बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

धड़कनों की तर्जुमानी


देखी होगी तुमने/ मेरी सोती जागती कल्पनाओं से
जन्म लेती हुई कविताओं को/ प्रसव वेदना से
मुक्त होते हुए/ सुनी होगी...
उनकी पहली किलकारी/ मेरी डायरी के पन्नों पर
और/ महसूस किया होगा... / सृजन का सुख
मेरे मन के/ कोने-कोने में


एक कविता के जन्म की इतनी सुंदर व्याख्या शायद कोई हो भी नहीं सकती. हर रचनाकार इस पीड़ा से गुज़रता है और नवजात रचना को देख यही कहता है. साथ ही यह भी लालसा अंतर्मन में जन्म लेती है कि इस रचना को सब सराहें, आख़िर अपने बच्चे की प्रशंसा किसे बुरी लगती है.

कविता की यह अनुभूति श्रीमती मृदुला प्रधान की है, जो उन्होंने संकलित किया है अपने कविता संग्रह “धड़कनों की तर्जुमानी” में. दो कम अस्सी रचनाओं का यह संकलन वास्तव में उनकी धड़कनों की आवाज़ हैं. मिथिला की पावन भूमि पर जन्मी मृदुला जी ने भारत के विभिन्न भागों में ही नहीं, विश्व के कई देशों का भ्रमण किया है. लेकिन उनकी कविताओं को पढकर भारत की माटी की सुगंध महसूस की जा सकती है. इनकी एक और विशेषता है कि इन्होंने हिंदी के साथ-साथ मैथिली, बांगला और उर्दू भाषा में भी कविताएँ लिखी हैं.

सामाजिक मंच पर इनसे जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को यह पता होगा कि इनकी साहित्यिक गतिविधियाँ निरंतर चलती रहती हैं, चाहे वो किसी मित्र के यहाँ साहित्य विमर्श हो, कविता पाठ हो, कवि गोष्ठी हो या साहित्य अकादमी का कोई अनुष्ठान.

यह संकलन 2014 में प्रकाशित हुआ. इसमें संकलित रचनाओं के रचनाकाल के विषय में मृदुला जी ने कुछ नहीं कहा है. किंतु कुछ रचनाएँ मैंने लगभग छह वर्ष पूर्व पढ़ी है, तो यह संकलन एक अनवरत रचनाधर्मिता का परिणाम है. इनकी प्रिय शैली मुक्त छंद में कविता करना है, अत: सारी कविताएँ मुक्त छंद में हैं, लेकिन इनमें एक लयात्मकता दिखाई देती है. यह अलग बात है कि कहीं-कहीं यह लयात्मकता भंग हो जाती है. कुछ हद तक इन रचनाओं को नज़्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है.

मृदुला जी की कविताएँ, पाठक के मन पर कोई बोझ नहीं डालतीं, न कोई दार्शनिकता या आध्यात्मिकता का शोर मचाती हैं. ये सारी कविताएँ, हमारे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं का एक बारीक और भावपूर्ण अवलोकन है. जैसे “ढूँढती हूँ उस लड़की को” में अपने समय की स्कूल जाने वाली लड़की का एक ऐसा शब्दचित्र खींचा है उन्होंने कि एक स्केच सा लगता है और सबसे प्यारी बात यह है कि उस खोयी लड़की में वो ख़ुद को तलाशती हैं.

एक उच्च-सामाजिक परिवेश में रहकर भी उन्हें आधुनिकता के नाम पर शालीनता की उपेक्षा तनिक भी पसंद नहीं. उनकी कविता “कि मुझे क्यों दिखता है” संस्कारों की धज्जियाँ उड़ाती आधुनिकता के प्रति एक प्रश्न है. या फिर गृहिणियों की दिनचर्या के दो अलग-अलग रुख़ प्रस्तुत कर उन्होंने हाई-सोसाइटी की तथाकथित गृहिणियों पर तंज़ भी किया है. वहीं दूसरी ओर उनकी प्रणय रस से सिक्त कविताएँ किसी भी युवा दिल की तर्जुमानी है. प्रकृति से जुड़ी कविताएँ भी किसी पेण्टिंग से कम नहीं.  

