बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

अटकन चटकन : छोड़ आए हम वो गलियाँ

 बातों वाली गली” का कर्ज़ चुकाने का मौक़ा “अटकन चटकन” ने दे दिया, हालाँकि इसमें भी व्यक्तिगत व्यस्तताओं और परेशानियों के कारण महीने भर से ज़्यादा का समय निकल गया। यह उपन्यास लिखा है श्रीमती वंदना अवस्थी दुबे ने और इसके प्रकाशक हैं शिवना प्रकाशन। कुल जमा 88 पृष्ठों का यह उपन्यास मेरी नज़र से देखें तो एक रोशनदान है जिससे झाँकते हुए मैं उन गलियों का सफ़र तय कर पाता हूँ जिसके बारे में गुलज़ार साहब ने अपनी एक नज़्म में कहा था – छोड़ आए हम, वो गलियाँ!


उपन्यास का ताना बाना उस शहर या गाँव के इर्द-गिर्द है जिसका नाम वंदना जी ने ग्वालियर या झाँसी भले लिखा हो, लेकिन वह आज से मात्र चार पाँच दशक पहले का कोई भी गाँव या शहर हो सकता है और स्थान उस गाँव या शहर के एक सम्पन्न खेतिहर परिवार की हवेली। एक ऐसी हवेली जिसमें दालान है, आँगन है, रसोई है, छत है, कई कमरे हैं और बहुत सारे लोग बसते हैं। इस उपन्यास की कहानी दालान को छोड़कर (ज़रूरत के समय थोड़ा बहुत इण्टरफ़ेरेंस को छोड़कर) बाक़ी तमाम जगहों की हैं , इसलिए इसके किरदार औरतें और बच्चे हैं। उपन्यास को पढ़ते हुए हमारी उम्र के सभी लोगों को ऐसा लगता है कि वे अपनी दादी, बुआ, मौसी, चाची, काकी और शायद अपनी माँ से मिल रहे हैं।

उपन्यास की केंद्रीय पात्र सुमित्रा जी और कुंती हैं, जिन्हें वंदना जी ने अपने पिता जी के साथ यह उपन्यास समर्पित भी किया है। सुमित्रा के साथ जीका और कुंती के साथ सिर्फ नाम का सम्बोधन क्यों किया गया है यह बात उन्होंने स्पष्ट नहीं की। लेकिन हमारे जीवन में कुछ लोग होते ही इतने सीधे-सादे हैं कि उनको जी कहकर सम्बोधित किये बिना नहीं रहा जा सकता। सुमित्रा जी भी शायद उसी मिट्टी की बनी हुई थीं। दो सगी बहनें, लेकिन एक दूसरे की कार्बन कॉपी यानि शक्ल सूरत से लेकर सीरत तक में एक कार्बन की तरह काली और दूसरी बिल्कुल सफ़ेद। सन्योग से दोनों बहनें एक ही घर में ब्याही जाती हैं और फिर शुरू होती है महाभारत की एक शृंखला... घटना दर घटना जो मायके से लेकर ससुराल तक और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती जाती है। यह महाभारत वास्तव में संयुक्त पारिवार के बीच फलते फूलते कलह का एक ऐसा उदाहरण है, जिसके साक्षी हम सब रहे होंगे अपने बचपन में और यदि हम कहें कि हमने ऐसा कभी देखा सुना नहीं, तब या तो हम झूठ बोल रहे हैं या फिर हमने बचपन जिया ही नहीं। ख़ैर उपन्यास का अंत, जैसा कि हम सब देखना चाहते हैं, उसी तरह हुआ – और सब सुख-शांति से रहने लगे!

उपन्यास में वर्णित सारी घटनाएँ कुंती के इर्द-गिर्द घूमती हैं और उसी से जुड़े सभी किरदार सामने आते जाते हैं। इसलिये इस उपन्यास की हीरो कुंती ही है, क्योंकि इसके चरित्र के बहुत सारे शेड्स हैं, बल्कि जो भी किरदार उसके सामने आता है उसे एक नया रंग देकर जाता है और आख़िर में उन सभी रंगों को ख़ुद में आत्मसात कर, कुंती का किरदार पूरी तरह काला हो जाता है। उपन्यास की शुरुआत से ही मेरे मन में कुंती की जो छवि बनती जाती है वह है शेक्सपियेर के मशहूर नाटक ऑथेलो के पात्र इयागो की, जिसे साहित्यकार निरुद्देश्य खलनायक की संज्ञा देते हैं। कुंती भी जितने प्रपंच रचती है, उसका उद्देश्य न तो स्वयम का वर्चस्व सिद्ध करना होता है, न किसी को नीचा दिखाना, किंतु उसका परिणाम अवश्य यह होता है कि कोई भी कुंती से उलझना नहीं चाहता। इसे कम से कम मेरे विचार में न तो कुंती के झगड़ने का उद्देश्य माना जा सकता है, न उपलब्धि। और जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, लगता है कि आगे चलकर कुंती विश्वम्भर नाथ शर्मा “कौशिक” की कहानी ताईकी रामेश्वरी सी होगी। लेकिन कुंती का अनोखापन उसे कुंती के रूप में ही निखारता है जो वंदना जी की शानदार किस्सागोई की कला का प्रमाण है।

पूरे उपन्यास में कुंती के प्रपंच और षड़यंत्रों की बहुतायत है, लेकिन ग़ौर से देखा जाए तो संयुक्त परिवार के मध्य इस प्रकार चार बर्तनों के बीच ख़ड़कने की आवाज़ें होती रहने से अधिक नहीं... हाँ कभी-कभी इन बर्तनों का टकराना कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो जाता है जो काँच के टूटकर बिखरने और चुभने सा लगने लगता है और खड़कना शोर की तरह तीखा और कर्कश भी लगने लगता है। लेकिन यही तो संयुक्त परिवार के बीच की मिर्ची और शक्कर का संगम है।

“अटकन चटकन” की भाषा में बुंदेलखण्ड की चाशनी घुली हुई है, इसलिये कुंती के सम्वाद भी कानों में मिस्री घोलते हैं। हर किरदार अपनी ज़ुबान में बात करता है, जिसपर उपन्यासकार की भाषा का कोई भी प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। लेखन शैली में एक ऐसा बहाव है कि पढ़ना शुरू करते ही पाठक उपन्यास के साथ बहता चला जाता है और बिना अंत तक पहुँचे थमता नहीं। वर्णन इतना जीवंत है कि घटनाएँ काग़ज़ पर लिखे हरफों में नहीं, आँखों के सामने घटती हुई “दिखाई” पड़ती हैं... कोई व्यर्थ का वर्णन नहीं और कोई बनावटी घटनाक्रम नहीं।

“अटकन चटकन” उपन्यास श्रीमती वंदना अवस्थी दुबे के लेखन कौशल का अद्भुत नमूना है। वे अपने परिचय में कहती हैं कि उन्हें विषय के रूप में विज्ञान ही पढ़ना अच्छा लगता था, सो विज्ञान की छात्रा रहीं, स्नातक तक। एक हवेली के अंदर की दुनिया का इतना सूक्ष्म निरीक्षण इसी बात का प्रमाण है। एक विज्ञान की छात्रा का एक सामाजिक दस्तावेज़ जो परिवार के हर मनोवैज्ञानिक पहलू को उजागर करता है और जिसका नाम है – अटकन चटकन!

