“वह, जो शेष है!” श्री राजेश उत्साही की कविताओं का प्रथम संकलन है. ज्योतिपर्ब प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का विमोचन अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला – २०१२ में प्रगति मैदान, नई दिल्ली में हुआ. इस कविता-संग्रह में कुल ४८ कवितायें हैं, जो इन्होंने तीन दशक से भी अधिक के कालखंड में रची हैं. यदि इतने लंबे अंतराल में उत्साही जी द्वारा रचित कविताओं की संख्या (जो इस संग्रह में हैं) मात्र ४८ हैं, तो सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उन्होंने कवितायें “लिखीं” नहीं है, “रची” हैं. एक-एक कविता, गर्भधारण से लेकर प्रसव तक की यात्रा है. अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं कि राजेश जी ने इन कविताओं को जिया है, पात्रों के साथ एकाकार हुए हैं और उनकी अनुभूतियों को अपने अंदर उतारा है, उनकी वेदनाओं का हलाहल नीलकंठ की तरह पिया है, तब जाकर इन कविताओं का जन्म हुआ है.
इस कविता-संग्रह में कविताओं के क्रम न तो रचना-काल के अनुसार हैं, न ही रचनाकार की पसंद के क्रम में हैं. राजेश जी के अनुसार कविताओं की विषयवस्तु के आधार पर उन्हें क्रम प्रदान किया गया है, जो मूलतः तीन श्रेणी में हैं – प्रेम, सरोकार और व्यक्तिगत कवितायें. यहाँ मुझे एक और श्रेणी दिखी जिसके विषय में कवि ने कुछ नहीं कहा. वह श्रेणी है (और संग्रह में प्रथम श्रेणी वही है) कवि और कविता के संबंधों की. शायद स्वयं को कविता के दर्पण में देखने की चेष्टा. चुप्पी उनके स्वभाव का परिचायक है और “कवि भी एक कविता है” में यह कहना कि
इसलिए पढ़ो/कि कवि/ स्वयं भी एक कविता है/ बशर्ते कि तुम्हें पढ़ना आता है!
“कविता बिना कवि” बिना हथियार के डॉन की तरह है क्योंकि कवि आत्मा पर चोट करता है और डॉन शरीर पर. उनके अनुसार कविता यदि आत्मा पर चोट न करे तो कवि की रचना सार्थक नहीं.
प्रणय विषयक कविताओं की श्रेणी में जितनी भी कवितायें हैं उनका चरित्र वैसा ही है जैसा उन्होंने “प्रेम” शीर्षक कविता में कहा है कि प्रेम दरसल व्यक्त करने की नहीं महसूसने की चीज़ है. उनकी सभी प्रेम कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें प्रेम का पारंपरिक वर्णन कहीं नहीं मिलता है, किन्तु शब्द-शब्द प्रेम पगा है. “तुम अपने द्वार पर” की अंतिम पंक्ति में जब वे कहते हैं कि “मुझे भी अपने द्वार का एक पौधा मान लो” तब जाकर यह कविता एक प्रेम कविता बनती है. और ज़रा इन पंक्तियों को देखें:
क्या लिखती हो तुम,
मेज़ पर, शीशे पर,
कागज़ पर,
ज़मीं पर, रेत में,
हवाओं में, पानी में,
उँगलियों से, तिनकों से,
क्या लिखती हो
जानना चाहता हूँ!
“वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था” वाले अंदाज़ में आरम्भ से अंत तक सबको पता है कि वह क्या लिखती है, मगर कवि नहीं कहता अपने मुँह से, उलटा प्रश्न छोड़ देता है कि क्या लिखती हो, जानना चाहता हूँ! पराकाष्ठा है यह प्रेमाभिव्यक्ति की. हर कविता एक अलग ही अंदाज़ में और एक अलग ही अभिव्यक्ति के साथ. लेकिन कवि के रूप में राजेश जी कहीं भी कविता और पाठक के बीच नहीं आते!
अगली श्रृंखला में समाजी सरोकार से जुडी कुछ कवितायें हैं, जिसमें बिना शब्दजाल फैलाए जिस प्रकार उन्होंने छोकरा शीर्षक के अंतर्गत बूट पॉलिश करने वाले, ट्रेनों में झाडू लगाने वाले, गाकर पैसे माँगने वाले बच्चों की दुर्दशा का वर्णन किया है, वह संवेदना का हिमालय है. और यहाँ भी उनका काव्य-चातुर्य दिखाई देता है, जब हम पाते हैं कि उन बच्चों की व्यथा व्यक्त करने के लिए उन्होंने अनावश्यक मार्मिक शब्दों और अनर्गल वर्णन का सहारा बिलकुल नहीं लिया है. कवितायें मन को छूती हैं, क्योंकि सादा हैं, शब्दों की पेंटिंग नहीं, ज़िंदगी की तरह बदरंग! धोबी, चक्की पर, स्त्री, घोड़ेवाला, चिड़िया, गांधी आदि कवितायें झकझोरती हैं और सीधा जोड़ती हैं उस सरोकार से. एक आईने की तरह रख दी हैं वे कवितायें हमारे सामने जिसमें हमें हमारा बदसूरत चेहरा दिखता है.
