मंगलवार, 29 जून 2010

द्रोणाचार्य अऊर एकलव्य

जब से लिखना सुरू किए हैं, तब से केतना लोग हमको बोला कि आप का लिखने का ढंग बहुत बढिया है, एक बार सुरू करने पर एक साँस में पूरा पढ़ जाते हैं. आप सोचते होंगे कि ई सुनकर हमको बहुत खुसी होता होगा, लेकिन अईसा बात नहीं है. सच पूछिए त इसका पूरा क्रेडिट हमरे तीन गुरू को जाता है, जिनके बारे में हम कभी आप लोग से सीरियसली नहीं बतिआए हैं. लेकिन ई तीन लोगों का एतना असर हुआ है हमरे लिखने पर कि अगर लिखने का ढंग कॉपीराईट कानून के अंदर आता, त हम कबका अंदर हो गए होते. ई तीन लोग हैं डॉ. राही मासूम रज़ा, गुलज़ार साहब अऊर श्री के. पी. सक्सेना.

राही मासूम साहब का सायद ही कोनो उपन्यास होगा जो हम नहीं पढे हों. ऊ अपना एक उपन्यास के पहिला पन्ना पर लिखे थे कि इस उपन्यास में जेतना लोग चलता, फिरता, बोलता देखाई दे रहा है ऊ हमरा बनाया हुआ है अऊर अल्ला मियाँ का बनाया हुआ किसी आदमी से अगर ई मेल खाता है, त ई संजोग हो सकता है, इसमें हमरा कोई गलती नहीं है. एतना सहजता से कहा जाने वाले डिस्क्लेमर कभी सुने हैं आप लोग.. नहीं न! एही खासियत है रज़ा साहब का. नॉवेल का एक एक आदमी आपको आस पास घूमता देखाई देगा, अईसा लगेगा कि आप मिले हैं उससे. उसका पहनावा, उसका बोली. पूरा नॉवेल आपसे बतियाता हुआ मालूम पड़ता है. इसलिए भासा के बारे में सोचने का कोनो जरूरत नहीं, उनका कहना है कि हमरा किरदार अगर अश्लोक बोलेगा त हम अश्लोक लिखेंगे अऊर गाली बोलेगा त गाली. उपन्यास का भासा, वास्तव में हिंदीओ नहीं है, न उर्दूए है, न भोजपुरिए. ई बस बोली है. हमरे पिताजी के एगो दोस्त उनके रिस्तेदार थे. कहे थे कि उनके घर इलाहाबाद जब ऊ आएंगे त हमसे भेंट करा देंगे, लेकिन हमारा किस्मत में नहीं बदा था मिलना. ऊ दोबारा इलाहाबाद आइए नहीं पाए.

गुलज़ार साहब, त सम्वेदना के धनी आदमी हैं. इनका भी डायलॉग एतना सहज होता है कि कहना मुस्किल है. फिलिम ‘अंगूर’ का मजाकिया सम्बाद हो चाहे ‘गृह प्रवेश’ का साहित्यिक. ई फिल्म का डायलॉग नोट करने के लिए, हम अंधेरा में डायरी लेकर देखने गए थे सिनेमा, अऊर एक हफ्ता में तीन बार देखे थे. उम्मीद नहीं था कि चलेगा, लेकिन चल गया तीन महीना. गुलज़ार साहब का कविता अईसा अईसा प्रतीक लेकर आता है कि कहना नहीं. आम आदमी के सोच से बाहर, लेकिन सुनने के बाद लगता है कि मन का बात बोल दिए हैं. इनका त सबसे बड़ा खासियत एही है कि ई एगो अलगे डिक्सनरिए बना दिए हैं. सब्द नया लगता है लेकिन वास्तव में भुलाया हुआ सब्द होता है. हर कबिता, हर फिल्मी डायलॉग आपसे बतियाता हुआ मालूम पड़ेगा. भासा उनके हिसाब से उर्दू भी है अऊर हिंदुस्तानी भी. मुम्बई में एक बार उनका फोन नम्बर मिला दिए थे, जब ओन्ने से उनका आवाज सुनाई दिया त डरे हाथ से फोन छूट गया. तनी मनी बतिआए, मन तृप्त हो गया.