रविवार, 21 अप्रैल 2019

आया है मुझे फिर याद


असली मजा सब के साथ आता है – ई बात भले सोनी-सब टीवी का टैगलाइन है, बाकी बात एकदम सच है. परब-त्यौहार, दुख तकलीफ, सादी-बिआह, छट्ठी-मुँड़ना ई सब सामाजिक अबसर होता है, जब सबलोग एक जगह एकट्ठा होता है. घर-परिबार, हित-नाता, भाई-भतीजा, नैहर-ससुराल... जब सब लोग मिलता है, मिलकर आसीर्बाद देता है, तब जाकर बुझाता है कि अनुस्ठान पूरा हुआ. सायद एही से लोगबाग कह गए हैं कि खुसी बाँटने से बढ़ता है. आप लोग को बुलाते हैं, त आपको भी बुलाया जाता है अऊर एही परम्परा चलता रहता है. कोई छूट न जाए ई बात का बहुत ख्याल रखा जाता है. केतना रिस्तेदारी अइसा होता है जहाँ न्यौता देने के लिये खुद जाना पड़ता है.

मगर अब जमाना ऐड्भांस हो गया है.. एकदम हाई-टेक. आजकल त सादी बिआह का न्यौता भी व्हाट्स ऐप्प पर दे दिया जाता है.  एगो हमरे दोस्त गुसिया गये ऑफिस में एगो स्टाफ के ऊपर कि ऊ उनके घर बेटा के जनम दिन में काहे नहीं गया. बेचारा बोला भी कि उसको इनभाइट कहाँ किया गया था. पता चला कि इंभिटेसन व्हाट्स ऐप्प पर भेजा गया था अऊर अगिला बेचारा ई समझा कि भोरे-भोरे भेजा जाने वाला गुड मॉर्निंग टाइप का मेसेज होगा जिसके किस्मत में पढ़ने से ज्यादा फॉरवर्ड होना लिखा होता है. हमको त अपना कलकत्ता का दिन याद आ जाता है जहाँ सादी बिआह के न्यौता में खास तौर पर लिखा होता था -  हम व्यक्तिगत रूप से आपके समक्ष उपस्थित होकर आपको निमंत्रण नहीं दे सके, इसके लिये क्षमा-प्रार्थी हैं.

लोग कहता है कि टेकनोलॉजी दुनिया को जोड़ता है, कोई किसी से दूर नहीं है, सबलोग “जस्ट अ क्लिक अवे” है. मगर ई टेकनोलॉजी का जरूरत सायद एही से बढ़ गया है कि सबलोग दूर हो गया है. रिस्ता अऊर सम्बंध सुबह का गुड मॉर्निंग से सुरू होकर स्वीट-ड्रीम्स पर खतम हो जाता है. सारा दिन फॉरवर्ड किया हुआ चुट्कुला, ज्ञान का बात अऊर बिदेसी वीडियो, चाहे राजनीति में इसका कमीज उसका कमीज से सफेद कैसे के संदेस से भरा रहता है.

छुट्टी में कभी पटना गये त अपना कोई दोस्त नहीं देखाई देता है, ऊ रिस्तेदार लोग भी नहीं देखाई देते हैं जिनके बिना त्यौहार त्यौहार नहीं लगता था. हो सकता है एही बात ऊ लोग भी महसूस करते होंगे. केतना लोग हमसे सिकायत किये कि हम उनके कोई समारोह में सामिल नहीं हुए. माथा नवाकर उनसे माफी माँगकर चुप हो जाते हैं. नौकरी का मजबूरी अऊर तरक्की के साथ मिलने वाला अभिसाप त भोगना ही पड़ता है.

आज एतना दिन के बाद जब अपना ब्लॉग पर आए, त ब्लॉग भी हमको लॉग-इन करने नहीं दे रहा था. बहुत समझाए बुझाए तब जाकर हमको अंदर आने दिया. अंदर जाकर देखे त लगबे नहीं किया कि हमरा अपना घर है. सबकुछ बदला हुआ, गोड़ थरथरा रहा था अऊर आवाज काँप रहा था. एक साथ नौ साल पुराना लोग का तस्वीर दीवार पर देखाई देने लगा, सबका बात सुनाई देने लगा, बिछड़ा हुआ लोग याद आने लगा. ई बात नहीं है कि लोग बदल गया है, लोग आज भी ओही हैं, ऊ लोग से सम्बंध भी ओही है, लेकिन ऊ जगह जहाँ प्रेम से बइठकर बतियाते थे, ऊ जगह बदल गया.

कोसिस फिर से लौट आने का है... देखें केतना निबाह हो पाता है. 
आज हमारे ब्लॉग का जनमदिन है भाई!!

फिलहाल त बड़े भाई रविंद्र शर्मा जी का सायरी दिमाग में आ रहा है:

बिना वजह किसे मंज़ूर घर से दूरियाँ होंगी
शजर से टूटते पत्तों की कुछ मजबूरियाँ होंगी

शनिवार, 23 सितंबर 2017

कृष्ण सखी - एक प्रतिक्रया

डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक ऐसा नाम है जिनके नाम से जुड़े हैं उत्कृष्ट खण्ड-काव्य, लोक गीत, हास्य-व्यंग्य, निबंध, नाटक और जुड़ी हैं कहानियाँ, कविताएँ तथा बहुत सारी ब्लॉग रचनाएँ. विदेश में रहते हुए भी हिन्दी साहित्य की सेवा वर्षों से कर रही हैं. बल्कि यह कहना उचित होगा कि चुपचाप सेवा कर रही हैं. सीमित पाठकवर्ग के मध्य उनकी रचनाएँ अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं. इनकी प्रत्येक रचना उत्कृष्टता का एक दुर्लभ उदाहरण है और भाषा वर्त्तमान में लुप्त हो चुकी है. “कृष्ण-सखी” डॉ. प्रतिभा सक्सेना का नवीनतम उपन्यास है, जिसकी प्रतीक्षा कई वर्षों से थी.

विगत कुछ वर्षों से यह देखने में आया है कि पौराणिक उपन्यासों के प्रकाशन की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. इनमें से कुछ उपन्यास/ ग्रंथ पौराणिक पात्रों और घटनाओं को लेकर काल्पनिक कथाओं के आधार पर लिखे गये हैं तथा कुछ उन घटनाओं की अन्य दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं. यह सभी उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय हुए. किंतु ध्यान देने की बात यह है कि सभी उपन्यास मूलत: अंग्रेज़ी में लिखे गये तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए उनका हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित किया गया, जो अंग्रेज़ी पाठक-वर्ग से इतर अपना स्थान बनाने में सफल हुआ.