अंत में उनके कवि ह्रदय का परिचय देती हुई कुछ व्यक्तिगत कवितायें संगृहीत हैं. कवि-ह्रदय से यहाँ तात्पर्य यह है कि उनकी सोच का माध्यम भी कविता है. यद्यपि उन्होंने गद्य भी लिखे हैं, तथापि उनकी मूल अभिव्यक्ति कविता में ही मुखर हुई है. इन सारी कविताओं के पात्र, वे स्वयं हैं और उनके परिजन. नितांत वैयक्तिक कवितायें हैं. “इतनी जल्दी नहीं मरूंगा मैं” के अंतर्गत मौत से सामना होने की कुछ घटनाएँ उन्होंने कविता के माध्यम से साझा की हैं. कविताओं का प्रवाह बांधकर रखता है. बाद की कविताओं में उन्होंने अपने परिवार की जिन घटनाओं का वर्णन किया है, वह एक बड़ा ही साहसिक कदम है. आम तौर पर जो घटनाएँ कोई भी व्यक्ति, किसी अनजान व्यक्ति के साथ शेयर नहीं करता, उसे उन्होंने पूरी ईमानदारी से सारी दुनिया के साथ बांटा है. इस क्रम में उनकी जीवनसंगिनी का शब्दचित्र सर्वोत्तम है. कविता “नीमा” में उन्होंने पत्नी के संघर्ष की कथा और स्वयं को उनका पति, संगी, साथी और साधक के रूप में प्रस्तुत किया है, जो समस्त स्त्री जाति के प्रति उनके सम्मान की भावना का द्योतक है. इसी विशेषता के कारण यह कविता उनका व्यक्तिगत अनुभव न होकर सम्पूर्ण नारी समाज के प्रति व्यक्त किया गया सम्मान है.
कविताओं की संरचना छोटे-छोटे मुक्त छंदों से की गई है, कोई भी कविता अनावश्यक लंबी नहीं है, जो कवितायें लंबी हैं, वह विषय-वस्तु की मांग पर आवश्यक है, भाषा इतनी सरल है कि मानो आम बोल-चाल की भाषा हो, भावनाओं को उभारने के लिए व्यर्थ का शब्दाडम्बर कहीं भी नहीं है और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कविता में कोई दर्शन नहीं छिपा है - जहाँ कवि कहना कुछ चाहता है और पाठक समझता कुछ और है या फिर कवि के स्पष्टीकरण की आवश्यकता अनुभव होती हो पाठक को, भाव इतनी सरलता और सहज रूप में अभिव्यक्त हुए हैं कि पाठक तक कवि की बात सीधी पहुँचती है!
कुछ दोष जो यहाँ वहाँ दिखे वो बस वैसे ही जैसे किशमिश के दाने में लगा तिनका. कुछ तथ्यात्मक दोष जो मुझे दिखे, जैसे- झील में पड़ी अपनी लाश के विषय में यह कहना कि “तबतक धंस चुका होउंगा मैं/झील में नीचे” जबकि तथ्य यह है कि लाश तैरती है, धंसती नहीं; “यहीं १९५९ के साल की पहली तारीख को/नीमा ने पहली किलकारी भरी”- यह निश्चित रूप से जन्म की तिथि है अतः किलकारी नहीं- पहला रूदन, किलकारी तो शायद कुछ महीनों बाद ही सुनाई देती है. कविता में मध्यप्रदेश को “मप्र” लिखना खलता है, क्योंकि एमपी तो प्रचलित है, मप्र नहीं! लेकिन यह दोष वास्तव में बिम्ब के रूप देखे जाएँ तो दोष नहीं लगते.
एक कविता है “वह औरत”. इसमें उन्होंने एक जवान मजदूरनी पर कुदृष्टि डालते ठेकेदार और स्वयं को साक्षी बनाकर उस औरत की मनोदशा और उसे भारत माता की दुर्दशा से जोड़ते हुए अभिव्यक्त किया है. किन्तु पढते हुए एक स्थान पर यह कविता समाप्त होती प्रतीत होती है अपने पूरे प्रभाव के साथ
अचकचाकर
मैं उसे देखता हूँ.
मुझे वह औरत
अपनी माँ नज़र आने लगती है!
इसके बाद माँ को भारत माँ से जोड़ना वह प्रभाव नहीं उत्पन्न कर पाया. अगर इसे दूसरी कविता के रूप में अलग से प्रस्तुत किया गया होता तो पाठकों को एक दूसरे अनुभव से उद्वेलित कर सकती थी.
कुल मिलाकर तीन दशकों की रचनाओं का संकलन “वह, जो शेष है” राजेश उत्साही जी के शांत, सहृदय व्यक्तित्व, जूझारू चरित्र, ज़मीन से जुड़े स्वभाव और ईमानदार अभिव्यक्ति का खज़ाना है. ये शांत भाव से, साहित्य की सेवा करने वाले व्यक्ति हैं, तभी आज तक छिपे रहे. किन्तु कल तक छिपे थे आज छपे हैं. मुझ डाकू खडगसिंह के बाबा भारती!
पुनश्च:
संयोग से आज ही मनोजकुमार जी ने “राजभाषा हिन्दी” ब्लॉग पर इस कविता-संग्रह की चर्चा की है. पुस्तक-परिचय यहाँ देख सकते हैं.
