शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

दाँतों की डॉक्टरनी

हर रोज़ घूमते-फिरते न जाने कितने लोग मिलते हैं. किसी के साथ कोई रिश्ता निकल आये तो उससे दो बातें भी हो जाती हैं और कितने तो बस कुछ दूर साथ चलकर अपने रास्ते निकल जाते हैं. ये बोलने-बतियाने वाले या चुपचाप निकल जाने वाले भी अपने अन्दर कितनी कहानियाँ और क़िस्से छिपाये रहते हैं, कौन जाने. ज़रा सा कन्धे पर हाथ रख दो या प्यार से पूछो – कैसे हो दोस्त, तो हज़ारों दास्तानें फूट पड़ती हैं.

ऐसे ही एक रोज़ फेसबुक पर एक पोस्ट में अभिषेक ने एक मोबाइल ऐप्प के ज़रिये, एक महिला डेण्टिस्ट का ज़िक्र किया. जैसा कि हमेशा उसके साथ होता है, उसके तमाम दोस्तों ने इस घटना को एक मज़ाकिया शक्ल देकर उसकी चुटकी लेनी शुरू कर दी. पोस्ट देखकर दो किरदार मेरे दिमाग़ में उभरे. मैंने भी चुटकी लेते हुये एक मरीज़ और डेण्टिस्ट की बातचीत पोस्ट की. मक़सद था अभिषेक के साथ चुहलबाज़ी करना. इसको एक थर्ड परसन का फ़्लेवर देने के लिये, इसे एक उपन्यास का अंश बता दिया. लोगों की प्रतिक्रियाएँ देखते हुये ये सिलसिला दो चार पोस्ट तक चला. जिसमें अलग-अलग तरह की बातें थीं; बेमक़सद, बेतरतीब.

इसी बीच जब गिरिजा दी को यह पता चला कि ये किसी उपन्यास का टुकड़ा नहीं, बल्कि मेरी रचना है तो उन्होंने मुझसे कहा कि सम्वाद अच्छे हैं, लेकिन इसमें कहानी नदारद है. अब कहानी लिखना तो मेरे बस की बात नहीं थी. सो मैं घबरा गया. रोज़ कुछ न कुछ लिखकर बतौर फेसबुक स्टैटस पोस्ट तो किया जा सकता है, लेकिन कहानी लिखने के लिये बहुत सी बातों का होना ज़रूरी है, जो मुझमें बिल्कुल नहीं. एक घटना को संस्मरण के रूप में तो मैं प्रस्तुत कर सकता हूँ, लेकिन एक काल्पनिक घटना बुनना मेरे लिये असम्भव था. ऐसे में पीछे लौटना भी मुमकिन नहीं था मेरे लिये.

यही नहीं, एक और समस्या ये थी कि अब मेरे किरदार भी मेरे बस में नहीं थे. वे पूरे के पूरे घटना में ढल गये थे. अगर इस तरह बीच रास्ते में उन्हें छोड़ देता तो वो मेरी रातों की नींद हराम कर देते. मुझसे रातों को जगा कर सवाल करते कि “कश्ती का साहिल होता है, मेरा भी कोई साहिल होगा” तो क्या जवाब देता. एक कहानी के किरदार इस तरह बेदखल हो जाएँ कहानी से तो कभी माफ़ नहीं करते और ऐसे में मैं दुनिया भर की बद्दुआ तो सह सकता हूँ अपने पात्रों की क़तई नहीं.