कथानक
“कृष्ण सखी”, जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, कृष्ण और उनकी सखी मनस्विनी द्रौपदी के कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालता है. उपन्यास की कथा मूलत: महर्षि वेदव्यास रचित ग्रंथ “महाभारत” की कथा है. किंतु इसमें महाभारत की उन्हीं घटनाओं को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है जहाँ कृष्ण अथवा द्रौपदी की उपस्थिति है. अन्य घटनाओं का विवरण सन्दर्भ के रूप में अथवा उस रूप में उल्लिखित है, जिस रूप में वह घटना इनकी चारित्रिक विशेषताओं को रेखांकित करती है. मत्स्य-बेध, पाँच पतियों के मध्य विभाजन, वन गमन, सपत्नियों व उनकी संतानों का उल्लेख, कर्ण के प्रति मन में उठते विचार व द्विधाएँ, चीर हरण, कुरुक्षेत्र का महासमर, भीष्म से प्रश्न, पुत्रों की हत्या और अंतत: हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाओं के मध्य हिम समाधि... यह समस्त घटनाक्रम पांचाली के सन्दर्भ में तथा कारागार में जन्म, मातुल द्वारा वध किये जाने की आशंका में भगिनी के जीवन के दाँव पर जीवन दान पाना, राधा तथा अन्य गोपियों के साथ रास रचाना, फिर उन्हें छोड़कर द्वारका प्रस्थान करना, सखा अर्जुन को प्रेरित कर निज बहिन का अपहरण करवाना, युद्ध में सारथि तथा एक कुशल रणनीतिज्ञ की भूमिका निभाना, गान्धारी का शाप स्वीकार करना, अश्वत्थामा को शापित करना तथा एक वधिक के वाण द्वारा मृत्यु को प्राप्त होना जैसी घटनाएँ कृष्ण के सन्दर्भ में प्रस्तुत की गयी हैं.
कथा को यदि कथा के सन्दर्भ में देखें तो प्रत्येक घटनाक्रम पाठक के स्मरण में है. परंतु उन घटनाओं का प्रस्तुतीकरण उन जानी-सुनी कथा में भी एक अनोखापन उत्पन्न करता है. यही नवीनता कथा में पाठक की रुचि और उत्सुकता बनाए रखती है और पाठक को प्रत्येक स्तर पर यह अनुभव होता है कि वह इन सभी कथाओं को पहली बार पढ़/ सुन रहा है.

भाषा:
उपन्यास की भाषा पाठकों को संस्कृतनिष्ठ प्रतीत हो सकती है, किंतु मेरी दृष्टि में यह हिन्दी साहित्य की एक सुग्राह्य भाषा है. उपन्यासकार स्वयं एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं.  उनकी समस्त रचनाओं में हिन्दी साहित्य की एक सुगन्ध पाई जाती है और जिन्होंने उन्हें नियमित पढा है, उनके लिये इस भाषा की मिठास कदापि नवीन नहीं हो सकती. व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है कि जिन उपन्यासों का उल्लेख मैंने इस आलेख के प्रारम्भ में किया है, उनके हिन्दी में अनूदित संस्करण के समक्ष “कृष्ण सखी” कैलाश के शिखर सा प्रतीत होता है. मौलिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मूल्यों के आधार पर उपन्यास की भाषा एक गहरा प्रभाव छोड़ती है.
डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक कथाकार, कवयित्री, नाटककार, गीतकार और उपन्यासकार हैं. इसलिये यह उपन्यास पढते हुए पाठक को इन सभी विधाओं की यात्रा का अनुभव प्राप्त होता है. जहाँ भाषा की सरसता और बोधगम्यता इसे एक काव्य का प्रवाह प्रदान करती है, वहीं दृश्यांकन एवं सम्वादों की सुन्दरता एक नाटकीय चमत्कार से कम नहीं है. 

शैली:
प्लेटो की महान रचना “रिपब्लिक” में जिस प्रकार प्लेटो ने अपने गुरु सुकरात के साथ हुये सम्वादों के माध्यम से एक दार्शनिक एवं राजनैतिक विचारधारा का प्रतिपादन किया है, ठीक उसी प्रकार इस उपन्यास में भी कृष्ण और पांचाली के सम्वादों के माध्यम से उन दोनों के कुछ अप्रकाशित चारित्रिक पहलुओं को प्रकाश में लाने की चेष्टा की गयी है. कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तथा कुछ नयी व्याख्याएँ भी इन सम्वादों के माध्यम से मुखर होती हैं. ऐसा प्रतीत होता है मानो कृष्ण और पांचाली मूल ग्रंथकार एवं वर्त्तमान उपन्यासकार के प्रभाव से मुक्त होकर अपने मन की बात एक दूसरे से व्यक्त रहे हैं और एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों. रचनाकार का प्रवेश मात्र उन परिस्थितियों में है जहाँ पाठकों के समक्ष पात्रों से विलग होकर कोई बात कहानी हो. द्रौपदी और कृष्ण के प्रश्नों के माध्यम से प्रतिभा जी ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर और भ्रांतियों के स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये हैं जो भिन्न भिन्न कालखण्ड में हम सबके मस्तिष्क में जन्म लेते रहे हैं.
उपन्यास एक रोमांचक चलचित्र का प्रभाव उत्पन्न करता है और दृश्यों का समायोजन इतना उत्कृष्ट है कि घटनाएं शब्दों के नहीं, चित्रों के माध्यम से मस्तिष्क में स्थान बनाती जाती हैं.

केन्द्रीय भाव:
उपन्यास का मुख्य उद्देश्य योगेश्वर कृष्ण और मनस्विनी द्रौपदी के विषय में जन साधारण में प्रचारित भ्रांतियों का उन्मूलन करना है. सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम इस कारण नहीं कहा जाता कि उन्होंने पिता की आज्ञा मानी, युवराज होते भी राज्याभिषेक से वंचित रहे, वन के दुःख सहे, पत्नी का त्याग किया, संतान का वियोग सहा, अपितु इस कारण कहा जाता है कि जीवन में इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों को सहकर भी उन्होंने कभी दुःख का भाव अपने मुख पर नहीं आने दिया.
“कृष्ण सखी” में भी कृष्ण की प्रचलित छवि को खंडित किया गया है. प्रतिभा जी ने बताया है कि गोपियों के वस्त्र छिपा लेने के पीछे यह कारण था कि वे उन्हें उनके शील की रक्षा और उनकी तबिक भी त्रुटि से सम्पूर्ण समाज अभिशप्त न हो जाए (जैसा कि कंस के जन्म से हुआ) का पाठ पढ़ाना चाहते थे, सोलह हज़ार राजकुमारियों को मुक्त करवाकर उनसे विवाह कर समाज में उन्हें सम्मान दिलाया. यही नहीं वह कृष्ण जिनको कारागार में जन्म के साथ ही माता से विलग कर दिया गया और गोकुल में लालन पालन मिला, उसके जीवन के लिये भगिनी का जीवन बलिदान किया गया, निज बहिन सुभद्रा का अपहरण उसे योग्य वर दिलाने के लिये और दुराचारी से बचाने के लिये किया, युद्ध में शस्त्र न उठाने का प्रण भी भंग करना पड़ा. स्वयं लेखिका के शब्दों मे – उनका जीवन संघर्षों में बीता. सबके प्रति जवाबदेह बनकर भी नितांत निस्पृह, निर्लिप्त और निस्संग बने रहे.
दूसरी ओर मनस्विनी द्रौपदी एक आदर्श नारी का प्रतिनिधित्व करती है. प्रश्न करती है, उत्तर मांगती है और भीष्म तथा धर्मराज से अपने प्रति हुए व्यवहार का न्याय चाहती है. और इन सबके लिये वो भिक्षा नहीं मांगती, बल्कि अधिकार चाहती है. मनस्विनी द्रौपदी के चित्रण में लेखिका ने कहीं भी आक्रामक नारीवादी अभिव्यक्ति का प्रयोग नहीं किया है, अपितु स्वाभाविक एवं न्यायसंगत प्रश्नों और तर्कों का सहारा लिया है. “कृष्ण जैसा मित्र है उसका टूटता मनोबल साधने को, विश्वास दिलाने को कि तुम मन-वचन-कर्म से अपने कर्त्तव्य पथ पर डटी रहो तो कोई बाधा सामने नहीं टिकेगी.” पांचाली का चरित्र एक गौरवमयी ,यशस्विनी और समर्थ नारी को रूप में कृष्ण सखी के अर्थ को चरितार्थ करता है.

