बैंक में कस्टमर का पहचान दू तरह से होता है. पहिला, आपसी सम्बन्ध अऊर दोसरा हस्ताक्षर यानि सिग्नेचर से. आपसी सम्बन्ध त आदमी के ब्यौहार पर निर्भर करता है. मगर सिग्नेचर असली पहचान होता है. इसमें कोनों तरह के हेर-फेर का गुन्जाइस नहीं होता. हेर-फेर मतलब अंतर होने से पैसा नहीं निकल सकता है. अगर निकला, त उसको फ्रॉड यानि धोखा-धड़ी माना जाएगा. लेकिन कमाल का बात ई है कि बैंक में एगो प्रचलित मान्यता है कि समय के साथ-साथ सिग्नेचर बदल जाता है. इसलिए थोड़ा बहुत अंतर होने पर, बैंक के साथ सम्बन्ध या लोग से पहचान होने पर उसको सही मान लिया जाता है. हस्ताक्षर बदल जाने के हालत में नया सिग्नेचर जमा करने का भी प्रावधान है, ताकि आइन्दा कोइ दिक्कत नहीं हो.
एक बार हमारी बहन का डाक-घर में एगो फिक्स्ड डिपोजिट सात साल बाद पूरा हुआ. जब ऊ पैसा लेने गयी, त उसको पैसा देने से खाली इसलिए मना कर दिया गया कि उसका दस्तखत एकदम हू-ब-हू मिलता था. डाक-बाबू का कहना था कि अईसा कइसे हो सकता है कि सात साल में दस्तखत नहीं बदला. ऊ दिन समझ में आया कि एगो ई भी मान्यता है कि अगर दस्तखत ओरिजिनल से एकदम मेल खाता हो, तो नकली है. ज़माना खराब है. नकली चीज असली से भी असली लगता है. आज अगर मुहम्मद रफ़ी को श्रद्धांजलि देने के लिए गाना का प्रतिजोगिता रखा जाए अऊर उसमें खुद मुहम्मद रफ़ी साहब गाना गाने चले जाएँ, त सायद टॉप थ्री में भी नहीं आ पायेंगे!
हस्ताक्षर में अंतर होने का कारन अलग-अलग होता है. कभी आदमी के बीमारी के कारन, कभी भूल जाने के कारन, कभी छोटा साइन के जगह पूरा साइन करने के कारन. मगर अपना तजुर्बा से कह सकते हैं कि कुछ बैंक के अधिकारी लोग के कारन भी सिग्नेचर में अंतर आ जाता है. ई अंतर अधिकतर महिला ग्राहक के साथ होता है. तनी एक्सप्लेन कर दें, नहीं त लोग हमको कहेंगे कि हम महिला का सम्मान नहीं करते हैं. अगर सुधेंदु बाबू जैसा आदमी दस्तखत मिलाने वाला अधिकारी हो, तब तो महिला ग्राहक का हस्ताक्षर में अंतर होना निश्चित है. खास करके ३० वर्ष से ४५ वर्ष तक उम्र वाली महिलाओं का तो पक्का है कि अंतर होगा. सारा दिन ऑफिस में उनका आवाज सुनाई देता रहता है ,”फलाँ देवी! आपका साइन में अंतर है. आइये आकर दुबारा साइन कीजिये!”
“सर! पिछला बार भी आप ऐसे ही कहे थे अऊर दोबारा हम ओही साइन किये त आप चेक पास कर दिए.”
“अब हमको भी तो नौकरी करना है!”
कभी-कभी कोइ कड़क आदमी, अगर महिला के साथ रहा तब तो हंगामा होते होते बचा है केतना बार.
हमारे ब्रांच के सामने एगो सिनेमा हॉल था, जिसके मालिक का पत्नी का अकाउंट हमारे इहाँ था. पत्नी जुबती थीं अऊर वहाँ के लिहाज से सुन्दर भी. मगर सबसे खतरनाक बात ई था कि ऊ औरत का देवर पहलवान टाइप आदमी था. सुधेंदु जी एकाध बार ऊ औरत को तंग कर चुके थे, तब ऊ पहलवान धमका भी गया था उनको.
