अपने देस में रेलवे का जाल अईसा फैला हुआ है, जईसे अदमी के देह में नस अऊर नाड़ी का. अगर नस में खून दौड़ना बंद कर दे अऊर देस में लोहा का पटरी पर रेल, त समझिये जीबन समाप्त. अऊर हमरा त रेलवे के साथ बहुत गहरा रिस्ता है. हमरा नस में भागने वाला खून में हेमोग्लोबिन कम अऊर रेलवे का सोडियम क्लोराईड (नमक) बेसी मिलेगा. पिता जी का पूरा जीबन इसी रेल के सेबा को समर्पित रहा. अऊर रिटायर होने के कुछ साल के अंदर अंदर दुनिया से रिटायर हो गए. रेलगाड़ी को भागते हुए देखना, बचपन से लेकर आज तक बहुत अच्छा लगता है. एतना साल में छुकछुक गाड़ी का रंग बदलकर लाल से बुलू हो गया, लेकिन हमरा प्रेम का रंग नहीं बदला.
कोनो आम आदमी के लिए तो गाड़ी पर टिकट लेकर बैठना, लेट होने पर गाली देना, रेलवे को कोसना और अपना मंजिल आ जाने पर उतर कर चले जाना. बस खेल खतम पईसा हजम. मगर एही लोहा के पटरी पर, बिना जाड़ा, गर्मी, बरसात का परवाह किये लगातार दौडता रहता है ई रेलगाड़ी. केतना आदमी, केतना सामान एक कोना से दोसरा कोना तक पहुंचाता है, बिना सिकायत. आराम भी नहीं करता है बेचारा रेलगाड़ी, एगो यात्रा खतम और दोसरा का तैयारी चालू. सायद एतना बर्दास्त करने का सक्ति और सेवा-भावना के कारन रेलगाड़ी को हमलोग स्त्रीलिंग में प्रयोग करते हैं. धरती माँ के तरह या हमारी अपनी माँ के तरह.
मगर आम आदमी को सायद कभी इ ध्यान भी नहीं आता होगा कि सारा दुनिया का गाड़ी तो भगवान चलाता है, मगर पटरी पर इ सब रेलगाड़ी को एक साथ कौन चलाता है! केतना मोसकिल का काम है, कौन गाड़ी आगे जाना है, कौन बाद में, किसको कहाँ रोकना है और किसको आगे बढ़ा देना है. बस गाड़ी पर बैठा हुआ आदमी एही समझता है कि उसका गाड़ी लेट हो गया और एक्के सांस में जेतना गाली होता है सब दे जाता है. लेकिन कंट्रोल रूम में बईठा लोग केतना टेंसन में गाड़ी को कंट्रोल करता है, ई बात सब लोग नहीं समझ पाता.
कंट्रोल रूम में बैठा हुआ आदमी, पूरा ध्यान लगाकर पूरा सेक्सन का एक एक गाड़ी को देख रहा होता है. जरा सा ध्यान इधर से उधर हुआ नहीं कि दुर्घटना घटा. उत्तर रेलवे उस समय मुगल सराय के बाद से सुरू होकर दिल्ली तक पसरा हुआ था. इसी पर कानपुर के कंट्रोल रूम में हमरे पिता जी के साथी श्री एस. बी. श्रीवास्तव सेक्सन कंट्रोलर थे. रेलवे में एगो बड़ा अजीब परम्परा है, किसी को पूरा नाम से कोई नहीं जानता. रेलवे में लोग का नाम होता है के. पी. मिश्रा, डी. एन. पाण्डे, एम. सी. सक्सेना, डी.पी. सिन्हा, आर. के. संतप्त, एस. एल. सोनकर आदि. त पिताजी के ई दोस्त या तो बच्चा लोग के श्रीवास्तव चाचा थे या दोस्त लोग के एस. बी. थे.
उनका काम एतना अच्छा था कि दिल्ली तक लोग उनका तारीफ करता था. बस एही समझिये कि दर्जन भर गाड़ी एक साथ पटरी पर उनके इसारा पर दौड़ता था, बल्कि नाचता था. कोई गार्ड, कोई ड्राइवर, या कोई भी चीफ कंट्रोलर को उनके काम से कभी कोई सिकायत नहीं हुआ. ऊ खुद भी खाली बईठने वाले आदमी नहीं थे. कम्प्यूटर का जमाना नहीं था अऊर मालगाड़ी अऊर सवारी गाड़ी के लिये अलग अलग ट्रैक नहीं था. तब भी उनका काम देखकर सबका कहना था कि ऊ कम्प्यूटर से भी अच्छा काम करते थे.