अंत में:
उपन्यास का कलेवर आजकल जिस प्रकार के उपन्यास बाज़ार में उपलब्ध है उसके समकक्ष रखने का प्रयास प्रकाशक “शिवना प्रकाशन” द्वारा किया गया है. आवरण चित्र मनस्विनी द्रौपदी को पारम्परिक रूप में दर्शाता है, जबकि उपन्यास की माँग उसके सर्वथा विपरीत है. चित्रकार द्रौपदी की विशेषताओं से नितान्त अनभिज्ञ है, उसकी विपुल केश-राशि के स्थान पर दो-चार लटें दिखा कर दीनता में और वृद्धि कर दी है, केशों से आच्छादित हो कर वह अधिक गरिमामयी और वास्तविक लगती . ग्राफिक्स की मदद कम ली गई है जिसके कारण आवरण थोड़ा फीका दिखता है.
पौने तीन सौ पृष्ठों के इस उपन्यास का मूल्य रु.३७५.०० हैं, जो बाज़ार के हिसाब से अधिक है. मैंने इस उपन्यास की मूल पांडुलिपि पढ़ी है, इसलिए दावे के साथ कह सकता हूँ की प्रकाशक ने पुस्तक “प्रकाशित” नहीं की है बल्कि “छाप दी है”. क्योंकि अनुमानतः ९०% पृष्ठों में वाक्य एक पंक्ति में बिना विराम चिह्न के समाप्त होता है तथा दूसरी पंक्ति में विराम चिह्न से आरम्भ होता है. टंकण की त्रुटियाँ जैसी पांडुलिपि में थीं हू-ब-हू उपन्यास में भी देखी जा सकती हैं. संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि प्रूफ-रीडिंग की ही नहीं गई है.  
उपन्यास में सबसे निराश करने वाली बात यह है कि रचनाकार की ओर से कोई वक्तव्य नहीं है – यथा उपन्यास की रचना प्रक्रिया, रचना के सृजन का मुख्य उद्देश्य, पाठकों के नाम सन्देश, आभार आदि. लेखिका की ओर से यह पुस्तक कृष्ण भगवान को समर्पित है. पुस्तक के प्रारम्भ में उपन्यासकार का परिचय या भूमिका या किसी अन्य साहित्यकार, मित्र अथवा सहयोगी द्वारा नहीं दिया गया है.

आजकल जितने भी उपन्यास “बेस्ट सेलर” की श्रेणी में आते हैं, उनसे यह उपन्यास कहीं भी उन्नीस नहीं है, लेकिन अप्रवासी लेखक के लिये एक प्रबंधन टीम द्वारा पुस्तक का विज्ञापन अथवा मार्केटिंग करना संभव नहीं, इसलिए यह उपन्यास, उपन्यास न होकर एक शृंखलाबद्ध ब्लॉग पोस्ट का पुस्तक संस्करण भर होकर न रह जाए इसका दुःख होगा मुझे व्यक्तिगत रूप से. 

