डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक ऐसा नाम है जिनके नाम से
जुड़े हैं उत्कृष्ट खण्ड-काव्य, लोक गीत, हास्य-व्यंग्य, निबंध, नाटक और जुड़ी हैं कहानियाँ,
कविताएँ तथा बहुत सारी ब्लॉग रचनाएँ. विदेश में रहते हुए भी हिन्दी साहित्य की
सेवा वर्षों से कर रही हैं. बल्कि यह कहना उचित होगा कि चुपचाप सेवा कर रही हैं.
सीमित पाठकवर्ग के मध्य उनकी रचनाएँ अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं. इनकी प्रत्येक
रचना उत्कृष्टता का एक दुर्लभ उदाहरण है और भाषा वर्त्तमान में लुप्त हो चुकी है. “कृष्ण-सखी”
डॉ. प्रतिभा सक्सेना का नवीनतम उपन्यास है, जिसकी प्रतीक्षा कई वर्षों से थी.
विगत कुछ वर्षों से यह देखने में आया है कि पौराणिक उपन्यासों के प्रकाशन की
संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. इनमें से कुछ उपन्यास/ ग्रंथ पौराणिक
पात्रों और घटनाओं को लेकर काल्पनिक कथाओं के आधार पर लिखे गये हैं तथा कुछ उन
घटनाओं की अन्य दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं. यह सभी उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय
हुए. किंतु ध्यान देने की बात यह है कि सभी उपन्यास मूलत: अंग्रेज़ी में लिखे गये
तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए उनका हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित किया गया, जो
अंग्रेज़ी पाठक-वर्ग से इतर अपना स्थान बनाने में सफल हुआ.
कथानक
“कृष्ण सखी”, जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, कृष्ण और उनकी सखी मनस्विनी द्रौपदी
के कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालता है. उपन्यास की कथा मूलत: महर्षि वेदव्यास
रचित ग्रंथ “महाभारत” की कथा है. किंतु इसमें महाभारत की उन्हीं घटनाओं को
प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है जहाँ कृष्ण अथवा द्रौपदी की उपस्थिति है. अन्य
घटनाओं का विवरण सन्दर्भ के रूप में अथवा उस रूप में उल्लिखित है, जिस रूप में वह
घटना इनकी चारित्रिक विशेषताओं को रेखांकित करती है. मत्स्य-बेध, पाँच पतियों के
मध्य विभाजन, वन गमन, सपत्नियों व उनकी संतानों का उल्लेख, कर्ण के प्रति मन में
उठते विचार व द्विधाएँ, चीर हरण, कुरुक्षेत्र का महासमर, भीष्म से प्रश्न, पुत्रों
की हत्या और अंतत: हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाओं के मध्य हिम समाधि... यह समस्त
घटनाक्रम पांचाली के सन्दर्भ में तथा कारागार में जन्म, मातुल द्वारा वध किये जाने
की आशंका में भगिनी के जीवन के दाँव पर जीवन दान पाना, राधा तथा अन्य गोपियों के
साथ रास रचाना, फिर उन्हें छोड़कर द्वारका प्रस्थान करना, सखा अर्जुन को प्रेरित कर
निज बहिन का अपहरण करवाना, युद्ध में सारथि तथा एक कुशल रणनीतिज्ञ की भूमिका
निभाना, गान्धारी का शाप स्वीकार करना, अश्वत्थामा को शापित करना तथा एक वधिक के
वाण द्वारा मृत्यु को प्राप्त होना जैसी घटनाएँ कृष्ण के सन्दर्भ में प्रस्तुत की
गयी हैं.
कथा को यदि कथा के सन्दर्भ में देखें तो प्रत्येक घटनाक्रम पाठक के स्मरण में
है. परंतु उन घटनाओं का प्रस्तुतीकरण उन जानी-सुनी कथा में भी एक अनोखापन उत्पन्न
करता है. यही नवीनता कथा में पाठक की रुचि और उत्सुकता बनाए रखती है और पाठक को
प्रत्येक स्तर पर यह अनुभव होता है कि वह इन सभी कथाओं को पहली बार पढ़/ सुन रहा
है.
