पिछले कुछ समय से सोचा कि लिखने से अवकाश लेकर कुछ
पढना चाहिये. और इस विचार के साथ ही जो पहली रचनामाला मेरे सामने आई वो एक युवा
कवि की है. इन्हें बहुत समय से पढता रहा हूँ और सहज ही अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त
करता रहा. किंतु इन प्रतिक्रियाओं से परे, यह दुबला-पतला, किंतु गहन और गम्भीर कविताओं का सृजन करने वाला कवि
धीरे-धीरे मेरे हृदय में स्थान बनाता चला गया. भोजपुरी के लोककवि भिखारी ठाकुर के
शब्दों में कहूँ तो,
तीस बरिस के भईल उमिरिया, तब लागल जिव तरसे
कहीं से गीत, कबित्त कहीं से, लागल अपने बरसे!
इस कवि की जितनी भी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं, उन्हें पढ़कर यही लगता है कि कविता एक टीस बनकर इस
रचनाकार के मन में उभरी है और ऐसे में कहाँ से गीत और कहाँ से कविताएँ बरसने लगीं
यह शायद उस कवि को भी नहीं पता होगा. उस युवा कवि का नाम है “सुधांशु फ़िरदौस.” अपने ब्लॉग ‘समालोचन’ पर
उनकी कविताएँ प्रस्तुत करते हुए श्री अरुण देव उनका परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं:
सुधांशु फ़िरदौस की कविताओं में ताज़गी
है. इधर की पीढ़ी में भाषा, शिल्प और संवेदना को लेकर साफ फ़र्क नज़र आता है. धैर्य और सजगता के साथ सुधांशु कविता के पास
जाते हैं. बोध और शिल्प में संयम, संतुलन और सफाई साफ बताती है कि उनकी
कितनी तैयारी है. ये क्लासिकल मिजाज़ की कविताएँ हैं, पर तासीर इनकी अपने समय
के ताप से गर्म हैं.
यहाँ उनकी कुल आठ कविताएँ पाठकों के समक्ष हैं, जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा गया है - तीन शीर्षक के अंतर्गत.
मुल्क है या मक़तल – यहाँ दो कविताएँ राष्ट्र के प्रबंधन से एक प्रश्न करती हैं, जबकि प्रश्नकर्त्ता को उसका उत्तर ज्ञात है और यही छटपटाहट है उसकी. यह प्रश्न हर अवाम का है अपने मुल्क के हुक्काम से.
ये आड़ी-तिरछी सी लकीरें
जिनसे बने हुए दायरे को हम मुल्क कहते हैं
जहाँ आज़ादी के लिये रूहें तडपती
कैदखाने नहीं तो और क्या हैं?
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क्या नफासत से चाबुक मारते हैं हुक्काम
मज़ा आ रहा है कहते हैं अवाम!
और फिर
हुकूमत का कोई भी अदना सा फैसला
मामूली सा फरमान
काफी है आपको ताउम्र करने को हलकान
आम तौर पर व्यवस्था से पीड़ित जनता का दर्द व्यक्त करते हुये लोग कटाक्ष या उपालम्भ का सहारा लेते हैं, किंतु सुधांशु जी ने अपनी कविताओं में एक छिपी हुई करुणा का सहारा लिया है. यही नहीं, यह कविता किसी व्यवस्था, दल या सरकार विशेष की बात नहीं कहती, यह एक आदर्श समाज की बात कहने की इच्छा और न कह पाने की विवशता को दर्शाती है.
इसके बाद ‘शरदोपाख्यान’ के अंतर्गत पहली चार कविताएँ शीतकाल की धूप, दिवस, संध्या और शरद पूर्णिमा की रात्रि के शब्द-चित्र ही नहीं, किसी बच्चे की बनाई ऐसी पेंटिंग की तरह है जो वह हाथ में कूची पकड़ते ही बनाना शुरू करता है – यानि एक ग्रामीण कैनवस पर शरद ऋतु का एक अनोखा चित्रांकन, जहाँ रंगों में एक नयापन है, दृश्यों में एक परम्परागत आकर्षण है और इनसे उत्पन्न होने वाला प्रभाव मुग्ध कर देता है साथ ही प्रवासियों को इस बात का एहसास दिलाता है कि उन्होंने क्या खोया है.
