शनिवार, 7 मई 2011

बिना शीर्षक!!


जब से वो ट्रांसफर होकर यहाँ आया था, तकरीबन एक साल पहले, तब से ही बहुत परेशान रहा करता था. किसी से कुछ बतियाता भी नहीं था और किसी को कुछ बताता भी नहीं था. लोग कहते कि पहली बार घर से बाहर आया है इसलिए होम-सिकनेस है. साल भर के अंदर उसने छुट्टियाँ भी काफी लीं. तब पता चला कि उसका १४-१५ साल का बेटा दिमागी तौर पर बीमार है और कभी कभी तो उसकी तबियत इतनी बिगड जाती है कि बस अब-तब की हालत हो जाती है. इसी वज़ह से कई बार उसे अचानक छुट्टी पर जाना पड़ जाता था.  
यूनियन के नेताओं से बात की, उच्च अधिकारियों को मजबूरी बताई. ये भी बताया कि बेटे का इलाज एक ही डॉक्टर इतने सालों से कर रहा है, इसलिए बच्चे को यहाँ लाकर नए सिरे से इलाज नहीं कराया जा सकता है और दिमाग का मरीज़, बाप के सिवा किसी से संभालता भी नहीं. लेकिन सारी पैरवी बेकार. सबों ने अपनी-अपनी मजबूरी जता दी और कहा कि तीन साल से पहले वापस ट्रांसफर संभव नहीं. उलटे उसे जली-कटी भी सुनने को मिली कि बिना बताए छुट्टी पर चला जाता है. काम की तो कोइ फ़िक्र ही नहीं. इसे तो किसी और मुश्किल जगह पर ट्रांसफर करना पडेगा, तब पता चलेगा.
एक रोज फिर वो इसी तरह गायब हो गया. एक समझदार व्यक्ति ने उसकी सारी समस्या फिर से यूनियन नेताओं को बताई और कहा कि उसके बेटे की हालत बहुत खराब है, जो बाप के पास न रहने से और भी बिगड गयी है. किसी भी तरह से उसका ट्रांसफर वापस उसके शहर करवा दिया जाए तो, बड़ा उपकार होगा उसपर. नेताओं और अधिकारियों ने इस बार सच्चे दिल से उसके बारे में सुना और सोच-विचार किया. फ़ाइल ऊपर बढाई गयी और संकेत मिले कि काम हो जाएगा.
इस बीच वो लौट आया. सर मुंडाए, और भी ज़्यादा उदासी लपेटे. लोगों की समझ में सारी बात आ गयी कि उसका बेटा चल बसा. कई लोगों ने सांत्वना व्यक्त की, कई लोगों ने कहा कि उस बच्चे को कष्ट से मुक्ति मिल गयी. नेताओं ने समझाया कि हमारी भी मजबूरियाँ होती हैं, हम तो कोशिश कर ही रहे थे और फ़ाइल आगे बढ़ भी चुकी थी. वो सबों की बातें चुपचाप सुनता रहा. पहली बार उसकी आँखों से टप-टप आंसू बह रहे थे.
यूनियन के नेता अधिकारियों के पास गए और उनमें बातचीत शुरू हुई.
चलो अच्छा हुआ उसका बेटा मर गया, सारे ट्रांसफर हो जाने के बाद बीच में किसी का ट्रांसफर करवाना कितना मुश्किल होता है, ये हम ही जानते हैं.
फ़ाइल वापस लौटाने का कोइ फायदा नहीं है. एक बार ट्रांसफर की परमिशन आ जाए, तो देखेंगे उसकी जगह किसी अपने आदमी को एडजस्ट कर लेंगे. क्या कमाल का संजोग है!
पुनश्च: यह मात्र कथा नहीं, एक सत्यकथा है. इसमें पात्रों, शहर, संस्थान आदि के नाम नहीं लिखे हैं, इसलिए किसी से मेल खाने का प्रश्न नहीं उत्पन्न होता है. घटना के मेल होने की स्थिति में इसे भी उसी घटना की श्रेणी में मानें.
(टंकक: सुधीर)

56 टिप्‍पणियां:

  1. हम्म! आज एक चुप ही है, कहने को शब्द नहीं।
    आप मौन तो सुन ही लेंगे न?