भाषा:
उपन्यास की भाषा पाठकों को संस्कृतनिष्ठ प्रतीत हो सकती है, किंतु मेरी दृष्टि
में यह हिन्दी साहित्य की एक सुग्राह्य भाषा है. उपन्यासकार स्वयं एक प्रतिष्ठित
साहित्यकार हैं. उनकी समस्त रचनाओं में
हिन्दी साहित्य की एक सुगन्ध पाई जाती है और जिन्होंने उन्हें नियमित पढा है, उनके
लिये इस भाषा की मिठास कदापि नवीन नहीं हो सकती. व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना
है कि जिन उपन्यासों का उल्लेख मैंने इस आलेख के प्रारम्भ में किया है, उनके हिन्दी
में अनूदित संस्करण के समक्ष “कृष्ण सखी” कैलाश के शिखर सा प्रतीत होता है. मौलिक,
सांस्कृतिक और साहित्यिक मूल्यों के आधार पर उपन्यास की भाषा एक गहरा प्रभाव छोड़ती
है.
डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक कथाकार, कवयित्री, नाटककार, गीतकार और उपन्यासकार हैं.
इसलिये यह उपन्यास पढते हुए पाठक को इन सभी विधाओं की यात्रा का अनुभव प्राप्त
होता है. जहाँ भाषा की सरसता और बोधगम्यता इसे एक काव्य का प्रवाह प्रदान करती है,
वहीं दृश्यांकन एवं सम्वादों की सुन्दरता एक नाटकीय चमत्कार से कम नहीं है.
शैली:
प्लेटो की महान रचना “रिपब्लिक” में जिस प्रकार प्लेटो ने अपने गुरु सुकरात के
साथ हुये सम्वादों के माध्यम से एक दार्शनिक एवं राजनैतिक विचारधारा का प्रतिपादन
किया है, ठीक उसी प्रकार इस उपन्यास में भी कृष्ण और पांचाली के सम्वादों के
माध्यम से उन दोनों के कुछ अप्रकाशित चारित्रिक पहलुओं को प्रकाश में लाने की
चेष्टा की गयी है. कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तथा कुछ नयी व्याख्याएँ भी इन
सम्वादों के माध्यम से मुखर होती हैं. ऐसा प्रतीत होता है मानो कृष्ण और पांचाली
मूल ग्रंथकार एवं वर्त्तमान उपन्यासकार के प्रभाव से मुक्त होकर अपने मन की बात एक
दूसरे से व्यक्त रहे हैं और एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों. रचनाकार का
प्रवेश मात्र उन परिस्थितियों में है जहाँ पाठकों के समक्ष पात्रों से विलग होकर
कोई बात कहानी हो. द्रौपदी और कृष्ण के प्रश्नों के माध्यम से प्रतिभा जी ने उन
सभी प्रश्नों के उत्तर और भ्रांतियों के स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये हैं जो भिन्न
भिन्न कालखण्ड में हम सबके मस्तिष्क में जन्म लेते रहे हैं.
उपन्यास एक रोमांचक चलचित्र का प्रभाव उत्पन्न करता है और दृश्यों का समायोजन
इतना उत्कृष्ट है कि घटनाएं शब्दों के नहीं, चित्रों के माध्यम से मस्तिष्क में
स्थान बनाती जाती हैं.
केन्द्रीय भाव:
उपन्यास का मुख्य उद्देश्य योगेश्वर कृष्ण और मनस्विनी द्रौपदी के विषय में जन
साधारण में प्रचारित भ्रांतियों का उन्मूलन करना है. सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी ने
अपने एक प्रवचन में कहा है कि भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम इस कारण नहीं कहा
जाता कि उन्होंने पिता की आज्ञा मानी, युवराज होते भी राज्याभिषेक से वंचित रहे, वन
के दुःख सहे, पत्नी का त्याग किया, संतान का वियोग सहा, अपितु इस कारण कहा जाता है
कि जीवन में इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों को सहकर भी उन्होंने कभी दुःख का भाव अपने
मुख पर नहीं आने दिया.
“कृष्ण सखी” में भी कृष्ण की प्रचलित छवि को खंडित किया गया है. प्रतिभा जी ने
बताया है कि गोपियों के वस्त्र छिपा लेने के पीछे यह कारण था कि वे उन्हें उनके
शील की रक्षा और उनकी तबिक भी त्रुटि से सम्पूर्ण समाज अभिशप्त न हो जाए (जैसा कि
कंस के जन्म से हुआ) का पाठ पढ़ाना चाहते थे, सोलह हज़ार राजकुमारियों को मुक्त
करवाकर उनसे विवाह कर समाज में उन्हें सम्मान दिलाया. यही नहीं वह कृष्ण जिनको
कारागार में जन्म के साथ ही माता से विलग कर दिया गया और गोकुल में लालन पालन
मिला, उसके जीवन के लिये भगिनी का जीवन बलिदान किया गया, निज बहिन सुभद्रा का
अपहरण उसे योग्य वर दिलाने के लिये और दुराचारी से बचाने के लिये किया, युद्ध में
शस्त्र न उठाने का प्रण भी भंग करना पड़ा. स्वयं लेखिका के शब्दों मे – उनका जीवन
संघर्षों में बीता. सबके प्रति जवाबदेह बनकर भी नितांत निस्पृह, निर्लिप्त और
निस्संग बने रहे.