खिली है शरद की स्वर्ण सी धूप
कभी तीखी कभी मीठी आर्द्रताहीन शुष्क भीतरघामी धूप
माँ कहा करती थी चाम ही नहीं
हड्डियों में भी लग जाती है धूप
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इस लापरवाह धूप के भरोसे ही
ओल, अदरख, आलू, आंवला, मूली के
रंग बिरंगे अचारों के मर्तबानों से सज जाती हैं छतें
सज जाते हैं आँगन
जिसे लग जाए ये धूप
उसके माथे में कातिक-अगहन तक उठाता रहता है टंकार
जो बच गए उनके मन को शिशिर-हेमंत तक उमंग भरती
नवरात्र के हुमाद से सुवासित करती रहती है ये धूप
लोग व्यस्त हैं सप्ताहांत के जलसों में
या पड़े हैं टेलीवीज़न देखते बिस्तर पर निढाल
जाने किसके खीर से भरे भगोने में गिरेगी अमृत बूँद
ज्ञान ही नहीं अर्जित करना होता
बचानी होती है स्निग्धता और प्रांजलता भी
कला-कर्म की शुरुआत होती है सबसे पहले सहृदयता से
कवि न रचे एक भी मूल्यवान पंक्ति
लेकिन सहृदयता का त्याग कवि के स्वत्वा का त्याग है
कोई नहीं जानता प्रसिद्धि गजराज पर चढकर आएगी या गर्दभ पर
या फिर
कोई नहीं जानता है कहाँ से आता है कालिदास
कोई नहीं जानता कहाँ को चला जाता है कालिदास
हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन
जहाँ पहुँच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ
वहीं उतरती हैं पारिजात-सी सुगन्धित
स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकती
मेघदूत की पंक्तियाँ
उसके बाद केवल किम्वदंतियाँ
जनश्रुतियाँ...
टॉल्स्टॉय के अनुसार – कोई कृति चाहे कितनी ही कवितामयी, कौतूहलजनक या रोचक क्यों न हो, वह कलाकृति नहीं हो सकती, यदि कलाकार अपनी कला से दूसरों को प्रभावित न करता और
स्वयम आत्मविभोर नहीं होता.
और विश्वास कीजिये गणित के इस शोधार्थी की रचनाएँ एक
बेहतरीन समीकरण है पाठकों को प्रभावित करने और आत्मविभोर होकर कविता के सृजन करने
का.
सुधांशु जी से परिचय करवाने के बहाने ही सही, ब्लॉग पर आपकी आमद तो हुई।
जवाब देंहटाएंसुधांशु जी को हमारी हार्दिक शुभकामनाएं।
रचनाकार के लेखन की अंतर्वृत्तियों को उद्घाटित कर अंतरात्मा को झलकाता सुविचारित आलेख, परिचित कराने के साथ ही पढ़ने को भी उत्कंठित कर देता है.
जवाब देंहटाएंइन कविताओं के परंपरा और परिवेश से जुड़ाव उसी निरंतरता से संयुक्त कर मन को अनोखा तोष दे गया .तुम्हारा लेखन प्रभावित कर रहा है ,सलिल .
Inki kavitaaten sahi mein behtreen lagee chacha...:)
जवाब देंहटाएंशिवम जी की बात से सहमत हूँ । सुधांशु जी से परिचय करवाने के लिये आभार । सुन्दर समालोचना।
जवाब देंहटाएंआपको हम एक माह का 'सबेटिकल' अवकाश मंजूर करते हैं ताकि आप अगले सप्ताह ब्लॉग की एक और पोस्ट प्रकाशित कर सकें!
जवाब देंहटाएंसुधांशु जी से परिचय करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंसुधांशु जी की दमदार, टिकी रचनाएं व्यवस्था से प्रश्न करते भाव सीधे मन में उतर जाते हैं ... बहुत ही विस्तृत केनवास है इनका ...
जवाब देंहटाएंआपका आभार ऐसी कलम से मिलवाने का ... नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनायें ...
सुधांशु फ़िरदौस जी के लेखन का सुन्दर प्रस्तुतिकरण बहुत अच्छा लगा ...प्रस्तुति हेतु आपका आभार!
जवाब देंहटाएंअंतर्मन से समीक्षात्मक अवलोकन कोई ईमानदारी से करे तो लिखित पन्नों को पलटने का मन करता है ईमानदारी से ...
जवाब देंहटाएंsudhanshun jee ki kavitaon se bahut prabhavit hua
जवाब देंहटाएंआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंसादर
सुधांशु जी की कविताएँ सचमुच हृदय को सहलाती हुई प्रतीत हैं । कविताओं की समीक्षा उन्हें और अधिक पारदर्शी बना रही है । आभार आपका ।
जवाब देंहटाएं**** प्रतीत होती हैं****
जवाब देंहटाएंसाथॆक प्रस्तुतिकरण......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लाॅग की नयी पोस्ट पर आपके विचारों की प्रतीक्षा....
अच्छी कवितायें
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