शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

सर्दी का सुख


जाड़ा का मौसम भी बहुते सुंदर होता है. चारों तरफ हरियरी छाया रहता है अऊर आदमी भी तंदरुस्त नजर आता है. छोटा छोटा बच्चा सब रंग बिरंगा सुईटर पहिने, एकदम रुई का गोला जैसा लगता है. गुलाबी गुलाबी फूला हुआ गाल, उसपर छोटा छोटा आँख अऊर बहता हुआ नाक गुलाबी ओठ तक आने से पहिले ही बचवा उसको अपना सुईटर से पोंछकर खेल में मगन हो जाता है. बुझाता है, जईसे कोनो छोटा सा खरगोश घास का मैदान में एहाँ से ओहाँ दौड़ रहा है.
घर के बाहर मैदान में, चाहे छत पर, चाहे बालकोनी में औरत लोग एक जगह झुण्ड बनाकर बईठ जाती हैं अऊर सुईटर के फंदा में अपना सुख दुःख बुनते चली जाती हैं. कभी कोनो दुःख को उधेड़कर रख दिया अऊर कभी कोनो सुख को बुन दिया. हर फंदा के साथ प्यार बुनाता जाता है अऊर इसका पता तब लगता है जब सुईटर पहिनने वाला पहिन कर निकलता है. सुईटर के गर्मी का मुकाबला मोण्टे कार्लो भी नहीं कर सकता.
जब छोटा थे गर्मी जाने अऊर जाड़ा आने का इंतजार हमलोग बहुत मन लगाकर किया करते थे. सबसे पहिले तो जाड़ा माने त्यौहार का मौसम. अऊर त्यौहार माने, नया कपड़ा, इस्कूल से छुट्टी अऊर घूमने जाना, मेला देखना अऊर खेलौना खरीदवाना. हम भाई बहन के लिए तो जाड़ा अऊर गर्मी के छुट्टी का माने इलाहाबाद जाना भी होता था, पिताजी के पास. पुराना दोस्त लोग से नया नया मुलाकात.
इसके अलावा भी सबसे अच्छा लगता था अच्छा तरकारी खाना. अण्टा घाट अऊर कदम कुँआ के सब्जी बाजार में लगता था हरियाली छा गया है. नया आलू, कोबी (गोभी), छीमी (मटर), साग, परवल, टमाटर, कटहल,रामतरोई (भिण्डी)… माने जेतना हमरा मनपसंद तरकारी था, सब जाड़ा में मिलता था. अऊर माता जी के हाथ का बना तरकारी का स्वाद आझो जीभ में बसा हुआ है. अभी भी कभी माता जी हमरे कहने पर कोनो तरकारी बना देती हैं स्वाद नहीं मिलता है. कहीं कहीं समय के साथ जईसे बच्चा लोग का बचपना खतम हो गया, ओइसहीं तरकारियो का स्वाद छिन गया लगता है.