रविवार, 2 जुलाई 2017

यादों की मिठास - भावनगर डायरीज़

वो एक अधेड़ उम्र की औरत थी. अव्यवस्थित कपड़े, बिखरे हुये खिचड़ी बाल, माथे पर तनाव के कारण उत्पन्न शिकन, भृकुटि तनी हुई, आँखें चौकन्नी और दृष्टि सन्देह से भरी. इस सन्देह में एक असुरक्षा का भाव भी छिपा हुआ स्पष्ट दिखाई देता था. हाथों में एक मैली-कुचैली थैली लिये और उसे सीने से ऐसे लगाए मानो अपने जीवन भर की जमा-पूँजी दुनिया से बचाकर सहेजते हुये घूम रही हो. 
मैंने देखा कि उसने हमारी शाखा में शीशे का दरवाज़ा धकेलकर प्रवेश किया और चौंकन्नी नज़र पूरे परिसर पर डाली. फिर धीरे-धीरे काउण्टर पर राहुल के पास पहुँची. “मुझे इस खाते में से पैसे निकालने हैं” कहते हुये उसने बैंक की पास-बुक निकालकर राहुल को थमा दी. राहुल ने पास-बुक देखकर उससे कहा, “यह दूसरे बैंक का खाता है. इस खाते से पैसे यहाँ नहीं निकल सकते. आप उस बैंक में जाइये जहाँ ये खाता है.”
”इस खाते में पैसे हैं कि नहीं?”
”खाते में कई सालों से कोई एण्ट्री नहीं हुई है, पहले सारी एण्ट्री करवा लीजिये, तब पता चलेगा कि इसमें कितने पैसे हैं.”
वो औरत गुस्से से तमतमा गयी और बोली, “जितने पैसे हैं उतना निकाल दो.”
”ये हमारे बैंक का खाता नहीं है, इसलिये यहाँ कोई पैसा नहीं निकलेगा.”
”कैसे नहीं निकलेगा. आजकल तो मुम्बई के खाते का पैसा, दिल्ली में निकल जाता है; यह तो इसी शहर में है. क्यों नहीं निकलेगा पैसा.”
जब लगने लगा कि बात बिगड़ने वाली है, तो ऑफिसर ने उसे अपने पास बुलाया और कहा, “आप भूल से हमारी शाखा में आ गयी हैं, आपका बैंक दो मकान छोड़कर पास में ही है. आप वहाँ जाकर बताएँ तो आपको पैसे मिल जाएंगे.”
”मैं वहीं से होकर आ रही हूँ. उन लोगों ने कहा है कि इसमें पैसे नहीं हैं. तुम अपने कम्प्यूटर में देखकर बताओ कि इसमें पैसे हैं कि नहीं.”
”माता जी! हमारे कम्प्यूटर में केवल हमारे बैंक के खातों का हिसाब दिखाई देता है. दूसरे बैंक का नहीं.”
”तुम सब लोग मिले हुये हो और जानबूझकर मुझे परेशान कर रहे हो और मेरा पैसा चुरा लेने का इरादा है तुम लोगों का.”
उस महिला क स्वर इतना तीव्र हो चला था कि मुझे अपने कक्ष से उठकर बाहर आना पड़ा. मैं उस महिला को अपने कक्ष में ले गया और समझाने की कोशिश की. लेकिन उसने जैसे न समझने की कसम खा रखी थी.
थोड़ी देर बाद मैं उस महिला को लेकर बाहर निकला और उसे पास वाले बैंक की शाखा में ले गया और उस बैंक के प्रभारी श्री राजेश मेहता से मिलने उनके कक्ष में गया. जब मैंने उस महिला की पास-बुक दिखाई तो मेहता जी मुस्कुराकर बोले, “अच्छा तो वो आपके बैंक में गयी थी!”
”क्यों क्या बात है?”
”सर! उस औरत का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है. उसके हाथ उसके घर में रखी कोई पास-बुक लग गयी है और वो हर दूसरे-तीसरे दिन यहाँ के सभी बैंकों में जाकर पैसा निकालने की बात कहती रहती है.”
पूरी बात जानकर मैंने उसे समझाया, ”अभी आपका पैसा नहीं आया है. मैंने यहाँ के मैनेजर साहब को कह दिया है कि वो आपको परेशान नहीं करें. जैसे ही आपका पैसा आएगा, वो आपको दे देंगे.”
और वो औरत लौट गयी. हमलोग भी अपने-अपने काम में व्यस्त हो गये. हम सभी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि उस महिला का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है, इसलिये वो इस तरह की बातें कर रही थी.
अभी दो चार दिन भी नहीं बीते होंगे कि वो फिर से आ धमकी. फिर से काउण्टर पर वही सारी घटनाएँ दोहराई गईं. इस बार वो अधिक क्रोधित थी, क्योंकि उसने पूरी बैंकिंग व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया था. काउण्टर पर अन्य ग्राहकों का काम प्रभावित न हो, इसलिये मैं उस महिला को पुन: अपने कक्ष में ले गया और समझाने लगा. वो महिला मुझपर गुस्सा होकर बिगड़ रही थी, हवा में पास-बुक घुमा रही थी और मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था. अपनी ओर से मैंने कुछ भी कहने की कोशिश नहीं की, बस सिर हिलाटा रहा. चार-पाँच मिनट के इस तूफ़ान के बाद वो महिला शाखा से चली गयी.
भोजनावकाश के समय राहुल ने कहा, ”सर! आप क्यों उसको अपने केबिन में जाने देते हैं. उसे चले जाने को क्यों नहीं कहते. बिना मतलब वो आपको इतना कुछ कह-सुनकर चली जाती है, जबकि हमरा उससे कोई लेना देना भी नहीं.”
सभी स्टाफ-सदस्यों ने एक सुर में यही बात दोहराई और ये भी कहा कि आइन्दा वो शाखा में आई तो उसे अन्दर नहीं घुसने दिया जाएगा. सबकी बात सुनने के बाद मैंने कहा. ”आपलोगों की भावना का मैं सम्मान करता हूँ. लेकिन उस महिला के साथ कोई दुर्व्यवहार करने की न तो स्थिति है, न आवश्यकता. मैं उसे सम्भाल लूँगा.”
खैर, उसके बाद नियम हो गया कि हर हफ्ते-दस दिन पर वह औरत आती और ऊपर अपना सारा गुस्सा निकालकर चली जाती. मैं चुपचाप उसकी बात सुनता और मेरे कहने पर सब लोग उसे एक साधारण सी घटना ही मानकर चुप रह जाते.
एक दिन जब वह महिला अपना क्रोध-प्रकरण समाप्त कर शाखा से विदा हुई, तो मैंने सभी को बुलाया और बताया, “जानते हैं, इसके साथ क्या हुआ है! इसके पति की मृत्यु के पश्चात, इसके बच्चों ने इसके सारे पैसे इससे छीन लिये और इसे घर से निकाल दिया. यह लाचार मज़दूरी करती हुई अपने दिन काटने लगी और इसी सदमे से इसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया. घर छोड़ते समय उसके हाथ बस यही एक पास-बुक लगी, जिसके बदले में उसे कोई पैसा नहीं मिला सिर्फ दुत्कार मिली हर तरफ से. इसे बैंक का हर आदमी इसके ख़िलाफ़ साज़िश करता प्रतीत होता है. वो मेरे सामने अपने दिल की तमाम शिकायतें निकालकर चली जाती है.”
कुछ दिनों बाद वो महिला फिर से शाखा में आई. सामान्य सी दिख रही थी उस दिन. उसने फिर थैली खोली. लेकिन इस बार उसकी थैली से पासबुक नहीं, एक छोटा सा टिफ़िन निकला. उसने टिफिन खोलकर मेरे सामने कर दिया. उसमें चीनी भरी थी. बोली, “तुम मुँह मीठा करो. जितने प्यार से तुमने मुझसे बात की है, उतनी आज तक किसी ने नहीं की. सब दुत्कार कर भगा देते हैं.”
उन चीनी के दानों की मिठास आज ताज जुबान पर बसी है.

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

एक शीतल बयार - सुधांशु फ़िरदौस की कविताएँ

पिछले कुछ समय से सोचा कि लिखने से अवकाश लेकर कुछ पढना चाहिये. और इस विचार के साथ ही जो पहली रचनामाला मेरे सामने आई वो एक युवा कवि की है. इन्हें बहुत समय से पढता रहा हूँ और सहज ही अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता रहा. किंतु इन प्रतिक्रियाओं से परे, यह दुबला-पतला, किंतु गहन और गम्भीर कविताओं का सृजन करने वाला कवि धीरे-धीरे मेरे हृदय में स्थान बनाता चला गया. भोजपुरी के लोककवि भिखारी ठाकुर के शब्दों में कहूँ तो,

तीस बरिस के भईल उमिरिया, तब लागल जिव तरसे
कहीं से गीत, कबित्त कहीं से, लागल अपने बरसे!


इस कवि की जितनी भी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं, उन्हें पढ़कर यही लगता है कि कविता एक टीस बनकर इस रचनाकार के मन में उभरी है और ऐसे में कहाँ से गीत और कहाँ से कविताएँ बरसने लगीं यह शायद उस कवि को भी नहीं पता होगा. उस युवा कवि का नाम है सुधांशु फ़िरदौस.” अपने ब्लॉग समालोचन पर उनकी कविताएँ प्रस्तुत करते हुए श्री अरुण देव उनका परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं:

सुधांशु फ़िरदौस की कविताओं में ताज़गी है. इधर की पीढ़ी में भाषा, शिल्प और संवेदना को लेकर साफ फ़र्क नज़र आता है. धैर्य और सजगता के साथ  सुधांशु कविता के पास जाते हैं. बोध और शिल्प में संयम, संतुलन और सफाई  साफ बताती है कि उनकी कितनी तैयारी है. ये क्लासिकल मिजाज़ की कविताएँ हैं, पर तासीर इनकी अपने समय के ताप से गर्म हैं.