बहुत बढ़िया रही समीक्षा .... आभार
जवाब देंहटाएंशु्क्रिया खडगसिंह जी यानी सलिल भाई। अब यह संयोग ही है कि पहली टिप्पणी मैं ही कर रहा हूं इस समीक्षा पर। बहुत संतुलित समीक्षा है यह। जो मैं चाहता हूं कि केवल वाह वाह न हो, वरन् कुछ ऐसी बातें भी आएं जिन पर एक चर्चा भी हो।
जवाब देंहटाएंआपने तीन बातें उठाईं हैं। वे स्वीकार्य हैं। पर इन पर मैं अपना पक्ष भी यहां रखना चाहता हूं। झील में लाश वाली उस कविता को आप एक बार फिर से पढें। हम जानते हैं कि लाश पानी में फूलने के बाद ऊपर आती है और फिर तैरती है। फूलने में उसे समय लगता है लगभग 24 घंटे। उसके पहले तो वह पानी में धंसती ही है। जहां मैं यह बात कह रहा हूं वह समय है, जब झील के किनारे खड़ा स्कूटर अपने लावारिस होने की सूचना दे रहा है। यानी मेरे पानी में डूबने के चंद घंटों बाद ही। और मैं उस समय कहां हूं केवल यह कह रहा हूं।
*
मध्यप्रदेश को पूरा ही लिखना चाहिए था। यह बात ठीक है।
*
जहां तक पहली किलकारी की बात है तो कविता की भाषा में तो हम रोने को भी किलकारी ही कहते हैं। पर यूं आपकी बात ठीक ही है।
*
'वह औरत' कविता वास्तव में इस संग्रह में नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन यह कविता मैंने इसलिए संग्रह में शामिल की,क्योंकि इसका संबंध एक घटना से है जिसका जिक्र मैंने आमुख में किया है। आपका कहना सही है,कविता वहीं समाप्त हो जाती है। लेकिन मेरी यह दृष्टि बाद में विकसित हुई। इसका जिक्र भी मैंने आमुख में किया है नूर मोहम्मद और उसका घोड़ा कविता के संदर्भ में।
*
और सलिल भाई 'इतनी जल्दी नहीं मरूंगा' शीर्षक से कविताएं लिखीं हैं मैंने 'इतनी जल्दी नहीं मारूंगा' से नहीं कृपया सुधार दें।
भूल सुधार!!
हटाएंसलिल जी ,
हटाएंसंकलन तो आपने बांचा है सो जो लिखा , बेशक ठीक ही लिखा होगा ! फिलहाल आप पर विश्वास है ! जब स्वयं पढेंगे तो अपनी तरफ से हम भी ठीक लिख पायेंगे !
एक बात जो सूझ रही है , वो ये कि राजेश जी का तखल्लुस उत्साही ज़रूर है पर 48 कवितायेँ लिखने में उन्होंने पूरे तीस साल लगाये सो हमें वे कविताओं के मैदान के चेतन चौहान जैसे सॉलिड बैट्समैन लगे :)
अली सा.
हटाएं४८ कवितायेँ लिखने में ३० वर्ष नहीं... ३० वर्ष में ४८ कवितायें.. या उन्हें ये ४८ कवितायें प्रकाशन योग्य लगीं... अभी-अभी उनकी हालिया पोस्ट से पता चला कि उनके घर में पानी भर जाने के कारण उनकी कवितायें जो डायरी/कापियों में रोशनाई से लिखी थी, भीग कर उनकी लिखावट पसर गयीं.. व्यस्त व्यक्ति हैं!! शायद अगले मजमुए के शाया होने तक इंतज़ार करना होगा!! वैसे ज़बरदस्ती सचिन बने रहने से, चेतन वाली बात आपने भली कही!!
ओह...कमबख्त पानी , रोशनाई से रकाबत , कविताओं पे उतार गया !
हटाएंउत्साही जी के दूसरे मजमुए के लिए पेशगी शुभकामनायें !
अली जी आप व्यंग्य-व्यंग्य में ही काफी कुछ कह देते हैं। असल में सलिल जी ने जिस तरह से इस बात को लिखा है,उससे यह अर्थ निकलना ही था। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट किया है। सच तो यही है कि मुझे फिलहाल इस संकलन के लिए 48 कविताएं ही उपयुक्त लगीं। संग्रह में पृष्ठों की भी अपनी एक सीमा थी।
हटाएं*
अली जी बंदा इन तीस सालों में और क्या भाड़ झोंकता रहा है अगर यह जानने की इच्छा हो तो इस लिंक पर एक नज़र डाल लें-http://utsahi.blogspot.in/p/blog-page_12.html
उत्साही साहब ,
हटाएंआपका दिया लिंक देख रहा था और यकीन मानिये बेहोश होते होते बचा ! आपने 1982 में सागर यूनीवर्सिटी से बी.ए.पास किया और एम.ए. 1984 में , क्या आप वहां पर रेगुलर स्टूडेंट थे ?
हम तो आप तीनों की वार्ता में ही उलझे हुए हैं!