फेसबुक पर मेरी पोस्ट कोई नहीं पढ़ता और उसपर कमेण्ट करना तो बिल्कुल ही ज़रूरी नहीं समझता. फिर भी कुछ लोग इससे जुड़े, इसे पढ़ा और बहुत मज़ेदार प्रतिक्रियाएँ दीं. इससे एक फ़ायदा ये हुआ कि मुझे एक रास्ता मिल गया; एक सिरा, जिसे पकड़कर मैं इस बेतरतीब से सिलसिले को “कहानी” का नाम दे सकता था. लोग कहानी का अनुमान लगाते गये, मैं कहानी में बदलाव लाता गया और प्रतिक्रियाओं की भीड़ में बदन समेटे कहानी आगे बढ़ती रही.
सिर्फ दो पात्रों से शुरू हुए सिलसिले में प्रियंका की ज़िद के कारण एक नया कैरेक्टर दाख़िल हुआ और फिर कहानी की माँग के हिसाब से दो और ज़रूरी कैरेक्टर शामिल हुये, जिसमें से एक इस पूरी कहानी का केन्द्रीय पात्र था, जबकि कुछ लोग सिर्फ़ ज़िक्र में शामिल रहे. कहानी का यह फ़ॉर्मैट मुझे हमेशा से पसन्द रहा है, हो सकता है कि कहानियाँ पढ़ते समय उन्हें विज़ुअलाइज़ करना और उनका ड्रामेटाइज़ेशन मुझे हमेशा सहज लगता रहा है. माँ प्रतिभा सक्सेना ने जबसे अपने ब्लॉग पर “कथांश” शीर्षक से एक धारावाहिक कथा-शृंखला प्रस्तुत की थी, तब से यह विचार मेरे दिमाग़ में समाया था. माँ के कहने पर उनकी एक पूरी पोस्ट मैंने अपनी तरह से लिखी थी, जिसे उन्होंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट भी किया था. तो ये स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि इस शृंखला की जननी डॉ. प्रतिभा सक्सेना हैं.  

जहाँ तक शुरुआती पोस्ट में दाँतों के ईलाज में दंत-चिकित्सा से जुड़े तथ्यों का प्रश्न है, उसके लिये आवश्यक जानकारी अभिषेक और मेरी सहयोगी सुश्री सरोज चौधरी ने उपलब्ध करवाई. रश्मि प्रभा दी, अंशुमाला, सुमन पाटिल, अर्चना तिवारी, प्रियंका गुप्ता, निवेदिता, वन्दना दी, वाणी, श्री मनोज भारती, डॉ. सुशील त्यागी और देवेन्द्र पाण्डेय जी ने समय समय पर अपनी कीमती टिप्पणियों के माध्यम से मुझे रास्ता दिखाया. मेरी बहन विनीता, भाई शशि प्रिय, बहु अनुपमा और पौत्री अभिलाषा के प्रोत्साहन ने बड़ा बल दिया. सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव  के ब्लॉग की टैग लाइन और ख़लील जिब्रान की एक उक्ति जो मुझे सदा से आकर्षित करती रही है, सम्वादों में पिरोकर मैंने साझा किया. चुँकि इस कथा में हर पात्र अपनी दिव्य दृष्टि से अपने भूत और भविष्य में झाँक रहा था तथा एक दूसरे से साझा कर रहा था, इसलिये भाई चैतन्य आलोक ने शीर्षक सुझाया “संजय उवाच” जो इस कथा को एक सांकेतिक अर्थ प्रदान करता है.

एक बात परमात्मा को साक्षी मानकर स्वीकार करना चाहता हूँ कि इस कहानी में सम्वादों के माध्यम से जितनी भी घटनाओं का ज़िक्र आया है, उनमें कुछ भी बनावटी नहीं है. इन सारी की सारी घटनाओं का अपने जीवन काल में साक्षी रहा हूँ मैं और जानता हूँ कि मेरे परिवार में या बाहर जो कोई भी उन घटनाओं से जुड़ा रहा है उन्हें वे बातें स्मरण हुई होंगी. जाने-अनजाने मैंने किसी को आहत किया हो तो उसके लिये भी मैं क्षमा चाहता हूँ, क्योंकि मुझे पता है कि कई जगहों पर अपने पात्रों की बातों से मैं ख़ुद आहत हुआ हूँ.