मगर हर अच्छाई के साथ कोनो न कोनो खराबी तो होता ही है. वईसहीं हर काम करने वाला आदमी को भी काम से ऊबकर तनी रिलैक्स करने का मन तो करता ही है. जेतना टेंसन वाला काम, ओतने दिमाग सांति खोजता है. श्रीवास्तव चाचा को भी आदत था सिगरेट पीने का. अपने काम के बीच में समय निकालकर ऊ सिगरेट पीने चले जाते थे. मगर सिगरेट पीते टाइम भी उनको हर धुँआ के साथ साथ, धुँआ छोड़ता हुआ गाड़ी का ध्यान बराबर रहता था.
एक रोज अचानक कोनो सर्प्राइज इंस्पेक्सन हो गया. अऊर सरकारी इंस्पेक्सन के तरह ई सर्प्राइज इंस्पेक्सन बताकर भी नहीं हुआ. संजोग से जब उनके पास बड़ा साहब आए तो ऊ उस समय सिगरेट पीने निकले हुए थे. उनको बुलाकर लाया गया अऊर उनके तरफ से उनके चीफ साहब सफाई दिये. खुद बड़ा साहब भी श्रीवास्तव चाचा के महिमा से परिचित थे. मगर सब लोग एक समय में अपना अपना ड्यूटी से बँधा हुआ था. चाचा जी सिर झुकाकर गलती मानते हुए, चीफ साहब सफाई देते हुए और बड़ा साहब ई कहते हुए कि ऊ भी मजबूर हैं, कारवाई त करना ही होगा.
श्रीवास्तव चाचा को जो सजा मिला ऊ हमको लगता है कि सरकारी महकमा में अपने ढंग का अनोखा सजा रहा होगा. सजा के तौर पर उनका तबादला इलाहाबाद कर दिया गया, सिर्फ एक महीना के लिये. एक महीना के बाद फिर से कानपुर में बहाली. इलाहाबाद में उनको कोई काम नहीं दिया गया. सिर्फ बईठकर एक महीना का बेतन मिलना था उनको.
ई सजा का बात सुनकर तो सब लोग एही सोचेंगे कि भला ई कोनो सजा हुआ, ई त ईनाम हो गया उनके लिये. चाचा जी इलाहाबाद आ गए, हमारे क्वार्टर में. बहुत उदास रहते थे. काम के प्रति समर्पित आदमी के लिये बिना काम के बईठने का सजा से बड़ा कोई सजा नहीं हो सकता, ई उनका बेचैनी देखकर मालूम होता था. एक हफ्ता के बाद ऊ लिखकर माफी माँग लिये अऊर फिर से उनको कानपुर भेज दिया गया.
पता नहीं उनका सिगरेट पीने का आदत छूटा कि नहीं. मगर बहुत बड़ा बात सिखा गया ई घटना. सजा एतना प्यारा भी हो सकता है कि सजा का मियाद पूरा होने से पहले दोसी माफी माँग ले. अगर उनको सस्पेण्ड कर दिया गया होता, इंक्वाइरी होता या सचमुच इलाहाबाद ट्रांसफर कर दिया गया होता, त का उनको अपना गलती का एहसास होता या उनपर एतना गहरा असर होता!!
galti kee saja hee aisi honi chahiye ki galati ka ehsas ho ...bachpan men ego cinema dekhe the "dushaman" usme rajesh khannaa ko di gayi saja yaad aa gayi.... khair ummed hai ciggy keee aadat chhuti ho ya na..lekin duty ke waqt wo nahi jaate honge.....hehehe
जवाब देंहटाएंसही है कर्मठ व्यक्ति के लिये खाली बैठना सजा है।
जवाब देंहटाएंएक ही कार्य पर ध्यान केन्द्रित रखने के बोझिल तनाव में ही सम्भवतया सिगरेट की आदत पडती है। और यही आदत निभाने के लिये काम से जी हटता है।
अच्छा लोगों को जब सजा मिलता है, उसमें सुख मिल जाता है। परिचालन प्रबन्धक का धन्यवाद दीजिये, सजा का सजा और कोई कष्ट नहीं।
जवाब देंहटाएंअंत भला तो सब भला !