हटाएंअनुराग जी एक लेखक के रूप में मैं अपनी सफलता में देखता हूं कि मेरा लिखा विमर्श के कुछ रास्ते खोलता है। इसीलिए जहां संवाद की गुंजाइश है वहां यह करने की कोशिश करता रहता हूं।
हटाएं*
अली जी बेहोश होते होते बचे इसे यह तो साबित होता है कि उन्होंने मेरा किया धरा होशोहवास में पढ़ा। शुक्रिया। जी बीए में स्वाध्यायी छात्र था और एमए नियमित छात्र के रूप में किया। यह भी बताता चलूं कि मैंने अपनी यह पढ़ाई होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय से की है, जो उन दिनों सागर विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता था।
प्रिय राजेश जी ,
हटाएंधन्यवाद , स्वाध्यायी छात्र होकर आपने हमारी लाज रख ली :)
हम चिंतामग्न थे कि हमसे क्या भूल हुई जो हमारा ही विद्यार्थी हमको ना पहचाने :)
सागर यूनिवर्सिटी छोड़ने से पहले 1982 के बी.ए.फाइनल की क्लासेस हमारे हिस्से थीं ! उस बैच में लगभग 250 विद्यार्थी थे और उन सबके नाम हमें याद भी नहीं थे ! बस यही एक वज़ह थी जो आपको लेकर चिन्ता हुई !
टिप्पणियों में आपसे जो भी परिहास किया उसे अन्यथा नहीं लेंगे ! ( इसे आपने व्यंग ही व्यंग कहा था )
प्रिय राजेश जी ,
हटाएंधन्यवाद , स्वाध्यायी छात्र होकर आपने हमारी लाज रख ली :)
हम चिंतामग्न थे कि हमसे क्या भूल हुई जो हमारा ही विद्यार्थी हमको ना पहचाने :)
सागर यूनिवर्सिटी छोड़ने से पहले 1982 के बी.ए.फाइनल की क्लासेस हमारे हिस्से थीं ! उस बैच में लगभग 250 विद्यार्थी थे और उन सबके नाम हमें याद भी नहीं थे ! बस यही एक वज़ह थी जो आपको लेकर चिन्ता हुई !
टिप्पणियों में आपसे जो भी परिहास किया उसे अन्यथा नहीं लेंगे !
( इसे आपने व्यंग ही व्यंग कहा था )
अली जी, माफ करें आपका यह रूप तो मुझे पता ही नहीं था। आप तो मेरे गुरु जैसे हुए। मेरे ब्लाग यायावरी पर ताजा पोस्ट में आपको दो ऐसे चेहरे दिखाई देंगे,जिन्हें शायद आप जानते ही होंगे। इनमें एक हैं इतिहास के प्रोफेसर डॉ.सुरेश मिश्र और दूसरे श्याम बोहरे जो सागर विश्वविद्यालय में उन दिनों लोकप्रशासन विषय के एकमात्र व्याख्याता थे। एमए मैंने समाजशास्त्र में किया है। और यह पहला बैच था विश्वविद्यालय से बाहर। मेरे शिक्षक थे डॉ.परिहार। उनसे भी आपका परिचय रहा ही होगा।
हटाएंराजेश जी ,
हटाएंपुराने दिन और साथी किसे भूलते हैं भला ! वहां अब भी मेरे साथ के अनेक लोग हैं और बहुत से मेरी तरह विदा ले चुके ! पहले साल में एक बार चला ही जाया करता था ! अब ये सिलसिला भी टूट गया है !
आपसे इस तरह से परिचय होगा सोचा ना था ! आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं ! समय समय पर आपसे चर्चा होती रहेगी !
चलिए आज ब्लॉग लेखन सार्थक हुआ... लोगों को फेसबुक या ऑरकुट पर बिछड़े मित्र/परिचित मिलते हुए देखे हैं, लेकिन दो अलग-अलग ब्लॉग लेखक एक तीसरे ब्लॉग पर इस तरह मिल जाएँ और एक नया रिश्ता जुड जाए या शुरू हो जाए!! पता नहीं इसे मैं क्या कहूँ.. कमाल के संजोग होते रहे हैं इस ब्लॉग पर!!
हटाएं:)))
यार दोस्त (अली सर) अपने गुण बताते ही नहीं हम जैसे मंदबुद्धि जाने तो कैसे जाने सलिल भाई !
हटाएंसलिल जी , अच्छी समीक्षा रचना को और भी विशिष्ट बना देती है। यह उतना ही सच है जितना कि यह कि अच्छी रचनाएं पाठकों को खींच ही लेतीं हैं । कविताएं बेशक अच्छी हैं । कई तो बहुत ही अच्छी लेकिन वे सुधी पाठकों तक पहुँच रही हैं यह सबसे अच्छी बात है ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
--
संविधान निर्माता बाबा सहिब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
आपका-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
राजेश उत्साही जी के प्रथम काव्य संकलन की समीक्षा और खुद रचनाकार का वक्तव्य पढने का आनन्द मिला ....
जवाब देंहटाएंबहुत शुभकामनाएं!
इस काव्य-संग्रह से विस्तार से परिचय कराने का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी समीक्षा
बहुत अच्छी समीक्षा। उत्साही जी को पढ़ना अच्छा लगता है...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दीपिका जी।
हटाएंसार्थक और सहज समालोचना……समीक्षा!!