दूसरी ओर मनस्विनी द्रौपदी एक आदर्श नारी का प्रतिनिधित्व करती है. प्रश्न
करती है, उत्तर मांगती है और भीष्म तथा धर्मराज से अपने प्रति हुए व्यवहार का न्याय
चाहती है. और इन सबके लिये वो भिक्षा नहीं मांगती, बल्कि अधिकार चाहती है. मनस्विनी
द्रौपदी के चित्रण में लेखिका ने कहीं भी आक्रामक नारीवादी अभिव्यक्ति का प्रयोग
नहीं किया है, अपितु स्वाभाविक एवं न्यायसंगत प्रश्नों और तर्कों का सहारा लिया
है. “कृष्ण जैसा मित्र है उसका टूटता मनोबल साधने को, विश्वास दिलाने को कि तुम
मन-वचन-कर्म से अपने कर्त्तव्य पथ पर डटी रहो तो कोई बाधा सामने नहीं टिकेगी.”
पांचाली का चरित्र एक गौरवमयी
,यशस्विनी और
समर्थ नारी को रूप में कृष्ण सखी के अर्थ को चरितार्थ करता है.
अंत में:
उपन्यास का कलेवर आजकल जिस प्रकार के उपन्यास बाज़ार में उपलब्ध है उसके समकक्ष
रखने का प्रयास प्रकाशक “शिवना प्रकाशन” द्वारा किया गया है. आवरण चित्र मनस्विनी द्रौपदी
को पारम्परिक रूप में दर्शाता है, जबकि उपन्यास की माँग उसके सर्वथा विपरीत है. चित्रकार द्रौपदी की विशेषताओं
से नितान्त अनभिज्ञ है, उसकी विपुल केश-राशि के स्थान पर दो-चार लटें दिखा कर दीनता में और
वृद्धि कर दी है, केशों से आच्छादित हो कर वह अधिक गरिमामयी
और वास्तविक लगती . ग्राफिक्स की मदद कम ली गई है जिसके कारण आवरण थोड़ा
फीका दिखता है.
पौने तीन सौ पृष्ठों के इस उपन्यास का मूल्य रु.३७५.०० हैं, जो बाज़ार के हिसाब
से अधिक है. मैंने इस उपन्यास की मूल पांडुलिपि पढ़ी है, इसलिए दावे के साथ कह सकता
हूँ की प्रकाशक ने पुस्तक “प्रकाशित” नहीं की है बल्कि “छाप दी है”.
क्योंकि अनुमानतः ९०% पृष्ठों में वाक्य एक पंक्ति में बिना विराम चिह्न के समाप्त
होता है तथा दूसरी पंक्ति में विराम चिह्न से आरम्भ होता है. टंकण की त्रुटियाँ
जैसी पांडुलिपि में थीं हू-ब-हू उपन्यास में भी देखी जा सकती हैं. संक्षेप में यही
कहा जा सकता है कि प्रूफ-रीडिंग की ही नहीं गई है.
उपन्यास में सबसे निराश करने वाली बात यह है कि रचनाकार की ओर से कोई वक्तव्य
नहीं है – यथा उपन्यास की रचना प्रक्रिया, रचना के सृजन का मुख्य उद्देश्य, पाठकों
के नाम सन्देश, आभार आदि. लेखिका की ओर से यह पुस्तक कृष्ण भगवान को समर्पित है.
पुस्तक के प्रारम्भ में उपन्यासकार का परिचय या भूमिका या किसी अन्य साहित्यकार,
मित्र अथवा सहयोगी द्वारा नहीं दिया गया है.
आजकल जितने भी उपन्यास “बेस्ट सेलर” की श्रेणी में आते हैं, उनसे यह उपन्यास
कहीं भी उन्नीस नहीं है, लेकिन अप्रवासी लेखक के लिये एक प्रबंधन टीम द्वारा पुस्तक
का विज्ञापन अथवा मार्केटिंग करना संभव नहीं, इसलिए यह उपन्यास, उपन्यास न होकर एक
शृंखलाबद्ध ब्लॉग पोस्ट का पुस्तक संस्करण भर होकर न रह जाए इसका दुःख होगा मुझे
व्यक्तिगत रूप से.