के. पी. सक्सेना जी हमरे दिल के बहुत करीब हैं, काहे कि इनके साथ हमरा बचपन जुड़ा हुआ है. इस्कूल में पढ़ते थे तब ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के पत्रिका ‘पराग’ में उनका धारावहिक कहानी छपता था “बहत्तर साल का बच्चा”. पहिला बार ओही गढ़े थे एगो अईसा करेक्टर जो “स” को “फ” बोलता था (आज ‘कमीने’ सिनेमा में लोग को ई बात नया लगता है, जो ऊ आज से तीस साल पहिले लिख दिए). देसी मुहावरा का जेतना बेहतर इस्तेमाल ऊ किए हैं, सायदे कहीं देखने को मिलेगा. भासा ठेठ लखनऊ के गुड़ में पका हुआ. एकदम नया भासा, जिसमें उर्दू का मिठास था और अवधी का अपनापन. कवि सम्मेलन में गद्य पढने वाले ऊ पहिला अऊर सायद एकलौता साहित्यकार रहे होंगे (सरद जोसीजी भी बाद में पढ़ते थे). फिलिम ‘लगान’ अऊर ‘स्वदेस’ में किसान का बोली भी ओही लिखे थे, ‘जोधा अकबर’ में जिल्ले इलाही का उर्दू भी उन्हीं का कलम से निकला था अऊर ‘हलचल’ फिलिम का कॉमेडी भी. जब हम पहिला बार लखनऊ गए त भूलभूलईया देखने बाद में गए, सबसे पहिले उनका दर्शन करके, उनका चरन छूकर आसिर्बाद लिए.
ई तीनों महान लेखक लोग में एक्के समानता है कि ई लोग लिखते नहीं हैं, बतियाते हैं. इनका किरदार डायलॉग नहीं बोलता है, बतियाता है. बस हम भी कोसिस करते हैं कि आप लोग से बतिया सकें. नहीं त लिखना हमको कहाँ आता है, न साहित्य से कोनो नाता है. बस ई तीनों द्रोणाचार्य का मूरत, अपना मन में बनाकर एकलव्य बनने का कोसिस कर रहे हैं.

30 टिप्‍पणियां:

  1. एकलव्य के बहाने तीन शख्शियतों से सामना करवा दिया ... बहुत खूब ...

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  2. It is very simple to be difficult
    but very difficult to be simple.
    इन तीनों महान लेखकों ने अपने लेखन में इसी सहजता की साधना की है.
    अच्छा लगा पढकर .

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  3. बढ़िया लिखा ...तीनों महान विभूतियों की याद दिलाने के लिए शुक्रिया !

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  4. ऐ चाचा...अपना लमरवा ई मेल कीजिये न...कौलियाएँगे!

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  5. महान विभूतियों की याद दिलाने के लिए शुक्रिया...

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  6. थोडा सा इंतज़ार कीजिये, घूँघट बस उठने ही वाला है - हमारीवाणी.कॉम

    आपकी उत्सुकता के लिए बताते चलते हैं कि हमारीवाणी.कॉम जल्द ही अपने डोमेन नेम अर्थात http://hamarivani.com के सर्वर पर अपलोड हो जाएगा। आपको यह जानकार हर्ष होगा कि यह बहुत ही आसान और उपयोगकर्ताओं के अनुकूल बनाया जा रहा है। इसमें लेखकों को बार-बार फीड नहीं देनी पड़ेगी, एक बार किसी भी ब्लॉग के हमारीवाणी.कॉम के सर्वर से जुड़ने के बाद यह अपने आप ही लेख प्रकाशित करेगा। आप सभी की भावनाओं का ध्यान रखते हुए इसका स्वरुप आपका जाना पहचाना और पसंद किया हुआ ही बनाया जा रहा है। लेकिन धीरे-धीरे आपके सुझावों को मानते हुए इसके डिजाईन तथा टूल्स में आपकी पसंद के अनुरूप बदलाव किए जाएँगे।....

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    http://hamarivani.blogspot.com

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  7. gulzar saheb ko to jaante the.....baki dono logon se parichay karane ka bahut bahut dhanyabaad... nahi to aisi chhipe hue kalamkaar ko jaanana bahut mushkil hai...

    आउर भईया हम तो बिहारी हैं ........ उगते सूरज से पहले डूबते सूरज को प्रणाम करते हैं ! -पंकज

    तनिका हमरो ब्लॉग पर कबहूँ आइये ! भर पेट सुआगत होई!

    इंहा पर कवितवा सब : http://pankaj-patra.blogspot.com
    इहाँ पर जो कविता न बन सकल : http://pankaj-writes.blogspot.com

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  8. Dear Eklavya,
    apni sundar lekhan-shailey ka credit badon ko dekar aapne apna bhi baddappan sabit kar diya.aapka batiyaane ka style behad pasand aaya.