जवाब देंहटाएंअपने प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक की इस तरह समीक्षा पढने के बाद उत्साहित हो ही जाता हूं.. कविता और कवि साथ ही भाषा और शिल्प के स्तर पर जिस तरह की समीक्षा सलिल जी ने लिखी है, वह पुस्तक को नए सिरे से पढने के लिए आमंत्रित कर रहा है.. आज फिर से पढूंगा इस पुस्तक को.
जवाब देंहटाएंबधाई ।।
जवाब देंहटाएंbahut sundar, badhai.
जवाब देंहटाएंबिना नीलकंठ हुए कहाँ कुछ शेष रहता भी है ! और जो शेष है उसे लेकर आपने एक यादगार समीक्षा की है भाई ... बारीकियों ने राजेश जी के मन के झंझावातों को सही ढंग से पाठकों से जोड़ा है ...
जवाब देंहटाएंआपके माध्यम से राजेश जी से समय समय मुलाकातें होती रही है ... पर आज की यह मुलाक़ात खास रही ! पुस्तक की एक प्रति मेरे पास भी है ... पर व्यस्तता के मारे पढ़ना नहीं हो पाया है अब तक ... पर जब जल्दी ही पढ़ूँगा ! आपका आभार और राजेश जी को हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया का इंतजार भी रहेगा।
हटाएंजी जरूर ...
हटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - चुनिन्दा पोस्टें है जनाब ... दावा है बदहजमी के शिकार नहीं होंगे आप - ब्लॉग बुलेटिन
बड़े भाई,
जवाब देंहटाएंआपके हाथों में रचनाकार द्वारा पुस्तक मिली, मुझे प्रकाशक द्वारा। सो साथ तो समीक्षा आनी ही थी। बनती भी थी।
दो ब्लॉग्स पर लिख चुका हूं, विषय मन में ताज़ा है, इसलिए लिखने लगेगा तो जल्दी अंत नहीं होगा। आपने दोनों जगह पढ़ा ही है, सो अन्य बातें।
बड़े भाई आखिर बड़े ही होते हैं, कई ऐसे पहलु थे, जो मुझसे छूट गए थे, आपने उन बिन्दुओं को भी बारीक़ी से परखा है। इसलिए कह सकता हूं, एक सम्पूर्ण और निष्पक्ष समीक्षा।
मनोज जी, हकीकत यह है कि सलिल जी वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने ज्योतिपर्व प्रकाशन से मेरे संग्रह की पहली प्रति खरीदी विमोचन के तुरंत बाद। और विमोचन कार्यक्रम कुशलता पूर्वक संपन्न हुआ,यह जानकारी भी उन्होंने ही फोन करके मुझे दी।
हटाएंगत 25 मार्च को कॉफी होम में कई अन्य ब्लागर साथियों को मैंने संग्रह की प्रति भेंट की। वहां सलिल जी भी थे,अत: एक और प्रति पाने का हक तो उनका बनता ही था।
इसलिए मेरे हिसाब से यह एक समीक्षक की नहीं बल्कि एक पाठक की समीक्षा है। ऐसे पाठक की जो किताब खरीदता,पढ़ता है और फिर समीक्षा भी लिखता है।
*
खरीदकर पढ़ने और समीक्षा करने वाले दो और व्यक्तियों का जिक्र करना चाहूंगा। एक हैं अभिषेक। वे खासतौर पर मेरा संग्रह खरीदने पुस्तक मेले में गए। संग्रह खरीदा और फिर अपने ब्लाग मेरी बातें पर इसकी समीक्षा भी लिखी। दूसरे हैं बलराम अग्रवाल । संग्रह तो उन्होंने खरीदा है, पर अभी समीक्षा की प्रतीक्षा है।
कबाड़खाना और जनपक्ष के अशोक कुमार पाण्डेय जी ने भी बताया था कि उन्होंने पुस्तक मेले से मेरा संग्रह क्रय किया है। मैंने उनसे आग्रह किया था कि वे भी उस पर अपनी प्रतिक्रिया लिखें। लिखने का वादा तो किया है।
हटाएंराजेश भाई से अविनाश जी के साथ कॉफी-होम में मिला था,जहाँ आप भी मौजूद रहे और पहली मुलाक़ात हुई.अभी तक अविनाशजी का काव्य-संग्रह तो नहीं मिल पाया पर उत्साही जी ने बड़े आदर-पूर्वक यह संग्रह भेंट किया था.मैंने इसकी कई कवितायेँ पढ़ी हैं और आपसे सहमत हूँ कि उन्होंने कविता को लिखने के बजाय जिया है.
जवाब देंहटाएंकिसी संकलन की समीक्षा के लिए उसके शिल्प और विषय और सामग्री को परखने की जो नज़र होनी चाहिए,वह अपन के पास नहीं है,पर आपने जिस तरीके से इसकी समीक्षा की है,यह खतरा मोल नहीं लेना चाहता.
इस पुस्तक को हमें सादर-भेंट करने के लिए राजेश जी का और समीक्षा के लिए आपका हार्दिक आभार !