मेरे लिये कहानी लिखना एक प्रयोग था और सम्वादों के माध्यम से लिखना भी उसी प्रयोग का हिस्सा था. इसमें कितना सफल हुआ या असफल रहा यह फ़ैसला तो आपके हाथों में है. लेकिन मैंने सोच रखा था कि अपने किरदारों को आज़ाद छोड़ दूँगा ताकि वो खुलकर अपनी बात कह सकें और मेरा दखल बिल्कुल ही न हो. गुरुदेव राही मासूम रज़ा के शब्दों में मैं कोई तानाशाह नहीं कि कहानी लिखते समय अपने पात्रों के हाथ में एक डिक्शनरी थमा दूँ और हण्टर फटकारते हुये कहूँ कि तुम्हें एक भी लफ्ज़ इससे बाहर बोलने की इजाज़त नहीं है. 

25 टिप्‍पणियां:

  1. आप बिलकुल सहज हो कर लिखते हैं। ..आपने मेरी कहानी भी लिखी है। ... बहुत अच्छा लगा । आपके आसपास कितने अच्छे लोग हैं... सभी से कुछ न कुछ सीखने की प्रेरणा मिलाती रहती है ,प्रणाम उन्हें भी। ...लिखना जारी रखियेगा। ..

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  2. बढ़िया वर्णन | किरदारों की आज़ादी कहानी को नै दिशा भी दे सकती है |

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  3. बहुत बढ़िया । आप जब बीच बीच में छुट्टी पर चले जाते हैं और फिर अचानक से निकल कर आते हैं एक नये प्रयोग के साथ अच्छा लगता है ।

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  4. महिला डेन्टिस्ट का ज़िक्र जिनने किया इस शृंखला का बीज उन्हीं से पाया तुमने फिर इतने सारे लोग रास्ता दिखानेवाले ,पात्रों की परिकल्पना कर उनका व्यक्तित्व निर्माण ,उनके जीवन में उठी समस्याओं से जूझना -बाह्य और आंतरिक द्वंद्व के साथ उनका चित्रण -केवल संवादों के द्वारा (रेडिओ की रूपक शैली )प्रस्तुत करना तुम्हारा काम रहा .लेकिन इस सब में मैं कहाँ हूँ (., एक बार मेरे साथ लिख कर कय़ा का अध्याय लिखने की धड़क खुल गई यों कहो तो ठीक )?.
    मुख्यकाम है सारा कुछ समेट कर उसे एक सुनियोजित स्वरूप दे कर प्रस्तुत कर देना .इधऱ-उधऱ बिखरे कथानक बहुत हैं ,जिसे जो भा जाय.डिस्कशन ,सलाहम-शविरा ,सुझाव ये तो साहित्यका-मित्रों का शगल ही है .तुम्हारे मन में जो कुछ अभिव्यक्ति के लिये व्याकुल हो रहा था ,बाहर तो उसे आना था .किसी भी माध्यम के बहाने .मुख्यबात है -उसे व्यक्त कर तुम्हें तुष्टि मिली और हम सब को रसास्वादन कर आनन्द की प्राप्ति .
    फिर भी सलिल,तुमने मुझे श्रेय दिया प्रसन्न होऊँगी ही .

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  5. ‘संजय उवाच’ तो नहीं पढ़ पाया लेकिन इस का ‘बिहाइंड द स्क्रीन’ पढ़कर जाना कि कहानी लिखने के पीछे भी एक कहानी होती है। बधाई आपको, सलिल जी ।

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  6. अव्वल तो आज आपकी पोस्ट से भोजपुरी तड़का गायब है, साथ ही मिथ्या वचन भी है, कि आपकी फेसबुक पोस्ट को कोई नहीं पढ़ता! जब कि हमें आपकी पोस्ट पर पढ़ने और कमेन्ट करने वालों की ऐसी ही लंबी लाइन कतार नजर आती है जैसी ए. टी. एम. के बाहर नोट निकालने वालों की दीख पड़ती है! बाकी रही राह दिखाने की बात... सो बता दें कि हम आपके प्रशंसक हैं, पथ प्रदर्शक नहीं!