जवाब देंहटाएंकई बार कुछ लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता की सजा क्या मिली ये बात ही काफी होती है की सजा मिली है और ऐसे लोगों को ही अपनी गलती का ज्यादा अहसास होता है और सजा का फर्क भी पड़ता है नहीं तो लोग खून करने के बाद भी अपनी गलती ना मान के शान से बिना अपराधबोध के जीते है |
जवाब देंहटाएंआदर्श स्थापित करने की कहानी, नीति और बोध कथा जैसा लगा, घटना का विवरण.
जवाब देंहटाएंएस.बी. चाचा को हमारा सादर नमस्कार ! सही राह पर चलने वालों की परीक्षा भी कठिन होती है. सलिल भाई ! राउर हमरा के छुक-छुक गडिया के याद करा दिहलीं.....धुंआ वाली ......ओह्के गंध आजौ दिमाग मं बसल बिया. कानपुर स्टेशन के चप्पा-चप्पा से परिचित बानी हमहूँ.
जवाब देंहटाएंकाम के प्रति जिम्मेदार व्यक्ति के लिए इससे बड़ी सजा क्या हो सकती है की उसे काम ही नहीं करने दिया जाए ...
जवाब देंहटाएंएक अच्छा सबक !
बड़ा हर्ट टचिंग एक्सपीरिएंस बता गए बड़े भाई। सच्चे कहे हैं कि चौबीसों घंटे अपने काम के प्रति समरपित लोग को कोई बोले कि आप बैठ कर खाएं तो उसके लिए इससे बरका और कोई सजा नहीं है। बाकी ई रेलबे से त अपनो वैसने नाता है जैसन आपका है अऊर ऐसन अनुभव हमरो घर में हुआ, अऊर हमरे पिताजी त डिप्रेसन का ऐसन सिकार हुए कि उनका ईलाज करबाने उनको हैदराबाद ले जान परा।
जवाब देंहटाएंपिताजी की याद आ गई। वे पहले सेक्शन कंट्रोलर और फिर चीफ कंट्रोलर बने थे। तब तो कम्पयूटर तकनीक वहां नहीं पहुंची थी। एक बड़े से कागज पर रंग बिरंगी पेंसिलों से उस सेक्शन में चलने वाली गाडि़यों को रेखाओं के माध्यम से दिखाया जाता था। एक-एक सेंकड का हिसाब।
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सजा तो तभी कारगर है जब वह व्यक्ति को अपना आत्मावलोकन करने के लिए प्रेरित करे।
ये सज़ा भी कमाल की है. रेलवे की बात करके आपने हमें हमारी ढेरों सुहानी रेल यात्राएं याद दिला दी.
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गया सर.
खड्गसिंह जी 18 जनवरी को उमरकैद के कितने साल पूरे हुए यह तो बताइए। बहरहाल उमरकैद कभी खत्म न हो बाबा भारती की तरफ से यही कामना है।
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सलिल भाई विवाह वर्षगांठ और मजबूत हो,यही शुभकामना है।
काम के प्रति समर्पित लोगों को ऐसी सजा भी बहुत ठेस देती है ...लेकिन उनको माफ़ी मिल गयी सरकारी महकमें में यही बहुत बड़ी बात है ...
जवाब देंहटाएं@बाबा भारती!
जवाब देंहटाएंजब उमर क़ैद कह ही दिया आपने तो बस उमर भर की ही क़ैद है... भा.दं.सं. के अनुसार अब तक आज़ाद हो जाता उमर क़ैद से भी... गोया 22X365x24x60x60=693792000 पल!!
आपका आशीष शिरोधार्य!!