    जवाब देंहटाएं
  2. दुखद, प्रयासों को यदि यह मोड़ मिल जाये तो किस पर क्रोध करें।

    जवाब देंहटाएं
  3. समाज की संवेदनहीनता ,सभ्य समाज के चालाक लोग और अपनी किस्मत का खेल सब कुछ बता दिया आपने ....

    जवाब देंहटाएं
  4. जाके पाँव ना फटी विवाई वो का जाने पीर पराई...
    क्या कहें ..:(

    जवाब देंहटाएं
  5. अपने-अपने सरोकार.
    (यह पोस्‍ट हिन्‍दी में...)

    जवाब देंहटाएं
  6. आज पहली बार यहां पोस्ट हिंदी में दिखाई दे रही है ...शायद सुधीर जी को भोजपुरी में असुविधा हो रही होगी ...

    प्रशासन सम्वेदनाओं और भावनाओं को कहां समझता है...शायद यह कहानी हर कार्यालय में घट रही है...और व्यक्ति बेबस है...

    जवाब देंहटाएं
  7. मार्मिक सत्य। दुख की बात है कि हम लोग अक्सर इन्हीं कथाओं के बीच डुबकियाँ मारते हुए अपनी ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत ही दुखद प्रकरण का उल्लेख किया है...इतना हृदयहीन बना देता है...यह ओहदा
    ...किसी के साथ भी हो सकती है,इस किस्म की घटना...तभी उन्हें इसका दर्द पता चलेगा.

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत मार्मिक .... ऐसी कितनी सच्ची घटनाएँ छिपी हैं लोगों की ज़िंदगी में ...

    जवाब देंहटाएं
  10. हम सभी ऐसे ही है दूसरो के साथ घटी दुखद घटाओ को हम बस एक घटना के तौर पर ही देखते है और उससे जुड़े अपने नफे नुकसान के बारे में ही सोचते है |

    जवाब देंहटाएं
  11. @हिन्दी में:
    इस ब्लॉग पर कहानी व कविताएं हिन्दी में ही लिखता रहा हूँ... इसे भी चूँकि कथा के रूप में लिखा है इसलिए हिन्दी में लिखना पड़ा. हाँ इस पोस्ट का इस समय चयन सुधीर जी को बिहारी टंकण में होने वाली असुविधा के कारण है!!

    जवाब देंहटाएं
  12. बड़े भाई ये एक सच ही है। हम सरकारी संस्थानों वालों की संवेदना बिल्कुल मर चुकी है। ऐसे कई लोग आए दिन सिर मुड़ाए दफ़्तर में प्रवेश करते हैं और बड़े साहब मिठाई खाते हुए उनका हाल चाल पूछते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  13. मार्मिक! ...और यह भी भी दुखद कि आपको टंकक का सहारा लेना पड़ रहा है. भगवान करे आप जल्दी ही अपनी उँगलियों पर दौड़ें ... !!

    जवाब देंहटाएं
  14. मार्मिक।
    लोगों की संवेदनाएं मरती जा रही हैं।

    जवाब देंहटाएं
  15. कितने संवेदन शून्य हो गये हैं लोग? क्या अनाराजगी गयी कि नही? आशीर्वाद।

    जवाब देंहटाएं
  16. मार्मिक, आजकल लोगों में संवेदनशीलता की बहुत कमी होती जा रही है!

    जवाब देंहटाएं
  17. दर्दनाक .. पर समाज कितना संवेदनहीन है ....

    जवाब देंहटाएं
  18. मातृदिवस की शुभकामनाएँ!

    बहुत मार्मिक ! समझ में नहीं आ रहा है की क्या कहें !

    जवाब देंहटाएं
  19. मार्मिक पोस्ट... समाज धीमे धीमे सवेदना हीन होता जा रहा है... एक सूत्र का उपयोग लोग करने लगे हैं... अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता....

    जवाब देंहटाएं
  20. Daau....!
    Kahane ko yun kuchh nahi... Par Bachchan ji ki ek behad yatharthvadi pankti hai...' kya karun samvedna le kar tumhari'

    ek shoonya maun aur naman!