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  7. आ गई यहाँ एक माँ, जो दर्द का इलाज करते हुए अपने दर्द की दवा अपना बेटा ढूँढ रही है ... दर्द जब हद से ऊपर आ जाये तो हर शख्स,हर बात - यहाँ तक की दरो दीवारों में भी वही बात नज़र आने लगती है !
    इस कहानी में हर किसी ने खुद को महसूस किया और किसी सच का कहानी रूपांतरण सार्थक है, और सबकी आँखों में तैरते एहसास उसका पुरस्कार

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  8. बहुत सार्थक बाते लिखी है, सच कहूँ तो हर रचनाकार को खुद के लेखन को जांचने परखने के लिए कसौटी चाहिए होती है सुधि पाठकों के रूप में, प्रशंसा के साथ-साथ अच्छी प्रतिक्रियाएँ भी मिले तो रचना और रचनाकार दोनों सध जाते है,निखर उठते है !अब तो सब कुछ स्पष्ट हो गया है जो थोड़ा बहुत अस्पष्ट था वो भी! हो सके तो उपन्यास की प्रिंटेड कॉपी किसी अच्छी पत्रिका में छापने हेतु भेज दीजिये यह भी एक आईना ही है खुद के कद को नापने का ! :)

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  9. संवादों में किस्से तो पहले भी आ चुके थे , ब्लॉग पर मैंने भी चमेलिया जी वाले व्यंग्य सिर्फ बातचीत में लिखे थे , तुम्हारी अमृता नाम के नाटक के बारे में भी सुना था , जो सिर्फ दो लोग पत्र पढ़ कर कर रहे थे , किन्तु कहानी हो सकती है और ये लोगो को पसंद आएगा इस बारे में मैंने भी सोचा था । दूसरी बात सोची थी की कहानी धारावाहिक जैसे भी होने चाहिए एक कहानी या किस्सा उसी दिन ख़त्म । आप की कहानी शुरू हुई बिलकुल उसी धारावाहिक की तरह , एक एपिसोड में उस दिन की कहानी वही ख़त्म , अभिषेक के कारण ध्यान भी खिंचा , लेकिन उस कारण सभी का ध्यान प्रेम कहानी की तरफ ही घुमा , जब वो नहीं हुआ तो ये संवाद कहानी की कमी लगी । यदि नाटक या फिल्म होता तो वो दिखता , कहानी में आयु के लिए उनके रूप रंग का वर्णन करना पडता है किन्तु यहाँ ऐसा नहीं हुआ । मेरी ऐसी सोच है कि हम पाठक को अधूरी जानकारी नहीं दे सकते है संवादों में ही सही आयु की जानकारी तो देनी ही होगी रूप रंग की भले न दे (मैं गलत हो सकती हूँ क्योकि साहित्य से मेरा नाता नहीं है ) । प्रेम कहानी की बात भी अभिषेक के किस्से के कारण आई वो किस्सा न होता तो शायद सभी इस ओर नहीं सोच पाते , किन्तु अचानक की बातचीत जो कही से भी दो अलग आयु वर्ग की नहीं लग रही थी , वो माँ बेटे में बदल गई , ये बदलाव साफ दिखा की कहानी को अचानक बदला गया , उसे दूसरी जगह मोड़ दिया गया । जिसने भी आप को पहले भी ब्लॉग पर पढा होगा वो अच्छे से समझ रहा था की कहानी पीछे छूट गई संवाद अब सलिल जी बोल रहे है और अब कहानी में अभिषेक पीछे छूट गये सलिल जी आ गये है । मुझे कहानी में अभी और संभावनाए दिख रही थी और बहुत सारे किस्से भी किन्तु आप ने कहानी भी जैसे अचानक से ही ख़त्म कर दिया । कहानी अपने आप में पूरी ख़त्म हुई एक अच्छे अंत के साथ किन्तु जब ये प्रिंट में आयेगा तो उम्मीद है इसमे और किस्से होंगे । सिर्फ एक आम पाठक का नजरिया ।

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  10. आप तो हमेशा ही अच्छा लिखते हैं ..हालाँकि आपके 'दाँतों की डक्टरनी' पर पूरी तरह ट्रैक नहीं रख पायी..