साँझ को टीवी ऊवी का कोनो साधन था ही नहीं. बस खा पीकर सब लोग ओसारा में बईठ जाते थे. गर्मी का टूटा हुआ सुराही चाहे घड़ा को हिफाजत से आधा तोड़कर, उसमें लकड़ी अऊर गोईठा (उपले) जलाकर घेरा बनाकर, आग तापते थे अऊर गप्प लड़ाते थे, चाहे कहानी सुनते थे दादा जी से. हमरी माता जी कहती थीं कि आग आदमी को निकम्मा बना देता है. आग के पास से कोई उठकर जाना नहीं चाहता. गलती से अगर कोई पानी माँग लिया तो सबलोग एक दोसरा का मुँहे देखते रह जाते थे अऊर अंत में सबसे कमजोर आदमी को उठकर जाना पड़ता था. आग के पास से उठे सीधा रजाई में.
एक रोज अईसहीं पिताजी को बोल दिए हम कि हमको जाड़ा बहुत अच्छा लगता है. केतना अच्छा होता अगर सालों भर जाड़ा रहता. बात सुनकर पिता जी सीरियस हो गए, बोले, जिनके पास साधन है उनके लिए तो बहुत अच्छा मौसम है. मगर जिनके पास अभाव है, उनके लिए भगवानी मार है. बोले कि गर्मी में गाँधी मैदान में भी सोकर, बिना कपड़ा, नंगे बदन भी लोग रह लेता है. लेकिन जाड़ा में जब आसमान से भी ओस बरस रहा हो, तब बिना कपड़ा, भी गर्म कपड़ा के रात बिताना बिना सर पर छत के, नरक से कम नहीं होता हैबच्चा मन, जो कभी अभाव देखा ही नहीं था, कहाँ से समझता सब बात.
सन 1986..  हमलोग तीन दोस्त कलकत्ता गए घूमने. रात को गाड़ी हावड़ा स्टेशन पर पहुँचा. दिस्म्बर का महीना था. वैसे तो कलकत्ता में ठण्डा ओतना नहीं होता है, लेकिन दिसम्बर जनवरी में  कुछ समय के लिए बहुत ठण्डा होता है. उस रात भी जमा देने वाला ठण्डा था. हमलोग ऊन का गोदाम बने हुए,सामान पीठ पर लादे जल्दी से कोनो होटल में पहुँचना चाह रहे थे. पता चला बहुत अच्छा तो नहीं है, मगर पास में एगो होटल है, पैदल जा सकते हैं.
हमलोग निकल कर चल दिए. हुगली नदी के तरफ से ठण्डा हवा कँपा दे रहा था. दुनो मुट्ठी  में जाड़ा को बंद करके चल दिए अंधेरा में होटल के तरफ. रास्ता में एगो होटल देखाई दिया जिसका रसोई का हिस्सा सड़क पर था जिधर से हम लोग जा रहे थे. तंदूर का राख निकालने वाला हिस्सा सड़क के साईड में था. होटल बंद हो चुका था, रसोई भी ठण्डा गया था, मगर तंदूरके अंदर आग का गर्मी कुछ लकड़ी का कुछ कोयला का राख में दबा हुआ था.
उधर जब नजर पड़ा अचानक हम डर गए. उसका राख निकालने वाला छेद में हम देखे कि चार पाँच आदमी आधा बदन अंदर डालकर आधा सड़क पर सोया हुआ था. बिस्वासे नहीं हुआ कि आदमी है लोग. कुछ एक दूसरे के देह का गर्मी अऊर कुछ राख के अंदर का बुझा हुआ कोयला का गर्मी. हम आगे बढ़ गए होटल के तरफ जल्दी जल्दी..  मगर अंधेरा में भी हमरे पिता जी का बात हमरा पीछा  कर रहा था.