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  9. teeno sakshiyat ko shat shat naman!!

    yahi khubi hai aap.......jo aap me basa hai, uske baare me aap batane me sakuchate nahi hain......aap dhanya hain, bihari babu..:)

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  10. सबसे पाहिले तो तीनो गुरु जी के प्रणाम!!!
    बहुत सुकून मिला पढ़ कर आज आपको.
    --
    और हाँ आपको जानकारी भी देते चले बिहार में थोडा बहुत सामाजिक गतिविधि में हाथ बंटा लेते हैं हम
    http://sulabhpatra.blogspot.com/2010/06/16-2010.html

    - सुलभ

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  11. बहुत खूब लिखे हो आप अपने तीनों गुरुओं के बारे में....
    हम भी उनको पढ़कर कुछ सीखने की कोशिश करेंगे... वैसे गुलजार साहब को तो कभी-कभी पढे भी हैं और सुने भी हैं...
    वैसे सही कहते हैं लोग... हम भी पहले शब्द से शुरू किए तो आखिर के शब्द पर ही रुके... वैसे इस बीच कितनी सांस वा लिए ए ससुरा हम गिन नहीं सकी, काहे कि ध्यान आपके लिखे में खो गया था।

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  12. आपकी हर पोस्ट देर से ही सही पर पड़ती ज़रूर हूँ और ये पहले भी पड़ी थी तब प्रतिक्रिया नहीं दी क्योकि मैं अभी इस लायक नहीं की इन महान शक्सिय्तो के बारे मैं कुछ बोल सकू !!

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  13. तीनो ही अपने अपने अंदाज़ के लिखने वाले हैं ... शुरू करो तो ख़तम कर की ही उतना पड़ता है ...

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  14. यूं तो आपके परिचय से ही मैं आपका मुरीद हो गया था अब तो आपका ब्लॉग भी पढ़ लिया. यकीन मानिए आपका लेख पढने के बाद इस बोली में लिखने का मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा है....! लेकिन शुक्रिया नहीं कहूँगा.... !!! हा...हा... हा... !!!!

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  15. बस हम भी कोसिस करते हैं .waah ye kosis bhi bdi achchi hai.

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  16. कब किस रूप में द्रोणाचार्य मिल जाएँ , और एकलव्य अपनी निष्ठा से मन में गुरु को बसाकर गुणों की माला पिरो ले .... इसके लिए बुनियाद उतनी ही खरी होनी चाहिए !

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  17. चला दादा
    हमहू एकलवये बने के परयास करतानी,,,,बाकी सब अपने मेहनत के दम पर ..... जहां पहूंच जांए..

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  18. सचमुच बहुत अच्छा लिखते हैं आप... भाषा का सहज किन्त रोचक प्रवाह आपके लेखन की विशेषता है...
    श्री गुलजार जी मेरे भी पसंदीदा लेखक हैं...
    सादर
    मंजु

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  19. किसी की प्रंशसा ,इस अनोखे अंदाज में ,लाजबाब है.... !!

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  20. एक बार सुरू करने पर एक साँस में पूरा पढ़ जाते हैं.
    एकदम सही बात है...
    आपके अंदाज में खोकर सांस लेना ही भूल गया था...
    याद तब आया जब एकदम “गास्पिंग” वाला स्टेज में पहुँच गया...
    लंबी साँसें लेकर नार्मल हुआ...
    गुलज़ार साहब तो मेरे फेवरेट हैं रजा साहब और सक्सेना साहब का लेखन भी बहुत भाता है... तीनो गुरुओं और उनके एकलव्य को सलाम.
    सादर.

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  21. आप एकलव्य का किरदार बखूबी अदा कर रहे हैं |
    बदकिस्मती से रजा साहब को हमने अभी तक नहीं पढ़ा है , के.पी. साहब को थोड़ा बहुत , उनकी भाषा बहुत अपनी से लकती है (चूँकि मैं भी कानपुरिया-लखनवी संस्कृति का हूँ), और अंत में गुलजार साब .... अहा... क्या कहने , एक एक शब्द सम्मोहन होता है |
    कभी 'मेरा वो सामन लौटा दो' के जादू को महसूस कीजिये , एकबारगी विश्वास नहीं होगा कि इतना अलग सा (क्षमा कीजिये , मुझे कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहा था) गाना कोई सोच भी कैसे सकता है , फिर चाहे वो 'छोड़ आये हम वो गलियां' हो , या 'छैयां छैयां' , या हालिया 'दिल तो बच्चा है जी' सब एक से एक नायाब बोल समेटे हुए हैं |
    जगजीत सिंह जी के साथ गजलों में भी उनकी जुगलबंदी देखते बनती है 'कोई बात चले' एल्बम का 'जिंदगी क्या है सुनें' , अभी हालिया प्रदर्शित होने के इन्तेजार में खड़ी एक फिल्म 'क्या दिल्ली क्या लाहौर' , निर्देशक-विजय राज , से चंद पंक्तियाँ कहना चाहूँगा-
    "लकीरें हैं तो रहने दो ,
    किसी ने रूठकर गुस्से में शायद खींच दीं थीं ,
    इन्हीं को अब बनाओ पाला ,
    और आओ ,
    कबड्डी खेलते हैं ,
    लकीरें हैं तो रहने दो |"

    हैं न गागर में सागर |
    एक बात मैं और कहना चाहूँगा , मैं भी लिखने में काफी हद तक गुलजार साब को फोलो करने की कोशिश करता हूँ , लेकिन हर बार असफल प्रयास होता है |

    सादर

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