संतोष जी एक बार खतरा मोल लेकर देखें, नुकसान में तो हरगिज नहीं रहेंगे,ऐसा मेरा विश्वास है।
हटाएंराजेश उत्साही जी,...शांत भाव से, साहित्य की सेवा करने वाले व्यक्ति मुझे लगे,..उत्साही जी को बहुत२ बधाई शुभकामनाए ....
जवाब देंहटाएंसलिल जी , आपकी समीक्षा पढकर बहुत अच्छी लगी....
.
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
उत्साही जी के काव्य संकलन की विस्तृत समीक्षा की आपने.संकलन भी अवश्य उत्कृष्ट होगा.
जवाब देंहटाएंआभार.
परफेक्ट समीक्षा!!
जवाब देंहटाएंकवि और कविता दोनों के बारे में विस्तार से बताया अपने....
जवाब देंहटाएंशीघ्र अपने देश लौटने वाला हूँ....
व्यस्तता के कारण इतने दिनों ब्लॉग से दूर रहा.
नयी रचना समर्पित करता हूँ. उम्मीद है पुनः स्नेह से पूरित करेंगे.
राजेश नचिकेता.
http://swarnakshar.blogspot.ca/
राजेश उत्साही जी का ब्लॉग पढता रहा हूँ, "जहाँ न पहुँचे रवि" को सिद्ध करने वाले सहज कवि हैं। शुद्ध कविता, नो फ़्रिल्स। आपकी समीक्षा भी सदा की तरह ईमानदार और वस्तुपरक है। पढकर अच्छा लगा। आप दोनों का धन्यवाद और दोनों को शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंराजेश उत्साही जी के प्रथम काव्य संकलन की बढ़िया समीक्षा पढने की मिली
जवाब देंहटाएंआप दोनों को हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
राजेश उत्साही जी को काव्य संकलन के लिए शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंपुस्तक से साक्षात्कार अभी शेष है।
जवाब देंहटाएंराजेश जी को उनके ब्लॉग पर लगभग दो वर्षों से पढ़ रहा हूँ। पुस्तक तो हाथ नहीं लगी लेकिन जिन कविताओं का जिक्र आपने किया है लगभग सभी पढ़ी हुई हैं। संतुलित शब्दों में अपनी बाद कहने की कला उनसे सीखी जा सकती है। उनकी कविताओं को पढ़कर लगता है कि उन्होने वही लिखा है जो जीवन में खुद महसूस किया है। उनकी कविताएं कल्पना लोक से अवतरित, सितारों जड़े शब्दों से सुसज्जित सुंदरता की मूर्ति नहीं वरन यथार्थ की धरती पर भोगे गये सच का दर्पण हैं। जिसे पढ़कर पाठक अपने मन माफिक धारणाएं बनाता है। कभी प्रसन्न होता है कभी खिसिया कर रह जाता है।
जवाब देंहटाएंएक कवि से अधिक पाठक के रूप में अपने दिल की बात खरी-खरी लिखने की उनकी आदत के कारण भी वे मेरे आदरणीय हैं।
आपकी शानदार समीक्षा को पढ़कर मैं भी टिपियाता चला गया।:)
शुक्रिया देवेन्द्र जी।
हटाएंइस समीक्षा का इंतजार काफी समय से था। 30 वर्ष के कालखंड में फैले जीवन अनुभवों से उमगी इन अनुभूतियों से सजा यह काव्य संकलन उत्साही जी की अनमोल देन है; जिसे आपकी समीक्षा ने बखूबी छुवा है। इनमें से कुछ कविताएं उत्साही जी के ब्लॉग पर पढ़ी हैं ...उम्मीद है शीघ्र ही इस पुस्तक को पढ़ने का समय भी मिलेगा।
जवाब देंहटाएंआपकी विशिष्ट अंदाज में की गई समीक्षा बहुत भाई और किताब के प्रति रुचि जगा गई है... सादर आभार।
जवाब देंहटाएंआ उत्साही जी को हार्दिक बधाई
राजेश जी की कुछ कविताएं पढ़ चुका हूं। इस प्रभावशाली समीक्षा के आलोक में पुनः पढ़ना एक अलग ही अनुभूति होगी।
जवाब देंहटाएंएक धुरंधर समीक्षक की कलम से निकली संतुलित समीक्षा! उत्साही जी के ब्लॉग के तो हम नियमित पाठक हैं, पुस्तक अभी हाथ में आना शेष है...
जवाब देंहटाएंराजेश जी की कवितायेर्ण तो वैसे भी सीधे दिल में उतर जाती हैं ...
जवाब देंहटाएंआपने भी एक परिपक्व समीक्षक की तरह आतुरता जगा दी है पाठक की ह्रदय में ...
राजेश जी का उत्साह कविता को लेकर बहुत अधिक है.... समय समय पर उनके ब्लॉग पर काव्यानंद प्राप्त करता रहता हूँ.... उनका काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है ये जानकर अति प्रसन्नता हुई... सुन्दर और बैलेंस समीक्षा...
जवाब देंहटाएंलेकिन आपको बिहारी में ही लिखना चाहिए था... रस मिलता है.
SAMIKSHA MEN WYANG AUR WYAG MEN SAMIKSHA .
जवाब देंहटाएंSUNDAR TARIKA TANG KHICHANE KA .