यहाँ उनकी कुल आठ कविताएँ पाठकों के समक्ष हैं, जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा गया है - तीन शीर्षक के अंतर्गत.

मुल्क है या मक़तल – यहाँ दो कविताएँ राष्ट्र के प्रबंधन से एक प्रश्न करती हैंजबकि प्रश्नकर्त्ता को उसका उत्तर ज्ञात है और यही छटपटाहट है उसकी. यह प्रश्न हर अवाम का है अपने मुल्क के हुक्काम से.

ये आड़ी-तिरछी सी लकीरें
जिनसे बने हुए दायरे को हम मुल्क कहते हैं 
जहाँ आज़ादी के लिये रूहें तडपती
कैदखाने नहीं तो और क्या हैं?
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क्या नफासत से चाबुक मारते हैं हुक्काम
मज़ा आ रहा है कहते हैं अवाम!

और फिर 
हुकूमत का कोई भी अदना सा फैसला 
मामूली सा फरमान 
काफी है आपको ताउम्र करने को हलकान

आम तौर पर व्यवस्था से पीड़ित जनता का दर्द व्यक्त करते हुये लोग कटाक्ष या उपालम्भ का सहारा लेते हैंकिंतु सुधांशु जी ने अपनी कविताओं में एक छिपी हुई करुणा का सहारा लिया है. यही नहींयह कविता किसी व्यवस्थादल या सरकार विशेष की बात नहीं कहतीयह एक आदर्श समाज की बात कहने की इच्छा और न कह पाने की विवशता को दर्शाती है.

इसके बाद शरदोपाख्यान के अंतर्गत पहली चार कविताएँ शीतकाल की धूपदिवससंध्या और शरद पूर्णिमा की रात्रि के शब्द-चित्र ही नहींकिसी बच्चे की बनाई ऐसी पेंटिंग की तरह है जो वह हाथ में कूची पकड़ते ही बनाना शुरू करता है – यानि एक ग्रामीण कैनवस पर शरद ऋतु का एक अनोखा चित्रांकनजहाँ रंगों में एक नयापन हैदृश्यों में एक परम्परागत आकर्षण है और इनसे उत्पन्न होने वाला प्रभाव मुग्ध कर देता है साथ ही प्रवासियों को इस बात का एहसास दिलाता है कि उन्होंने क्या खोया है.

खिली है शरद की स्वर्ण सी धूप
कभी तीखी कभी मीठी आर्द्रताहीन शुष्क भीतरघामी धूप
माँ कहा करती थी चाम ही नहीं 
हड्डियों में भी लग जाती है धूप 
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इस लापरवाह धूप के भरोसे ही 
ओल, अदरख, आलू, आंवला, मूली के 
रंग बिरंगे अचारों के मर्तबानों से सज जाती हैं छतें
सज जाते हैं आँगन

जिसे लग जाए ये धूप 
उसके माथे में कातिक-अगहन तक उठाता रहता है टंकार 
जो बच गए उनके मन को शिशिर-हेमंत तक उमंग भरती
नवरात्र के हुमाद से सुवासित करती रहती है ये धूप

और इन कविताओं के अंत में एक कविता महानगर को समर्पित. जहाँ शरद पिछली कविताओं की तरह शरीर को नहीं ठिठुराता, बल्कि वातानुकूल कक्ष में सिर्फ़ कैलेण्डर के बदलते एक महीने का एहसास भर करवा रहा होता है.


लोग व्यस्त हैं सप्ताहांत के जलसों में 
या पड़े हैं टेलीवीज़न देखते बिस्तर पर निढाल 
जाने किसके खीर से भरे भगोने में गिरेगी अमृत बूँद 

और अंत में एक लम्बी कविता कालिदास का अपूर्ण कथा गीत. इसे पढना और एक-एक शब्द को अपने अंतस में उतारते जाना, एक ऐसा अनुभव है मानो शब्द अमृतकण की तरह कण्ठ से उतर रहे हैं और अश्रु बनकर आँखों से अविरल बह रहे हैं. इस लम्बी कविता को कवि का आत्मकथ्य तथा कवि और कविता का अंतर्द्वंद्व कह सकते हैं. इस कविता के विषय में कुछ भी कह पाने के लिये मैं स्वयम को कदापि समर्थ नहीं पाता. आज जितनी कविताएँ लिखी जा रही हैं, उन रचनाकारों को केवल एक बार ईमानदारी से यह कविता पढ़ना अनिवार्य मानता हूँ मैं. एक कवि की महायात्रा का एक प्रभावशाली, भावपूर्ण तथा सम्वेदनशील वृत्तांत...


ज्ञान ही नहीं अर्जित करना होता 
बचानी होती है स्निग्धता और प्रांजलता भी
कला-कर्म की शुरुआत होती है सबसे पहले सहृदयता से 
कवि न रचे एक भी मूल्यवान पंक्ति
लेकिन सहृदयता का त्याग कवि के स्वत्वा का त्याग है
कोई नहीं जानता प्रसिद्धि गजराज पर चढकर आएगी या गर्दभ पर 

या फिर


कोई नहीं जानता है कहाँ से आता है कालिदास
कोई नहीं जानता कहाँ को चला जाता है कालिदास
हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन
जहाँ पहुँच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ
वहीं उतरती हैं पारिजात-सी सुगन्धित 
स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकती 
मेघदूत की पंक्तियाँ
उसके बाद केवल किम्वदंतियाँ
जनश्रुतियाँ...

सुधांशु फ़िरदौस जी की कविताओं की भाषा स्वत: अंतर्मन से प्रस्फुटित भाषा है जो कहीं संस्कृतनिष्ठ है तो कहीं उर्दू से प्रभावित, किंतु यह सब उतना ही सहज है, जितनी सहजता से उन्होंने उन कविताओं को जिया है.

टॉल्स्टॉय के अनुसार – कोई कृति चाहे कितनी ही कवितामयी, कौतूहलजनक या रोचक क्यों न हो, वह कलाकृति नहीं हो सकती, यदि कलाकार अपनी कला से दूसरों को प्रभावित न करता और स्वयम आत्मविभोर नहीं होता.

और विश्वास कीजिये गणित के इस शोधार्थी की रचनाएँ एक बेहतरीन समीकरण है पाठकों को प्रभावित करने और आत्मविभोर होकर कविता के सृजन करने का.

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

दाँतों की डॉक्टरनी

हर रोज़ घूमते-फिरते न जाने कितने लोग मिलते हैं. किसी के साथ कोई रिश्ता निकल आये तो उससे दो बातें भी हो जाती हैं और कितने तो बस कुछ दूर साथ चलकर अपने रास्ते निकल जाते हैं. ये बोलने-बतियाने वाले या चुपचाप निकल जाने वाले भी अपने अन्दर कितनी कहानियाँ और क़िस्से छिपाये रहते हैं, कौन जाने. ज़रा सा कन्धे पर हाथ रख दो या प्यार से पूछो – कैसे हो दोस्त, तो हज़ारों दास्तानें फूट पड़ती हैं.

