेखाचित्रों के पात्र आप के शब्दों का लिबास पहन मात्र सजीव ही नहीं होते बल्कि उनके मनोभावों की अदृश्य नदी में पाठक अवश होकर गोते लगाने लगता है।
जवाब देंहटाएंयह प्रसंग आज के भारत का एक मार्मिक अध्याय है।
:( बड़ा अजीब सा मन हो गया पढ़कर इसे !
जवाब देंहटाएं