48 टिप्‍पणियां:

  1. isepost ko padkar jo kapkapee mahsoos kee hai usaka andaza lagana asambhav hee hoga...........

    mera anubhav alag raha..........
    sardee me kapte nanhe bacche ko mai nahee dekh paaee thee aur apanee bitiya ke char me se do sweater maine us nange bacche kee ma ko de diye the par dekhatee hoo ki doosare din bhee vo baccha nanga hee tha......usase poocha to bolee ki mazboot banana hai bacche ko nazuk nahee kaduwahat bharee thee .....mai bhee samjh saktee thee par us nanhe masoom ka kya dosh tha..........paate bhee bahut kuch adhoora sa rah jata hai..........

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  2. "अगर कोईपानी माँग लिया तो सबलोग एक दोसरा का मुँहे देखते रह जातेथे अऊर अंत में सबसे कमजोर आदमी को उठकर जाना पड़ताथा. आग के पास से उठे त सीधा रजाई में."

    यह तो मेरी कहानी है यार आपको थीम कैसे पता चली ??
    बड़ी पुरानी याद दिला दी , आभार !

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  3. सलिल भैया, क्या अंदाज़ है की, इत्ती मीठी मीठी बतिया लिखते चले जाते हो पर पोस्ट खत्म होने पर दिल के कौने से चीत्कार सा निकलवा देते हो...

    परनाम

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  4. सर्दी के मौसम का अच्छा वर्णन किया है ...नयी सब्जियां , मोटा खाना ...अंगीठी के पास बैठे चाय के दौर पर दौर ....
    ऐसे में सड़क के किनारे कथरी में लिपटे लोगों की व्यथा महसूस की जा सकती है!

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  5. यहां मुंबई में तो एतना ठंड नकोच!!पर ई लेख ने ठिठूराऽऽऽअऽ दिया।

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  6. सर जी……

    एतना अपनापन लगता है आपका पोस्ट पढ के कि बता नहीं सकते। अउर सही कह रहे हैं आप… समय के साथ हर चीज का लज्जत खतम होते जा रहा है …अब न आदमी वैसा रहा न त माहौल न फ़ल-सब्जी।

    बहुत सम्वेदना से भर गया मन पोस्ट से गुजर के।

    नमन।

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  7. is baat par to ravi se sehmat hoon, khaaskar phal sabziyon ke maamle mein, rang birangi lubhavni dikhto hain, par swaad pata nahin kahan hai.... ;)

    par jo tasveer aap kheenche ho na sir, kya kahein, bohot maza aaya padhke...sach, salaayion mein bunte sukh dukh....actually...chugli vugli zada karti hain khavateen :P...par bas, kya post hai...maano garma garam pakode ;)

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  8. बढ़िया प्रस्तुति...सर्दी से जुड़े बहुत सारे एहसास याद आने लगे।

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  9. एकदम सही बात है, जारा में जिस आदमी के पास साधन नहीं उसके लिए तो पहाड़ ही है..:(
    हम भी जब देखते हैं की सड़क के किनारे जब कोई एक पतला सा चादर लेकर सोया रहता है तो बड़ा अजीब लगता है..
    .


    वैसे चचा जी शुरुआत के पोस्ट में आपने पता नहीं क्या क्या याद दिला दिया...अब तो जारे का असली स्वाद ज्यादा पते नहीं चलता...इतना साल से कर्नाटक में हैं, और यहाँ तो ठंडा पड़ता ही नहीं...बहुत हुआ तो एक स्वेटर पहन लिए..रजाई तो कभियो नहीं..
    एक पोस्ट हमको भी लिखने का मन कर रहा है अब...जारा के दिन पे...कभी बाद में लिखेंगे

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  10. सर्दियों का बहुत अच्छा वर्णन ...बहुत सारी बातें याद आ गईं ..रजाई में घुस कर मूंगफली खाना भी :) और खाने संग गुड़ भी.

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  11. सर्दी में सबका स्वास्थ्य बन जाता है। पटना में चेवड़ा-चना खूब खाये हैं, इस मौसम में।

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  12. शुरुआत पढ़कर तो नौस्टेल्जिक हो रही थी (पिछले पंद्रह वर्ष से जाड़ा जो नहीं देखा)...पर अंत आते-आते जीवन की कड़वी सच्चाई नज़र आ गयी ...किसी के लिए स्वेटर, गज़क, गाजर का हलवा...और किसी के लिए एक-एक दिन काटना मुश्किल.

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  13. पिताजी सही कहते थे...जाड़ा संपन्न लोगों के लिए है, ये विलासिता का मौसम है...गरीब इंसानों का दुश्मन...जाड़े में जितने लोग सडकों पर लावारिस मरते हैं उतने पूरे साल भर में नहीं मरते...

    खोपोली में आने के बाद जाड़ा तो हम भूल ही गए हैं वर्ना जयपुर में इन दिनों रजाई लपेट कर शाम को गरमा गरम मूंगफली और गुड खाना, दोपहरी में धूप में बैठ कर गाज़र मूली खाना, रात को किसी पार्टी में सूट पहन कर जाना खूब याद है...यहाँ तो सारे साल बुशर्ट ही पहननी पड़ती है...