काम करने वाले आदमी को एक बार तनख्वाह न मिले तो झेल लेंगे, लेकिन करने को काम न मिले ये नहीं झेल पायेंगे।
जवाब देंहटाएंरेलवे के तो हम भी बहुत अहसानमंद हैं, हालांकि दूर दूर तक कोई रिश्तेदार रेलवे में नहीं है, लेकिन भारतीय रेल हमारे दिल में एक विशेष स्थान रखती है।
हम तो अपने कम्प्यूटर पर काम करने के पीछे, यहाँ तक कि ब्लागिंग के पीछे भी प्रेरणा रेलवे को मानते हैं।
हमेशा की तरह मजेदार संस्मरण।
और ये बाबा भारती जी क्या कह पूछ रहे हैं? सीधे सीधे पार्टी की बात क्यों नहीं कहते राजेश भाई? शुभकामना हमारी तरफ़ से भी स्वीकार की जायें, पार्टी आपकी श्रद्धा पर निर्भर:)
@ संजय बाऊजी!!पार्टी के नाम सए राजनीति की बू आती है.. हाँ दावत के लिये अपना ग़रीबख़ाना और दस्तरख़ान हमेशा तैयार है.. वैसे दावत के संदर्भ में क्सी महापुरुष ने कहा है किः
जवाब देंहटाएंकहीं दावत का न्यौता हो तो उससे पहले और बाद के भोजन का नागा करने से मेजबान की आतिथ्य भावना का सम्मान होता है।
तो आशा है आतिथ्य भावना का सम्मान प्रदान करेंगे!
ई सजा तै तबहीं सार्थक होले जब सुधार ले आवे...... बहती बढ़िया प्रसंग आप शेयर कईनीं येहवा. वैसे भी श्रीवास्तव जी अपने काम के प्रति सजग रहने वाले व्यक्ति थे. इसलिए ज्यादा कुछ उनके मनोबल को तोड़ता ही. सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंसजा कुछ भी हो...सजा का अहसास...ही कम नहीं होता.
जवाब देंहटाएंवाह आपको देर से सही..मेरी तरफ से भी उम्रकैद की बधाई......देनी पड़ेगी नहीं तो अपनी एक दावत का नुकसान हो जाएगा.
जवाब देंहटाएंसही बात है...कर्मठ आदमी के लिए खाली बैठना सजा है....
जवाब देंहटाएंएक ठो बात और है कि सजा का असर भी सब पर नहीं होता है....अच्छा से याद नहीं है लेकिन एक ठो कहानी पढ़े थे कि चोरी का सजा अलग अलग तरह का चोर को अलग अलग दिया गया था. जिसमे जो पकिया चोर था उसको तो जैसे सजा का कोन्नो असरे नै हुआ था लेकिन जो पहले बार चोरी किया था उसका ह्रदय परिवर्तन हो गया....
यहाँ पर जैसे इनके जगह कोय पकिया लाफा-सूटिंग फान्किबाज होता तो उसको कोय असरे नहीं होता.
साथ ही, आप अपना सादी का बात गोल कर गिये. बहुत बहुत शुभकामना हमारे तरफ से भी...
आपके स्नेह और असीरबाद के इच्छुक.
राजेश.
सलिल जी, कहीं आप रेलवे के ब्रांड ambassodor तो नहीं बनने जा रहे हो? बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति है. खास कर ये लाईनें तो दिल छू गयीं .
जवाब देंहटाएं" सायद एतना बर्दास्त करने का सक्ति और सेवा-भावना के कारन रेलगाड़ी को हमलोग स्त्रीलिंग में प्रयोग करते हैं. धरती माँ के तरह या हमारी अपनी माँ के तरह."
अरे इसे तो सब्बाटिकल(sabbatical) अवकाश के रूप में लेना था न मौज मस्ती करते -मूल ई काम करने वाले लोग का जाने की मौज मस्ती का चीज है -बढियां संस्मरण रहा !
जवाब देंहटाएंसज़ा ...संस्मरण में बहुत कुछ सीखने को मिला । रेल प्रशासन भी इतना संवेदनशील हो सकता है कि ड्यूटी पर सिगरेट पीने की सजा इस ढ़ग से दी गई कि श्रीवास्तव जी को खाली बैठा दिया ...सचमुच जिस व्यक्ति के मन का काम उससे छीन लिया जाए,तो इससे बड़ी और सजा क्या हो सकती है ???
जवाब देंहटाएंयह सिगरेट वाली आदत तो पिछले वर्ष हमें भी न मालूम कैसे लग गई और .....