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  11. एक एक एपिसोड पढा और बडे दिन बाद किसी पोस्ट का इंतज़ार रहता था यानी एडवांस बुकिंग।

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  12. चाचा हम लोगों को भी बहुत मज़ा आया ये सीरिज में...एकदम जुड़ गए थे हम सब...अब सच में शाम में अक्सर याद आएगा ये सब एपिसोड :)
    और दांतों की डोक्टोरनी की मेकिंग वाले इस पोस्ट में तो मजा आ गया.. हालाँकि सब तो पहले से पता ही था लेकिन फिर भी बहुत अच्छा लग रहा है...अब हम सब लोग चाहते हैं कि इसका दूसरा भाग जल्दी से जल्दी लिखिए आप :) :)

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    1. तुमको तो बड़ा पहले से पता रहता है सब...:/
      बाकी खुश हो जाओ, तुम्हारा नाम तीन बार लिए हैं चचा इस पोस्ट में...मेरा सिर्फ दो बार...:P :P

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  13. फेसबुक पर मेरी पोस्ट कोई नहीं पढ़ता और उसपर कमेण्ट करना तो बिल्कुल ही ज़रूरी नहीं समझता.
    इससे हम पूरी तौर से असहमत हैं...:(
    रही बात इस कहानी की, तो हम तो लगातार आपको अपनी प्रतिक्रया बताते ही रहे तो अब उसको दुबारा नहीं लिख रहे...| बाकी इसमें कोई शक नहीं कि ये प्रयोग बहुत मजेदार और सार्थक रहा...| हाँ, और ये भी कि आपने जैसा कि हमसे एक दिन कहा था कि इसका अंत तुम अंदाजा नहीं लगा सकती, हुआ बिलकुल वही...|
    बस, इस ट्विस्ट के कारण मरीज की जीभर के टांग खिंचाई करने से हम वंचित रह गए, पर कोई नहीं...वो तो हम बिना किसी वजह भी कर ही लेते हैं...|
    आपकी इस पोस्ट में अपना भी नाम दो-दो बार देख कर हम तो बहुते खुश हो गए न...:) बाकी अगर आपकी अगली कहानी में भी बजट की समस्या हुई तो ज़िद करने के लिए आपकी ये भतीजी है न...:D
    आपके अगले किस्से का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हम सब...:) :)

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  14. कहानी की कहानी लिखना भी अपने आप में बहुत जोखिम भरा काम है .. पर आपने बाखूबी इसे अंजाम दिया है ... और जिन्होंने भी आपका सहयोग किया उनका सफ़र भी रोचक रहा होगा ये आपकी पोस्ट से साफ़ लग रहा है ... बहुत बहुत बधाई बातों बातों में लिखी कहानी पर ...

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  15. 'संजय उवाच' तो नहीं पढ़ पाया,यदि लिंक दे सकें तो अच्छा हो.वैसे कई कहानी कई बार खुद बन जाती है.एक बार लिखना शुरू करें तो आगे का कथानक भी स्पष्ट होता जाता है.मुझे ऐसा ही लगा है.

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  16. सुधांशु जी की दमदार, टिकी रचनाएं व्यवस्था से प्रश्न करते भाव सीधे मन में उतर जाते हैं ... बहुत ही विस्तृत केनवास है इनका ...
    आपका आभार ऐसी कलम से मिलवाने का ... नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनायें ...

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