    खूबसूरत अंदाज़ में लिखी है आपने ये पोस्ट...हमेशा की तरह.

    नीरज

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  14. @ छोटा बच्चा सब रंग बिरंगा सुईटर पहिने, एकदम रुई का गोला
    ई बतबा मन को छू गया, इसलिए पढना छोड़्के चले आए कि पहिले बतिआइये लें।
    हमरो बचबा ऐसने लगता था, अ‍उर ऊ दीन इयाद आ गया।

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  15. @ जईसे कोनो छोटा सा खरगोश घास का मैदान में एहाँ से ओहाँ दौड़ रहा है
    बड़े भाए आज तो एकदम्मे से मिजाज हरियर हो गया। एक दम्मे जारा बाला मौसम ऐसन। का बात लिखे हैं।

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  16. Kya taqat hai lekhnee me aapki! Muskurate hue padhna shuru kiya aur ant me aankhen nam ho gayeen.Waise bhayanak garmee se bhee gareebon kee maut hoti hai. Dono mausam kaa atirek jaanlewaa hota hai!

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  17. क्या बात है, आप त हमरे कलकत्ता पहुंच गए। बाते थीके कहे कि ईहां जाड़ा त कम्मे पड़ता है, मगर कोनो-कोनो दीन त हाड़े कपकपा देता है।
    लेकिन एगो बात है, आप्को गए हुए हिंया से बहुत दिन हो गया होगा इस बीच आदमी चांद उंद सब घूम आया लेकिन ईहां त अभिओ लोग राख निकालने वाला छेद में आधा बदन अंदर डालकर आधा सड़क पर सोता है। एक दूसरे के देह का गर्मी अऊर कुछ राख के अंदर का बुझल कोयला के गर्मी से अपना गुजारा कर रहा है।

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  18. आपके ब्लॉग पे पहले भी आती रही हूँ लेकिन कभी कुछ लिखा नहीं.आज पहली बार कुछ दे रही हूँ.
    पटना का वो मौसम बहुत याद आता है.सच में बहुत कुछ याद आया..बहुत कुछ !!
    अंत में कड़वी सच्चाई देख मन दुखी भी हुआ!!

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  19. बोली के साथ, उस मनोभाव को साध पाना मुश्किल होता है, जो आप सहजता से कर लेते हैं, यह जीवन्‍त जुड़ाव के बिना संभव नहीं.

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  20. आपकी बाबूजी की बात मन में होती है इसीलिए मुझे ठण्ड पसंद नहीं. पुरुषों को वैसे ठण्ड बहुत अच्छी लगती है....क्युकी उन्हें तो घर के काम नहीं करने पड़ते न...स्त्रियों की तरह.

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  21. @अनामिका बहनः
    :)
    एक भाई साहब जाड़े की रात में भी अपनी पत्नी को पानी गरम करने को कहते थे... और उनकी पत्नी करती थीं...
    बेचारे ठण्डे पानी सए बर्तन नहीं माँज पाते थे!!

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  22. आपकी ठंड ने हमारी याद की गुरसी और सिगड़ी जला दी । रेल्‍वे वाले रहे हैं सो कोई अठारह-बीस ठंड तो कोयले की सिगड़ी के इर्द-गिर्द ही बीती हैं। बात सही है,जिनके पास साधन नहीं है उनके लिए हर मौसम दुख लेकर ही आता है।

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  23. यह तो खैर एक ठोस सत्य है कि गर्मी में तो सिमित साधनों वाला आदमी भी अपना काम चला लेता है पर जाड़े में अपना काम चलाना आसान नहीं होता है !

    बाबु जी ने जीवन के बहुत ही शुरूआती दिनों में आपको यह ज्ञान दिया ... जिसको आपने कलकत्ते में वास्तव में देखा !