इस प्रेरक संस्मरण से काम करने की प्रेरणा भी मिलती है और शायद सिगरेट पीना हानिकारक है ये संदेस भी मिल जाय सिगरेट पिने वालो को |
जवाब देंहटाएंसजा वही जो गलती का एहसास कराये ,न कि दूसरी गलती करा दे ।
जवाब देंहटाएंवाकई कमाल के इंसान होंगे चाचा जी भी!
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम तो वैवाहिक वर्षगांठ की मंगलकामनाएं.
जवाब देंहटाएंपहले कर्तव्य परायणता होती थी इसलिए श्रीवास्तव सा :को वह नागवार लगा परन्तु आज के लोग उनसे सबक लें तो अच्छा रहे.
apne aap men anootha aur prerna denewala sansmaran.
जवाब देंहटाएंगलती का एहसास हो जाये बस वही सजा सार्थक है.
जवाब देंहटाएंसलील भाई,
जवाब देंहटाएंउनका से एगो गल्ती हो गईल।वोह समय कउनों नेता के शरन में जाए के चाहत रहे। काहें की आजकल लोग कुछ भी हो जात बा त नेता लोगन से सीधा संपर्क करके आपन काम निकाल लेत बाड़े। खैर छोड़ी -भगवान जउन करेले अच्छा ही करेले। हमार उनका प्रति सहानुभूति बा।
इ तो बहुतई अच्छा लगा ! और का कहे ! मेरे ब्लोग पर भी आएं!
जवाब देंहटाएंkam ke prati samarpit vaykti ko khali baitha dena
जवाब देंहटाएंapne aap me bahut bari saja hai.......
pranam.
सही कहा आपने,काम के प्रति समर्पित आदमी की सबसे बड़ी सजा है की उसे बिना काम के कर दिया जाय !
जवाब देंहटाएंलेख की यह पंक्ति बहुत प्रभावी लगी !
!"सायद एतना बर्दास्त करने का सक्ति और सेवा-भावना के कारन रेलगाड़ी को हमलोग स्त्रीलिंग में प्रयोग करते हैं. धरती माँ के तरह या हमारी अपनी माँ के तरह "
bouth he aacha post hai dear.. nice blog
जवाब देंहटाएंPleace visit My Blog Dear Friends...
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ई बहुत बढ़िया बात बताये आप रेलवे से हमरा भी बहुत प्रेम है...दादा जी रेलवे में रहे और नाना जी भी...उस जमाने में उनकी अपना दो ठो बोगी हुआ करता था जिसमें एक में पूरा परिवार और दूसरा में खानसामे बावर्ची जहाँ जाना हो साथ चला करते थे...ये बात हम बचपन में अपने माताजी से सुने हैं ...फोटो भी देखे हैं...शायद इसीलिए रेलवे प्रेम हमारे खून में है...जो सजा का जिक्र आप किये हैं वो बहुत जोर का है...काम करने वाले के लिए सबसे बड़ी सजा है उसे फ़ालतू बिठा दो...आज के युग में ये सज़ा अजूबे से कम नहीं...किता ही पुराना बात याद आ गया आपकी पोस्ट से...शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंनीरज
सर जी…
जवाब देंहटाएंभारतीय रेल तो शायद अब हमारे DNA structure का हिस्सा हो गयी होगी। हमसे पहले का तीन पीढी इसके सेवा में था …पिताश्री और बड़ी बहन तो वर्तमान में भी कार्यरत हैं।… और उस पर भी कंट्रोल की नौकरी तो thnakless job है सर जी…। वैसे इ सजा का बात खूब किये… इसको रेल के भाषा में "Waiting/Put up on Duty" कहा जाता है और इ minor punishments में आता है लेकिन कर्मठ आदमी के लिये तो इस से बड़ा कोइ सजा नहीं है। सही मायने में सजा का औचित्य यही है की गलती करने वाले को अपने गलती का एह्सास हो जाये और तभी सजा की सार्थकता भी है।
बहुत लम्बा लिख गये अबकि… का करें घर-परिवार का टापिक था ना :)
नमन्।
इस संस्मरण की यह सूक्ति चिंतन योग्य है-
जवाब देंहटाएं‘‘काम के प्रति समर्पित आदमी के लिये बिना काम के बईठने का सजा से बड़ा कोई सजा नहीं हो सकता।‘‘
सलिल जी,
आपके आलेख देर तक सोचने के लिए बाध्य कर देते हैं।