‘बातों वाली गली” का कर्ज़ चुकाने का मौक़ा “अटकन चटकन” ने दे दिया, हालाँकि इसमें भी व्यक्तिगत व्यस्तताओं और परेशानियों के कारण महीने भर से ज़्यादा का समय निकल गया। यह उपन्यास लिखा है श्रीमती वंदना अवस्थी दुबे ने और इसके प्रकाशक हैं शिवना प्रकाशन। कुल जमा 88 पृष्ठों का यह उपन्यास मेरी नज़र से देखें तो एक रोशनदान है जिससे झाँकते हुए मैं उन गलियों का सफ़र तय कर पाता हूँ जिसके बारे में गुलज़ार साहब ने अपनी एक नज़्म में कहा था – छोड़ आए हम, वो गलियाँ!
उपन्यास का ताना बाना उस शहर या गाँव के इर्द-गिर्द है जिसका नाम वंदना जी ने ग्वालियर या झाँसी भले लिखा हो, लेकिन वह आज से मात्र चार पाँच दशक पहले का कोई भी गाँव या शहर हो सकता है और स्थान उस गाँव या शहर के एक सम्पन्न खेतिहर परिवार की हवेली। एक ऐसी हवेली जिसमें दालान है, आँगन है, रसोई है, छत है, कई कमरे हैं और बहुत सारे लोग बसते हैं। इस उपन्यास की कहानी दालान को छोड़कर (ज़रूरत के समय थोड़ा बहुत इण्टरफ़ेरेंस को छोड़कर) बाक़ी तमाम जगहों की हैं , इसलिए इसके किरदार औरतें और बच्चे हैं। उपन्यास को पढ़ते हुए हमारी उम्र के सभी लोगों को ऐसा लगता है कि वे अपनी दादी, बुआ, मौसी, चाची, काकी और शायद अपनी माँ से मिल रहे हैं।
उपन्यास की केंद्रीय पात्र सुमित्रा जी और कुंती हैं, जिन्हें वंदना जी ने अपने पिता जी के साथ यह उपन्यास समर्पित भी किया है। सुमित्रा के साथ ‘जी’ का और कुंती के साथ सिर्फ नाम का सम्बोधन क्यों किया गया है यह बात उन्होंने स्पष्ट नहीं की। लेकिन हमारे जीवन में कुछ लोग होते ही इतने सीधे-सादे हैं कि उनको जी कहकर सम्बोधित किये बिना नहीं रहा जा सकता। सुमित्रा जी भी शायद उसी मिट्टी की बनी हुई थीं। दो सगी बहनें, लेकिन एक दूसरे की कार्बन कॉपी यानि शक्ल सूरत से लेकर सीरत तक में एक कार्बन की तरह काली और दूसरी बिल्कुल सफ़ेद। सन्योग से दोनों बहनें एक ही घर में ब्याही जाती हैं और फिर शुरू होती है महाभारत की एक शृंखला... घटना दर घटना जो मायके से लेकर ससुराल तक और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती जाती है। यह महाभारत वास्तव में संयुक्त पारिवार के बीच फलते फूलते कलह का एक ऐसा उदाहरण है, जिसके साक्षी हम सब रहे होंगे अपने बचपन में और यदि हम कहें कि हमने ऐसा कभी देखा सुना नहीं, तब या तो हम झूठ बोल रहे हैं या फिर हमने बचपन जिया ही नहीं। ख़ैर उपन्यास का अंत, जैसा कि हम सब देखना चाहते हैं, उसी तरह हुआ – और सब सुख-शांति से रहने लगे!
उपन्यास में वर्णित सारी घटनाएँ कुंती के इर्द-गिर्द घूमती हैं और उसी से जुड़े सभी किरदार सामने आते जाते हैं। इसलिये इस उपन्यास की हीरो कुंती ही है, क्योंकि इसके चरित्र के बहुत सारे शेड्स हैं, बल्कि जो भी किरदार उसके सामने आता है उसे एक नया रंग देकर जाता है और आख़िर में उन सभी रंगों को ख़ुद में आत्मसात कर, कुंती का किरदार पूरी तरह काला हो जाता है। उपन्यास की शुरुआत से ही मेरे मन में कुंती की जो छवि बनती जाती है वह है शेक्सपियेर के मशहूर नाटक ऑथेलो के पात्र इयागो की, जिसे साहित्यकार निरुद्देश्य खलनायक की संज्ञा देते हैं। कुंती भी जितने प्रपंच रचती है, उसका उद्देश्य न तो स्वयम का वर्चस्व सिद्ध करना होता है, न किसी को नीचा दिखाना, किंतु उसका परिणाम अवश्य यह होता है कि कोई भी कुंती से उलझना नहीं चाहता। इसे कम से कम मेरे विचार में न तो कुंती के झगड़ने का उद्देश्य माना जा सकता है, न उपलब्धि। और जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, लगता है कि आगे चलकर कुंती विश्वम्भर नाथ शर्मा “कौशिक” की कहानी ‘ताई’ की रामेश्वरी सी होगी। लेकिन कुंती का अनोखापन उसे कुंती के रूप में ही निखारता है जो वंदना जी की शानदार किस्सागोई की कला का प्रमाण है।
पूरे उपन्यास में कुंती के प्रपंच और षड़यंत्रों की बहुतायत है, लेकिन ग़ौर से देखा जाए तो संयुक्त परिवार के मध्य इस प्रकार चार बर्तनों के बीच ख़ड़कने की आवाज़ें होती रहने से अधिक नहीं... हाँ कभी-कभी इन बर्तनों का टकराना कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो जाता है जो काँच के टूटकर बिखरने और चुभने सा लगने लगता है और खड़कना शोर की तरह तीखा और कर्कश भी लगने लगता है। लेकिन यही तो संयुक्त परिवार के बीच की मिर्ची और शक्कर का संगम है।
“अटकन चटकन” की भाषा में बुंदेलखण्ड की चाशनी घुली हुई है, इसलिये कुंती के सम्वाद भी कानों में मिस्री घोलते हैं। हर किरदार अपनी ज़ुबान में बात करता है, जिसपर उपन्यासकार की भाषा का कोई भी प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। लेखन शैली में एक ऐसा बहाव है कि पढ़ना शुरू करते ही पाठक उपन्यास के साथ बहता चला जाता है और बिना अंत तक पहुँचे थमता नहीं। वर्णन इतना जीवंत है कि घटनाएँ काग़ज़ पर लिखे हरफों में नहीं, आँखों के सामने घटती हुई “दिखाई” पड़ती हैं... कोई व्यर्थ का वर्णन नहीं और कोई बनावटी घटनाक्रम नहीं।
“अटकन चटकन” उपन्यास श्रीमती वंदना अवस्थी दुबे के लेखन कौशल का अद्भुत नमूना है। वे अपने परिचय में कहती हैं कि उन्हें विषय के रूप में विज्ञान ही पढ़ना अच्छा लगता था, सो विज्ञान की छात्रा रहीं, स्नातक तक। एक हवेली के अंदर की दुनिया का इतना सूक्ष्म निरीक्षण इसी बात का प्रमाण है। एक विज्ञान की छात्रा का एक सामाजिक दस्तावेज़ जो परिवार के हर मनोवैज्ञानिक पहलू को उजागर करता है और जिसका नाम है – अटकन चटकन!