ऐसे ही एक रोज़ फेसबुक पर एक पोस्ट में अभिषेक ने एक मोबाइल ऐप्प के ज़रिये, एक महिला डेण्टिस्ट का ज़िक्र किया. जैसा कि हमेशा उसके साथ होता है, उसके तमाम दोस्तों ने इस घटना को एक मज़ाकिया शक्ल देकर उसकी चुटकी लेनी शुरू कर दी. पोस्ट देखकर दो किरदार मेरे दिमाग़ में उभरे. मैंने भी चुटकी लेते हुये एक मरीज़ और डेण्टिस्ट की बातचीत पोस्ट की. मक़सद था अभिषेक के साथ चुहलबाज़ी करना. इसको एक थर्ड परसन का फ़्लेवर देने के लिये, इसे एक उपन्यास का अंश बता दिया. लोगों की प्रतिक्रियाएँ देखते हुये ये सिलसिला दो चार पोस्ट तक चला. जिसमें अलग-अलग तरह की बातें थीं; बेमक़सद, बेतरतीब.

इसी बीच जब गिरिजा दी को यह पता चला कि ये किसी उपन्यास का टुकड़ा नहीं, बल्कि मेरी रचना है तो उन्होंने मुझसे कहा कि सम्वाद अच्छे हैं, लेकिन इसमें कहानी नदारद है. अब कहानी लिखना तो मेरे बस की बात नहीं थी. सो मैं घबरा गया. रोज़ कुछ न कुछ लिखकर बतौर फेसबुक स्टैटस पोस्ट तो किया जा सकता है, लेकिन कहानी लिखने के लिये बहुत सी बातों का होना ज़रूरी है, जो मुझमें बिल्कुल नहीं. एक घटना को संस्मरण के रूप में तो मैं प्रस्तुत कर सकता हूँ, लेकिन एक काल्पनिक घटना बुनना मेरे लिये असम्भव था. ऐसे में पीछे लौटना भी मुमकिन नहीं था मेरे लिये.

यही नहीं, एक और समस्या ये थी कि अब मेरे किरदार भी मेरे बस में नहीं थे. वे पूरे के पूरे घटना में ढल गये थे. अगर इस तरह बीच रास्ते में उन्हें छोड़ देता तो वो मेरी रातों की नींद हराम कर देते. मुझसे रातों को जगा कर सवाल करते कि “कश्ती का साहिल होता है, मेरा भी कोई साहिल होगा” तो क्या जवाब देता. एक कहानी के किरदार इस तरह बेदखल हो जाएँ कहानी से तो कभी माफ़ नहीं करते और ऐसे में मैं दुनिया भर की बद्दुआ तो सह सकता हूँ अपने पात्रों की क़तई नहीं.

फेसबुक पर मेरी पोस्ट कोई नहीं पढ़ता और उसपर कमेण्ट करना तो बिल्कुल ही ज़रूरी नहीं समझता. फिर भी कुछ लोग इससे जुड़े, इसे पढ़ा और बहुत मज़ेदार प्रतिक्रियाएँ दीं. इससे एक फ़ायदा ये हुआ कि मुझे एक रास्ता मिल गया; एक सिरा, जिसे पकड़कर मैं इस बेतरतीब से सिलसिले को “कहानी” का नाम दे सकता था. लोग कहानी का अनुमान लगाते गये, मैं कहानी में बदलाव लाता गया और प्रतिक्रियाओं की भीड़ में बदन समेटे कहानी आगे बढ़ती रही.
सिर्फ दो पात्रों से शुरू हुए सिलसिले में प्रियंका की ज़िद के कारण एक नया कैरेक्टर दाख़िल हुआ और फिर कहानी की माँग के हिसाब से दो और ज़रूरी कैरेक्टर शामिल हुये, जिसमें से एक इस पूरी कहानी का केन्द्रीय पात्र था, जबकि कुछ लोग सिर्फ़ ज़िक्र में शामिल रहे. कहानी का यह फ़ॉर्मैट मुझे हमेशा से पसन्द रहा है, हो सकता है कि कहानियाँ पढ़ते समय उन्हें विज़ुअलाइज़ करना और उनका ड्रामेटाइज़ेशन मुझे हमेशा सहज लगता रहा है. माँ प्रतिभा सक्सेना ने जबसे अपने ब्लॉग पर “कथांश” शीर्षक से एक धारावाहिक कथा-शृंखला प्रस्तुत की थी, तब से यह विचार मेरे दिमाग़ में समाया था. माँ के कहने पर उनकी एक पूरी पोस्ट मैंने अपनी तरह से लिखी थी, जिसे उन्होंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट भी किया था. तो ये स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि इस शृंखला की जननी डॉ. प्रतिभा सक्सेना हैं.  

जहाँ तक शुरुआती पोस्ट में दाँतों के ईलाज में दंत-चिकित्सा से जुड़े तथ्यों का प्रश्न है, उसके लिये आवश्यक जानकारी अभिषेक और मेरी सहयोगी सुश्री सरोज चौधरी ने उपलब्ध करवाई. रश्मि प्रभा दी, अंशुमाला, सुमन पाटिल, अर्चना तिवारी, प्रियंका गुप्ता, निवेदिता, वन्दना दी, वाणी, श्री मनोज भारती, डॉ. सुशील त्यागी और देवेन्द्र पाण्डेय जी ने समय समय पर अपनी कीमती टिप्पणियों के माध्यम से मुझे रास्ता दिखाया. मेरी बहन विनीता, भाई शशि प्रिय, बहु अनुपमा और पौत्री अभिलाषा के प्रोत्साहन ने बड़ा बल दिया. सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव  के ब्लॉग की टैग लाइन और ख़लील जिब्रान की एक उक्ति जो मुझे सदा से आकर्षित करती रही है, सम्वादों में पिरोकर मैंने साझा किया. चुँकि इस कथा में हर पात्र अपनी दिव्य दृष्टि से अपने भूत और भविष्य में झाँक रहा था तथा एक दूसरे से साझा कर रहा था, इसलिये भाई चैतन्य आलोक ने शीर्षक सुझाया “संजय उवाच” जो इस कथा को एक सांकेतिक अर्थ प्रदान करता है.

एक बात परमात्मा को साक्षी मानकर स्वीकार करना चाहता हूँ कि इस कहानी में सम्वादों के माध्यम से जितनी भी घटनाओं का ज़िक्र आया है, उनमें कुछ भी बनावटी नहीं है. इन सारी की सारी घटनाओं का अपने जीवन काल में साक्षी रहा हूँ मैं और जानता हूँ कि मेरे परिवार में या बाहर जो कोई भी उन घटनाओं से जुड़ा रहा है उन्हें वे बातें स्मरण हुई होंगी. जाने-अनजाने मैंने किसी को आहत किया हो तो उसके लिये भी मैं क्षमा चाहता हूँ, क्योंकि मुझे पता है कि कई जगहों पर अपने पात्रों की बातों से मैं ख़ुद आहत हुआ हूँ.