इस संकलन में समाहित सभी कविताओं में और मृदुला जी की लगभग सभी रचनाओं में जो बात रेखांकित करने वाली है, वह है उनका अंदाज़-ए-गुफ़्तगू. सारी कविताओं में वो बतियाती हुई दिखाई देती हैं, चाहे उनके समक्ष कोई हो, या न हो! कभी उनसे जो उनके साथ नहीं, कभी प्रकृति से, कभी निर्जीव सी लगने वाली किसी शै से और कोई नहीं मिला तो सहारा रेगिस्तान में ख़ुद का ख़ालीपन तलाशती, ख़ुद से बतियाती हैं. चुँकि बातचीत के माध्यम से वो नज़्म कहना चाहती हैं, इसलिये भारी भरकम बात भी इतने आसान से लफ़्ज़ों में कह देती हैं कि बस जहाँ छूना चाहिये – कविता छूती है. रोज़ की चाय हो, किसी का जन्मदिन, किसी की कमी हो, उलाहना हो, प्यार हो, चुप्पी हो, अतीत की यादें हों या महानगर की कॉलोनी का सण्डे... कोई भी रंग अछूता नहीं उनकी कविताओं से.

कविताओं को पढ़ते हुये जो बात खटकती है, वो है जेण्डर की भूल. कई जगह हर्फ़ की कौमें छा गयीं को छा गये लिखना, “मरुभूमि कितना सूना लगता है” (मरुभूमि कितनी सूनी लगती है) या “नए-नए तरकीबों” (नई-नई तरकीबों) का लिखना रुकावट पैदा करता है. लेकिन कविता के भावों के समक्ष ये व्यवधान वैसे ही हैं जैसे किसी मीठी किशमिश के दाने के तले में चिपका तिनका. मिठास वही है.

कविता-संग्रह का प्रकाशन आत्माराम ऐण्ड संस, दिल्ली-लखनऊ ने किया है और सजिल्द पुस्तक की कीमत है रु.295.00. मुद्रण की कई त्रुटियाँ भी हैं, जिनसे शब्दों के अर्थ भी बदल गये हैं.

यह कविता संग्रह, उनका छठा संग्रह है, जो उनके अनुभव का दस्तावेज़ है. इस संग्रह को पढने के बाद मेरा दावा है कि आप कविता के शिल्प की प्रशंसा तो करेंगे ही, उनमें अभिव्यक्त भावों में ख़ुद को पाएँगे भी. सबसे बड़ी बात यह है कि ये तमाम कविताएँ (जिनमें कुछ ख़ालिस उर्दू में हिंदी तर्जुमा के साथ हैं) आपको “देखी हुई” लगेंगी. जहाँ ये कविताएँ आपके चेहरे पर एक मुस्कुराहट और शांति बिखेरती हैं, वहीं कुछ कविताओं में बिखरा उदासी का अण्डरटोन भी आपको साफ़ सुनाई देता है. ख़ुद मृदुला प्रधान जी के शब्दों में –

बैठा है ख़्यालों में छुपा, दर्द बेज़ुबाँ
आँखों की नमी क़ैद है, पलकों की परत में!

मेरी बात:
फेसबुक पर मृदुला दी की कविताओं के साथ ख़ुद मैंने न जाने कितनी जुगलबंदी की है. कमेण्ट से हुई शुरुआत, कई बार मेरी कुछ अच्छी नज़्मों (जिन्हें मैंने सहेजा नहीं) की प्रेरणा भी बनी हैं. एक शालीन व्यक्तित्व जिससे कोई भी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता.

दीदी! आज आपको इस पोस्ट के माध्यम से जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!!


27 टिप्‍पणियां:

  1. मृदुला दीदी को सादर प्रणाम सहित जन्मदिन की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं।

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  2. Bahut achhaa laga ye review...waise to review nahi hai but still.. Aur janamdin ki khoob saari best wishes :)

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  3. विद्वतापूर्ण आलेख...श्वेत श्याम शैली में...नीर क्षीर करता सा!

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  4. जन्मदिन की बधाई इतनी ख़ूबसूरत भी हो सकती है ..मन भावुक होता जा रहा है ..और शब्द नहीं मिल रहे हैं आपके इस स्नेह-सम्मान के लिये सलिल भाई ..क्या कहूँ ..आपके कीमती समय और भावनाओं की अहमियत समझती हूँ ..खूब खुश रहिये..

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    1. जन्मदिन की बधाई और ढेर सारी शुभकामनायें।

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    2. जब यह संकलन मेरे हाथ आया था तब परेशानियों ने इस कदर घेर रखा था कि मैं इस पर कुछ नहीं कह पाया. आपके जन्मदिन पर यह भेंट मेरी ओर से गुरुदक्षिणा भी है. आप मेरी बहुत सी रचनाओं की जननी भी हैं.