    इन पोस्टो के माध्यम से अपनी इन यादो को हम सब से बांटने के लिए आपका बहुत बहुत आभार !

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  24. सलिल जी आपके इस पोस्ट को पढ़ के दादी की गांती याद आ गई.. मोटा दुसुती चादर को लपेट के ऐसे बंधती थी क्या मजाल पाला भी छाती और गर्दन में घुस जाए.. कभी निमोनिया नहीं हुआ मुझे... आज मेरे बच्चे हैं... स्वेटर... हीटर... और तमाम केयर के बावजूद प्रोन हैं सर्दी जुकाम निमोनिया के.. सुन्दर संस्मरण...

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  25. कुछ समय पहले तक जाड़े का मौसम हमें भी बहुत पसंद था, विचारशून्य ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ी थी। दीप पांडेय जी की माताश्री के भी ऐसे ही विचार जानने को मिले, जैसा आपके बाबूजी ने कहा, "“जिनके पास साधन है उनके लिए तो बहुत अच्छा मौसम है. मगर जिनके पास अभाव है, उनके लिए भगवानी मार है.” कितनी साधारण बात लगती है अब, लेकिन जब तक इस नजरिये से नहीं देखा था, ऐसा सोचा ही नहीं था।
    आप हमें उस समय में नहीं ले जाते, समय को ही खींचखांच कर आंखों के सामने ला हाजिर करते हैं। सब सजीव हो उठता है, संस्मरणात्मकता में कौनो इस्पेशल कोर्स किये हैं आप जरूर, मनोज कुमार जी ने भी आपके ब्लॉग का जिक्र अपनी पोस्ट में किया था। सलिल साहब, सैल्यूट तो हम भी लगा ही सकते हैं, लगा रहे हैं।

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  26. मौसम कोई भी हो अमीरी में ही अच्छा लगता है!

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  27. हमहूँ इस पोस्ट का शुरुवात पढ़े तो जाडा के बारे में कसीदे पढ़ने वले थे ..लेकिन पोस्ट के अआखिर में थर्रा देने वाली घटना को देख को समझे में नहीं आ रहा है कि का कहें... सच में प्रकृति अँवरा हो जले कब्बो कब्बो ..बर्दास्त न का होला की स्थित में खट्ट और बर्दास्त हो गईल ता मिट्ठ

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  28. पोस्ट तो पहले पढ़ चुकी थी पर चर्चा के काम में लगी थी ..कुछ कह कर नहीं गयी ....

    जादे की खुमारी उतारी भी नहीं कि ठण्ड में ठिठुरते उन लोगों का ज़िक्र थर्रा गया ....सच में आपके पिताजी कितना सही कहते थे ...गर्मी में तो लोंग जैसे भी ज़िंदगी बसर कर लेते हैं पर सर्दी में बिना घर के और कपड़ों के कैसे बिताता होगा जाड़े का वक्त सोच कर ही झुरझुरी आ रही है ...लेखन बहुत शक्तिशाली ...

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  29. सलिल जी,
    `पानी माँगने पर सब बच्चा लोग एक दूसरे का मुह देखते थे कि कौन उठे और सबसे कमज़ोर को उठना पड़ता था !` वाह ! पढ़ कर लगता है हम भी वही थे ! कलकत्ता में ठण्ड से बचने के लिए लोगों का भट्ठी के अन्दर अपने आधे बदन को डालने वाली बात ने आदमी कि विवशता पर सोचने पर मज़बूर कर दिया !
    ठण्ड के सजीव चित्रण ने बंगलोर में भी ठण्ड का अहसास करा दिया !
    बहुत आभार !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  30. आपने बहुत सही बताया कि,साधन -विहीनो को सर्दी जान लेवा है.इसी प्रकार गर्मी और वर्षा भी गरीबों के लिए मारक ही हैं. पर व्यवस्था को चिंता कहाँ है ?