मेरे लिये कहानी लिखना एक प्रयोग था और सम्वादों के माध्यम से लिखना भी उसी प्रयोग का हिस्सा था. इसमें कितना सफल हुआ या असफल रहा यह फ़ैसला तो आपके हाथों में है. लेकिन मैंने सोच रखा था कि अपने किरदारों को आज़ाद छोड़ दूँगा ताकि वो खुलकर अपनी बात कह सकें और मेरा दखल बिल्कुल ही न हो. गुरुदेव राही मासूम रज़ा के शब्दों में मैं कोई तानाशाह नहीं कि कहानी लिखते समय अपने पात्रों के हाथ में एक डिक्शनरी थमा दूँ और हण्टर फटकारते हुये कहूँ कि तुम्हें एक भी लफ्ज़ इससे बाहर बोलने की इजाज़त नहीं है. 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

अब ठहाके लगाओ कब्र में तुम

हम त रेडियो के जमाना में पैदा हुए, इसलिए रेडियो पर नाटक करते थे, बचपने से. आकासबानी पटना के तरफ से हर साल होने वाला इस्टेज प्रोग्राम में, पहिला बार आठ साल का उमर में इस्टेज पर नाटक करने का मौका मिला. नाटक बच्चा लोग का था, इसलिए हमरा मुख्य रोल था. साथ में थे स्व. प्यारे मोहन सहाय (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सुरू के बैच के इस्नातक, सई परांजपे से सीनियर, 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' अऊर परकास झा के फिल्म 'दामुल' के मुख्य कलाकार) अऊर सिराज दानापुरी. प्यारे चचा के बारे में फिर कभी, आज का बात सिराज चचा के बारे में है.

देखिए त ई बहुत मामूली सा घटना है, लेकिन कला का व्यावसायिकता अऊर कलाकार का बिबसता का बहुत सच्चा उदाहरन है. सिराज चचा एक मामूली परिबार से आते थे, अऊर उनका जीबिका का एकमात्र साधन इस्टेज पर कॉमेडी सो करना था. इस्टैंड-अप कॉमेडी के नाम पर आज टीवी में जेतना गंदगी फैला है, उससे कहीं हटकर. स्वाभाविक अऊर सहज हास्य उनका खूबी था. खुद को कभी कलाकार नहीं कहते थे, हमेसा मजदूर कहते थे. बोलते थे, “एही मजूरी करके दुनो सिरा मिलाने का कोसिस करते हैं."

रेडियो नाटक का रेकॉर्डिंग के समय, रिहर्सल के बीच में जब भी टाईम मिलता था, ऊ सब बड़ा अऊर बच्चा लोग को इस्टुडियो के एक कोना में ले जाकर, अपना कॉमेडी प्रोग्राम सुरू कर देते थे. सबका मनोरंजन भी होता था, अऊर रिहर्सल बोझ भी नहीं लगता था. सिराज चचा सीनियर कलाकार थे, इसलिए उनको आकासबानी से 150 रुपया मिलता था, अऊर हम बच्चा लोग को 25 रुपया.

एक बार रिहर्सल के बीच पुष्पा दी (प्रोग्राम प्रोड्यूसर अऊर हमरी दूसरी माँ, जिनका बात हम अपना परिचय में कहे हैं) सिराज चचा को उनका रोल के लिए एगो खास तरह का हँसी निकालने के लिए बोलीं. ऊ बिना पर्फेक्सन के किसी को नहीं छोड़ती थीं. पहिला बार ऊ सिराज चचा से झल्ला गईं. बोलीं, “सिराज भाई! क्या हो गया है आपको. कुछ जम नहीं रहा.सिराज चचा ने हँसी का बहुत सा सैम्पल दिखाया. लेकिन पुष्पा दी को कोई भी मन से पसंद नहीं आया. आखिर बेमन से रिहर्सल हुआ अऊर रेकॉर्डिंग का टाईम आया.

सिराज चचा, बीच में अपना चुटकुला लेकर सुरू हो गए. ओही घड़ी एगो लतीफा पर सब लोग हँसने लगा, अऊर सिराज चचा भी अजीब तरह का हँसी निकाल कर हँसने लगे. माइक ऑन था, इसलिए आवाज कंट्रोल रूम में पुष्पा दी को भी सुनाई दिया. ऊ भाग कर इस्टुडियो में आईं, अऊर बोलीं, “सिराज भाई! यही वाली हँसी चाहिए मुझे."

लेकिन इसके बाद जो बात सिराज चचा बोले, ऊ सुनकर पूरा इस्टुडियो में सन्नाटा छा गया, दू कारन से. पहिला कि पुष्पा दी को कोई अईसा जवाब देने का हिम्मत नहीं कर सकता था अऊर दुसरा, एगो मजाकिया आदमी से अईसा जवाब का कोई उम्मीद भी नहीं किया था. सिराज चचा जवाब दिए, “दीदी! आप उसी हँसी से काम चलाइए. क्योंकि यह हँसी डेढ़ सौ रुपए में नहीं मिलती है, इसकी क़ीमत पाँच से छः सौ रुपए है." एतना पईसा ऊ अपना इस्टेज प्रोग्राम का लेते रहे होंगे उस समय.

रेकॉर्डिंग हुआ, अऊर सिराज चचा ने अपना ओही डेढ़ सौ रुपया वाला हँसी बेचा. एगो कलाकार का कला दिल से निकलता है, लेकिन पहिला बार महसूस हुआ कि पेट,  दिल के ऊपर भारी पड़ जाता है.

एक बार हम दुनो भाई रात को रिहर्सल के बाद घर लौट रहे थे. हमलोग के साथ सिराज चचा भी थे. हमलोग पैदल चल रहे थे, ओही समय एगो आदमी साइकिल पर पीछे से आता हुआ आगे निकल गया. आझो याद है हमको कि ऊ आदमी सिगरेट पी रहा था अऊर जोर-जोर से कुछ बड़बड़ाता जा रहा था. हम दुनो भाई हंसने लगे. मगर सिराज चचा बहुत सीरियसली बोले कि हँसो मत, वो ‘पैदायशी आर्टिस्ट’ है. और कमाल का बात ई है कि कोनो अपने आप से बात करने वाला आदमी को देखकर आझो हमारे परिबार में ई मुहावरा सबलोग बोलता है.

जब पटना में दानापुर हमारा पोस्टिंग हुआ त पता चला कि उनका अकाउंट हमारे बैंक में है अऊर जब ऊ हमको देखे तो उनको बिस्वास नहीं हुआ कि जो बच्चा उनके साथ एक्टिंग करता था, आज एतना बड़ा हो गया है. पहिला बार जब मिले तो बहुत दुआ दिए.



आज से छौ साल पहिले ई पोस्ट का पहिला हिस्सा हम लिखे थे अपना ब्लॉग पर, तब सायद अपना बहुत सा याद में से कुछ याद सेयर करते हुए. जहाँ तक याद आता है हम अपना कोई भी पुराना पोस्ट नहीं दोहराए होंगे, लेकिन ई पोस्ट को दोहराने का कारन एही रहा कि आज सिराज चचा हमारे बीच नहीं रहे. व्हाट्स ऐप्प पर पटना से एगो अखबार का क्लिपिंग मिला जिसमें उनके मौत का खबर था. सिनेमा के तरह बहुत सा टाइम जो उनके साथ बिताए थे, याद आ गया. परमात्मा उनको जन्नत बख्से!