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  5. आपका लिखा संजीवनी बूटी से कम नहीं है लेखकों के लिए। आलोचना भी इतने प्यार से कि खलता नहीं, झट अपनी गलती का एहसास हो जाता है।

    आज के प्रकाशक श्रम करना नहीं चाहते वरना वर्णमाला कि या व्याकरण की साधारण गलतियाँ अपने स्तर से सुधार सकते हैं। लेखक भाव में डूबा भाषा सिद्धांत को अक्सर भूल जाता है।

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  6. आपका लिखा संजीवनी बूटी से कम नहीं है लेखकों के लिए। आलोचना भी इतने प्यार से कि खलता नहीं, झट अपनी गलती का एहसास हो जाता है।

    आज के प्रकाशक श्रम करना नहीं चाहते वरना वर्णमाला कि या व्याकरण की साधारण गलतियाँ अपने स्तर से सुधार सकते हैं। लेखक भाव में डूबा भाषा सिद्धांत को अक्सर भूल जाता है।

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  7. मृदुला प्रधान जी की कृति ‘धड़कनों की तर्जुमानी’ की संक्षिप्त किंतु सारगर्भित समीक्षा ।
    प्रणाम सहित जन्मदिन की हार्दिक बधाइयाँ
    संजय भास्‍कर
    शब्दों की मुस्कुराहट
    Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर मैं और मृदुला प्रधान जी कुछ बातें और धड़कनों की तजुर्मानी:)

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  8. 'धडकनों की तर्जुमानी ' के प्रकाशन पर मृदुला जी को बहुत बहुत बधाई और आपको इस सुंदर समीक्षा की प्रस्तुति पर..कविता लिखना और उसे महसूस करना भावना की अत्यंत सूक्ष्मता चाहता है..इस पर आप दोनों ही खरे उतरते हैं. आभार !

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  9. ऐसी समीक्षा रचना को और भी ऊँचाइयाँ देती है .मृदुला जी की रचनाओं को मैं भी अक्सर पढ़ती रहती हूँ .वे ऐसे ही पढ़कर छोड़ देने वाली रचनाएँ नहीं हैंं .हर कविता एक चित्र होती है .बधाई मृदुला जी को जन्मदिन की और आपको इतनी अच्छी समीक्षा के लिये .

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  10. "धड़कनों की तर्जुमानी" की शायरा को उनके जन्मदिवस पर एक सुंदर भेंट आज आपने दी है। रचना का हर कोना झांक रहा है इस समीक्षात्मक लेख में।

    मृदुला जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं !!!

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  11. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डॉ. राम मनोहर लोहिया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  12. आपने मृदुला जी को उनके जन्मदिवस पर उनके कविता संग्रह " धड़कनों की तर्जुमानी" की सुन्दर समीक्षात्मक प्रस्तुति को उपहार स्वरुप भेंट की है, बहुत अच्छा लगा यह अंदाज ..
    मृदुला जी को जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

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  13. जितनी भावुक और सच्ची कविता है उतना ही आपका आंकलन ... मृदुला जी ने कलम को धार दे दी है इस सृजन में ... जनम दिन की शुभकामनायें मृदुला जी को ...

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  14. जन्मदिन के इस उपहार में अन्य पाठकों का भी भला हुआ....
    इनकी रचनाओ से गुजरना अच्छा लगा!

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  15. अपना बच्चा सबसे सुन्दर होता है,
    उसका इतना सुंदर चित्रण
    मन को हौसला देता है

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  16. लालित्यपूर्ण समीक्षा ।
    आद. मृदुला जी को बधाई ।

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  17. 'धडकनों की तर्जुमानी" प्रकाशित पुस्तक के लिए मृदुला जी को बहुत बहुत बधाई ! बेहतरीन समीक्षा के लिए साधुवाद !

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  18. सलिल जी, किसी को जन्मदिन की इतनी सुन्दर बधाई भी दे सकते है यह पहली बार ज्ञात हुआ।

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  19. बहुत सुंदर जन्मदिन की शुभकामनाएँ ! यह तोहफ़ा नायाब है ! आपने आ. मृदुला जी के काव्य-संग्रह की इतनी सुंदर समीक्षा की है...इससे पता चलता है कि संग्रह स्वयं में कितने मोती समेटे हुए होगा ! आ. मृदुला जी को एक बार फिर से जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई तथा इस काव्य-संग्रह एवं आने वाले सभी संग्रहों के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ!!!
    आ. सलिल जी आपके लेखन में एक ऐसी ईमानदारी है, जो पाठक को बरबस ही बाँध लेती है ! कुछ ऐसा ही फ़ेसबुक पर आजकल चल रही आपकी 'दाँतों की डाक्टरनी' पोस्ट पर महसूस होता है ! आप इसी तरह लिखते रहिए और हम सबको पढ़वाते रहिए ! :-)
    (पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ, इसीलिए यह पोस्ट भी अब पढ़ पाए !)

    हार्दिक शुभकामनाओं सहित,

    ~सादर
    अनिता ललित

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