MAUKA KABHI NAHIN GANWANA CHAHIYE YE PATA LAGA .
तनिक स्पष्ट करें कि आप कहना क्या चाहते हैं!!! क्योंकि उसके बाद ही आपसे कुछ कहना उचित होगा!! बाकी तो जो कहा जा रहा है उसमें कवि, समीक्षक और इस पोस्ट के पाठक की प्रतिक्रियाएं सबके समक्ष प्रत्यक्ष हैं!!
हटाएंबहुत सुन्दर और संतुलित समीक्षा!
जवाब देंहटाएंराजेश जी की कविताओं को पढता रहा हूँ, छोकरा मेरी प्रिय कविताओं में से रही है।
देवेन्द्र जी की बात से भी सहमत हूँ।
आपकी गहन समीक्षा द्वारा राजेश जी की कविताओं को जाना ...
जवाब देंहटाएंआभार !
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट पर आये कुछ कमेन्ट संकलित करने लायक हैं, जहाँ ब्लॉग जगत में अक्सर लोग, लेख बिना ध्यान से पढ़े, कमेन्ट देने के अभ्यस्त हैं वहां विस्तृत कमेन्ट देखना सुखद है !
राजेश उत्साही जैसी कलम को उचित सम्मान मिलना ही चाहिए ,इस बारे में सलिल द्वारा विस्तार से लिखना बहुत प्रभावित कर गया...!
बेहतरीन प्रतिक्रियाओं युक्त यह पोस्ट संकलन के लायक है !
हाँ मुझे लगता है कि अरुण चन्द्र रॉय को कम स्थान मिला है यहाँ जबकि राजेश उत्साही को आगे लाने का श्रेय सिर्फ और सिर्फ उन्हें ही जाता है !
हटाएंराजेश उत्साही से बात करने पर पता चला है कि अरुण चन्द्र राय के परिवार ने इस पुस्तक को छापने का कोई पारिश्रमिक उनसे नहीं लिया है ! एक नए प्रकाशक द्वारा इस तरह के कदम , अस्वाभाविक लगते हैं !
अरुण चन्द्र राय और ज्योति राय को बधाई और धन्यवाद !
@ जबकि राजेश उत्साही को आगे लाने का श्रेय सिर्फ और सिर्फ उन्हें ही जाता है !
हटाएंकई उत्साही ब्लोगर लेखक के मंतव्य पर बिना ध्यान दिए, समझे, प्रतिक्रिया दे जाते हैं उन्हें बताने के लिए स्पष्ट कर रहा हूँ कि राजेश उत्साही जैसे प्रतिष्ठित लेखकों को, प्रकाश में आने के लिए किसी प्रकाशक की आवश्यकता नहीं है , मगर बेहतरीन लेखकों को भी एक प्रकाशक की आवश्यकता पड़ती है जिससे उनकी रचनाएं आम आदमी तक पंहुच सकें !
और प्रकाशक अगर अरुण चन्द्र राय जैसा साहित्यकार हो तो बात ही क्या ...
@ जबकि राजेश उत्साही को आगे लाने का श्रेय सिर्फ और सिर्फ उन्हें ही जाता है !
जवाब देंहटाएंकई उत्साही ब्लोगर लेखक के मंतव्य पर बिना ध्यान दिए, समझे, प्रतिक्रिया दे जाते हैं उन्हें बताने के लिए स्पष्ट कर रहा हूँ कि राजेश उत्साही जैसे प्रतिष्ठित लेखकों को, प्रकाश में आने के लिए किसी प्रकाशक की आवश्यकता नहीं है , मगर बेहतरीन लेखकों को भी एक प्रकाशक की आवश्यकता पड़ती है जिससे उनकी रचनाएं आम आदमी तक पंहुच सकें !
और प्रकाशक अगर अरुण चन्द्र राय जैसा साहित्यकार हो तो बात ही क्या ...
राजेश उत्साही जी से मुलाकात हुई और एक प्रति भी प्राप्त हुई, अभी तो पढ़ ही रहे हैं, बहुत सारी कविताएँ पढ़ने और समझने के लिये लेखक की लेखनी में जाना पड़ता है, इसलिये हमें तो साहित्यिक किताबें पढ़ने में समय ज्यादा लगता है, क्योंकि रस तो तभी आयेगा, जब लेखक की लिखी हुई एक एक शब्द और पंक्ति अंतरतम तक जाये। सलिल भाई आपकी प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद तो ऐसा लग रहा है कि हाँ हम बिल्कुल सही तरह से किताब पढ़ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंek achhe aur sachhe kavi ke kriti ko jitne sundar tarike se apne samiksha ki hai.......o' swadhya ke
जवाब देंहटाएंliye prerit karte hain.......jiske liye apka abhar..
hardik subhkamnayen shradhai 'uttsahiji' ko.......
tippaniyon ke madhyam se 'sundar sapnewale' ali sa
dwara rochak sanjog se avgat karane ke liye sukriya..
@ राजेश उत्साही से बात करने पर पता चला है कि अरुण चन्द्र राय के परिवार ने इस पुस्तक को छापने का कोई पारिश्रमिक उनसे नहीं लिया है ! एक नए प्रकाशक द्वारा इस तरह के कदम , अस्वाभाविक लगते हैं !
roy'ji.....bahut bahut dhanyawad.......
pranam.