    जवाब देंहटाएं
  21. ये तो कमाल कर दिया अपने। अब हिन्दी मेें चौके- छक्के मारने का इरादा है क्या।
    हिन्दी में भी उतनी ही बढिय़ा और शानदार पोस्ट। बधाई आपको।

    जवाब देंहटाएं
  22. संवेदनहीन समाज का विद्रूप सत्य...

    मन भारी हो गया......क्या कहूँ...

    जवाब देंहटाएं
  23. सच यह यह कथा नहीं बल्कि आज के समय की बिडम्बना को दर्शाती है ...... जिस पर गुजरती हैं वही जानता है ... आज दुसरे का दुःख समझने वाले बहुत कम दिखते हैं ...

    जवाब देंहटाएं
  24. इसे सिस्टम समझ कर नकार नहीं सकते ?हम इतने निष्ठुर कैसे ,क्यों, कब हो गये ?

    जवाब देंहटाएं
  25. बहुत ही मार्मिक प्रसंग । कई चोटे एक साथ उभर आईं जो सेवाकाल में लगतीं रहीं हैं और आए दिन लगतीं रहती हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  26. दूसरों का दर्द लोग कहाँ समझ पाते हैं !
    वैसे भी बदलते दौर के साथ संवेदनशीलता हाशिये पर पहुँच चुकी है !
    विचारोत्तेजक पोस्ट के लिए आभार !

    जवाब देंहटाएं
  27. aadarniy bhai ji
    abki baar aapka sansmaran waqai me dukh dene wala raha .
    kya schmuch insaniyat khatm hoti ja rahi hai ki log .ya bade bade adhikari gan kisi baat ko gambhirta se nahi lete .kisi ki duniya uajad gai to ujad jaaye unhe kya. vo punah uski posting par apne hi sage sambandhiyo ko fit kar denge isi me to uanka fayda bhi hai.par sabhi ek se to nahi ho sakte sabki samvedanaye nahi mar sakti .
    aaj aapki post padh kar man me kuchh ajeeb se sawaal uth rahen hai .par unka koi jawab mere paas nahi hai .kab khatm hogi ye insaan ki samvedan heenta
    pata nahi
    sans maran se aaj dil ko bahut hi kast pahuncha .
    aapne ise bahut hi sahi najriye se likha hai .bahut bahut naman
    poonam

    जवाब देंहटाएं
  28. behad dukhad aur marmik. samvadanshilta ab ghatati ja rahi hai. har koi yaha to bas apni kushi men mast hai.............

    जवाब देंहटाएं
  29. क्या कहें...देखी हैं ऐसी दुखद स्थितियाँ...

    जवाब देंहटाएं
  30. Gosh...that hurted !!!!!!!!

    main to yahan daduuuu.....m baaaack chillane aayi thi par ise padhke.....mood hi bigad gaya...kinne gande hote hain ye bureaucrats!!!!!

    जवाब देंहटाएं
  31. कितनी सम्वेदनहीनता???

    “चलो अच्छा हुआ उसका बेटा मर गया, सारे ट्रांसफर हो जाने के बाद बीच में किसी का ट्रांसफर करवाना कितना मुश्किल होता है, ये हम ही जानते हैं.”

    लोग स्वार्थ में अंधे हो जाते है।

    सुज्ञ: छवि परिवर्तन प्रयोग

    जवाब देंहटाएं
  32. आजकल लोगों में संवेदनशीलता की बहुत कमी होती जा रही है!

    जवाब देंहटाएं
  33. Really a pathetic,inhuman insidence and reality of present society.
    I liked yr blog verymuch.Read yr articles and found them very interesting and appealing.
    My best wishes and regards,
    dr.bhoopendra
    rewa
    mp

    जवाब देंहटाएं
  34. हमारा सिस्टम से मानवीय संवेदना के पुर्जे की जगह स्वार्थ ko फिट कर दिया गया है.... ऐसा हर दफ्तर में अक्सर होता है...

    जवाब देंहटाएं
  35. टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!

    जवाब देंहटाएं
  36. आज के समय में लोग अपने अंतरात्मा की आवाज़ भी दबा देते है. मार्मिक कथा.

    जवाब देंहटाएं
  37. जिसके साथ भी घटी होगी ये घटना सचमुच अंदर तक टूट गया होगा |
    मेरी सहानुभूति |

    सादर

    जवाब देंहटाएं