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  31. बिलकुल सही जिसके पास साधन हैं सर्दी उनके लिये ही अच्छी है। वैसे अगर मुंगफली खाने को न होती तो सर्दिओं का मज़ा भी आधा रह जाता। रजाई मे गर्म पानी की बोतल और मुंगफली वाह । अच्छी लगती हैं सर्दियाँ। शुभकामनायें।

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  32. aap ki bahut badhiya prastuti.waise mai kolkata se ek baar delhi jadhe me gaya,to rajai ke sath heater jala ke sona padha tha.waise mera sara bachapan kolkata me hi bita,is liye bachapan ki yaad taro taja ho gai.bhojpuri jyada bolata tha aur bangala bhi .jade ke ssg-sabji,bade lubhawane hote hai.aap ke pita ji thik hi kahate the,jada rajai walo ki hai.aap ke blog par mai aaj pahali baar aaya hun aur follw bhi kar raha hun.rauaa ke bahut-bahut badhai.thank you very much.

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  33. ‘‘औरत लोग एक जगह झुण्ड बनाकर बईठ जाती हैं अऊर सुईटर के फंदा में अपना सुख दुःख बुनते चली जाती हैं, कभी कोनो दुःख को उधेड़कर रख दिया अऊर कभी कोनो सुख को बुन दिया, हर फंदा के साथ प्यार बुनाता जाता है।‘‘

    आपका गद्य किसी गंभीर कविता से कम नहीं।...ऐसा गद्य लेखन विरले ही लिख पाते हैं। बार-बार पढ़ने को मन करता है।...एक तो भोजपुरी की मिठास और दूसरा गद्य का सरित-प्रवाह...पढ़कर मन को चैन मिलता है...आभार सलिल जी।

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  34. सर्दी का सुख मुझे बचपन की यादों में ले गया ... सचमुच आपके लेखन में अद्-भुत जुड़ाव शक्ति है । आपके लेखन-प्रवाह को सलाम !!!

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  35. सलिल सर
    अब हम क्या कहें इस पोस्ट पर.. सब कुछ कहा जा चूका है.. हमको तो नबका आलू को घूर में पकाना याद आ रहा है... पैर का फटना याद आ रहा है.. और माँ को चूल्हा में पैर रख के ओस में गोतनी से बतियाना याद आ रहा है... बहुत सुन्दर पोस्ट... बड़े शहर जाके आप बदले नहीं सो अच्छा लग रहा है..

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  36. बहुत ही सुन्दरता से आपने सर्दी के मौसम का वर्णन किया है ! मुझे सर्दी का मौसम बेहद पसंद है और इसी समय का मैं बड़े बेताबी से इंतज़ार करती हूँ !
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

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  37. भाई जी- तोहार कलमिया छीन लेबे के मन करत बा।

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  38. @प्रेम बाबू!
    एक हाली मांग के देखीं, छीने के जरुरत ना पडी!!

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  39. ये आपने सही कहा ... सर्दी का मौसम ग़रीब आदमी के लिए भगवान की मार ही है ... आप का लिखने का अंदाज़ बहुत रोचक बना देता है पोस्ट को ...

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  40. बढ़िया प्रस्तुति...सर्दी से जुड़े बहुत सारे एहसास याद आने लगे।

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  41. किसी भी विषय पर आपकी प्रस्तुति उसे रोचक और पठनीय बनादेती है । सर्दी के बारे में पढते हुए लगा कि यह सब तो हमें भी लिखना था।
    पर क्या इतनी जीवन्तता से लिख पाना आसान है ।

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  42. aap bahut achchi tarah se yaadon ko pakadkar le aate hain.sach hai ki jada avhaw men aur bhi khalta hai.

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  43. खाने का जिक्र करके आपने घर की याद दिला दी , कढ़ी , लौकी के कोफ्ते , गोभी-आलू :( :( :(
    मेस में कहाँ वो स्वाद .

    सादर

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