उत्साही जी को नियमित पढ़ती हूँ................आपके नज़रिए से उन्हें देखना भला लगा....
जवाब देंहटाएंआपका बहुत शुक्रिया.
अनंत शुभकामनाए आपको एवं राजेश जी को.
सर्वप्रथम तो राजेश उत्साही जी के इस प्रथम काव्य संकलन पर ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ ! श्री राजेश जी को जितना मैंने अल्प समय में जाना है, कहना चाहूँगा कि वो जब भी किसी कविता अथवा कुछ भी पढ़ते हैं तो बगैर किसी लार-लगाव और चापलूसी के ईमानदारी से अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और उनकी प्रतिक्रियाओं में ही उनकी बहुमुखी प्रतिभा से भी रूबरू होने को मिल जाता है. राजेश जी रचनाओं का वो रुख़ पढ़ लेते हैं तो अक्सर बड़े से बड़ा आलोचक भी नहीं पढ़ और देख पाता है. अपनी बात को वो तार्किक रूप से रखते हैं.ब्लॉग जगत में लेखन को सशक्त अभिव्यक्ति को सही मायनो में सही दिशा और गति श्री राजेश जी ने ही दी है. गंभीर चिंतन, सशक्त सहज अभिव्यक्ति और अन्यान्य लेखकों को तरजीह देते हुवे व्यक्तिगत विचारों को कभी अपने साहित्यिक लेखन अथवा आलोचना में आड़े नहीं आने देते. कर्म और ईमानदारी- सबसे बड़ी ताक़त है राजेश जी की कलम की. वो जितना सख्त लगते हैं असल में उतने ही सहज, सरल और स्नेहिल हैं.
जवाब देंहटाएंउनका काव्य संग्रह भले ही प्रथम हो और पर वो स्वयं में एक सम्पूर्ण महाकाव्य है, जैसा कि श्री सलिल जी की समीक्षा से ज्ञात हो रहा है. राजेश जी ने अपना कवि परिचय स्वयं अपनी पंक्तियों दे में दिया है-
इसलिए पढ़ो/कि कवि/ स्वयं भी एक कविता है/ बशर्ते कि तुम्हें पढ़ना आता है!
हाँ, सच है ये, ये स्वयं एक गर्भधारण से लेकर प्रसव तक की साक्षात् कविता है, बशर्ते हम पढ़ पायें.
हालाँकि भौतिक रूप से इनका काव्य संग्रह पढ़ने का अभी तक सौभाग्य नहीं मिल पाया है पर आशा है जल्द ही मिलेगा.
श्री सलिल जी ने राजेश जी के स्वभावानुसार ही सहल, सरल और ईमानदारी से समीक्षा लिखी है, जो राजेश जी की कविताओं का बहुआयामी दृश्य उपस्थित कर जिज्ञासित कर रही है.
ज्योतिपर्ब प्रकाशन और राजेश जी को पुनः बधाई ! श्री सलिल जी का इस मुक़म्मल समीक्षा हेतु साधुवाद !!
“वह, जो शेष है! के प्रकाशन पर सर्वप्रथम तो उत्साही जी को बहुत-बहुत बधाई आपका बहुत आभार जो पुस्तक की इतनी अच्छी समीक्षा की ...शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंपुस्तक तो नहीं पढ़ी, मनोज कुमार जी का पुस्तक परिचय के अन्तर्गत और आपका संक्षिप्त एवं मौलिक मूल्यांकन पढ़कर पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा जग गयी है। आपलोगों के हाथ में पुस्तक देखकर मन ललचा रहा है।
जवाब देंहटाएंआज तो सलिल भाई का ब्लॉग मनमोहन देसाई की फ़िलिम सा लग रिया है, कुंभ का मेला - दो भाई - एक भाई गुरू श्रेणी - दूसरा भाई शिष्य - क्या बात है:)
जवाब देंहटाएंसमीक्षा बहुत ईमानदार लगी और राजेश जी की इस पर प्रतिक्रिया भी। कविताओं की संख्या पर यूँ तो आप लोग कह ही चुके हैं लेकिन अपने को एक विज्ञालन की पंचलाईन याद आ गई - quality, & not the quantity counts. सार्थक कुछ है तो मात्रा कितनी भी अल्प क्यूँ न हो, स्वीकार्य भी है और शिरोधार्य भी।
एक बार फ़िर से बधाई राजेश जी को, साधुवाद अरुण जी को और आपको तो आभार खैर क्या देना? आप तो क्रैडिटर बने रहें हमारे, हमेशा..। आमीन भी खुदै बोल देते हैं:)
अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा की
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं
राजेश उत्साही जी को पढ़ते रहते हैं ....आपकी समीक्षा से और अच्छे से जाना ...
जवाब देंहटाएंआप दोनों को शुभकामनायें ...
सार्थक समीक्षा!
जवाब देंहटाएंसादर!
कविता यदि आत्मा पर चोट न करे तो कवि की रचना सार्थक नहीं.
जवाब देंहटाएंइस ब्लॉग की सीख |
राजेश जी को उनके कविता संग्रह के लिए हार्दिक बधाई |
सादर