एक दिन जीवन बीमा का एक चेक आया उस औरत के अकाउंट का. अऊर चेक देखते ही सुधेंदु जी उछल पड़े, “सिग्नेचर नहीं मिलता है!”
पूरा ब्रांच का लोग हंसने लगा, त ऊ बेचारे लजा गए. एगो स्टाफ पूछने लगा, “किस कुमारी या देवी का चेक है?”
“तुम लोग हमेशा ऐसे ही करते हो. शालिनी कुमारी का चेक है!”
“सोच लो! उसके देवर को पता चला तो..!”
“हम क्या डरते हैं उससे!!!” कहते हुए ऊ सिग्नेचर कार्ड वाला फोल्डर लेकर सबको देखाने लगे. संजोग से सारा ब्रांच इस बार उनसे सहमत था कि सिग्नेचर नहीं मिलता था और स्पेसिमेन से बहुत अंतर था. एक आदमी फोन किया उनके घर पर अऊर सब बात बताया. ईहो कहा कि आप आ जाइए, नहीं त बीमा का चेक वापस कर दिया जाएगा.
थोड़ा देर में ब्रांच के सामने फिएट गाड़ी रुका. शालिनी जी उसमें बैठी रहीं अऊर उनके देवर गोस्सा में अंदर दाखिल हुए. सीधा सुधेंदु जी के सामने जाकर खड़े हो गए अऊर बोले, “आपका लच्छन खराब है. अगर एही लच्छन रहा त पिटा जाइयेगा कोनो दिन! देखाइए कहाँ अंतर है साइन में?”
सुधेंदु जी तैस में जैसहीं सिग्नेचर वाला फोल्डर खोलकर देखाए, ऊ आदमी गोस्सा में लगभग कॉलर पकड़ लिया सुधेंदु जी का. बीच-बचाव के बाद देखा गया कि सिग्नेचर हू-ब-हू मिलता था. पूरा ब्रांच सन्न!! ई हुआ कैसे!! खैर, माफी मांगकर ऊ लोग को बिदा किया गया. तब सारा स्टाफ कुदरत का करिश्मा देखने भागा कि आखिर दू मिनट में सिग्नेचर बदल कैसे गया.
अऊर तब समझ में आया कि शालिनी जी पिछला बार नया साइन करके जमा की थीं. अऊर फोल्डर में ऊ गलत साइन के ऊपर नत्थी होने से रह गया था. जब सुधेंदु बाबू पहले साइन देखने गए अऊर सबको देखाए त गलत वाला सिग्नेचर सामने था. सब लोग बोल दिया कि अंतर है. मगर जब ऊ आदमी आया त फोल्डर में सही अऊर नया वाला साइन उसके सामने खुल गया.
फोल्डर का खुला, उनका भेद खुल गया अऊर ऊ दिन के बाद ऊ सीख गए कि महिला का इज्जत कैसे किया जाता है!
बाप रे ... इस साइन के चलते हमको तो लगता है हमहीं चोर हैं .... चश्मा नाक पर चढ़ाये इस तरह बोलता है कि अगली बार में तो गड़बड़ होना ही है .... बहुत बढ़िया विषय लिया और बहुत बढ़िया लिखा
जवाब देंहटाएंहा..हा..हा..हा..आनंद आ गया। भगवान खुदै सबक सिखा दिये सुधेंदु जी को।
जवाब देंहटाएंहा हा हा ..पहले हंस लूं फिर कुछ लिखूंगी. मेरे सामने सुधेंदु जी चेहरा घूम रहा है..सिग्नेचर नहीं मिल रहा ..ये चिल्लाने वाला और फिर पहलवान की गिरफ्त में. हा हा हा .
जवाब देंहटाएंमस्त...मस्त...एकदम मस्त टाईप पोस्ट है चचा....:D :D :D :D
जवाब देंहटाएंबाप रे बाप ... गजब गजब सब खेला होता है जी बैंक में ... बेचारे सुधेंदु जी ... कम से कम इतना तो ख्याल किये होते ... कौन सा सिग्नेचर कार्ड खोला था पहले ... अब हो गया ना 'हैप्पी बर्थडे' ... ;-)
जवाब देंहटाएंबाल-बाल बच गए सुधेंदु बाबू :)
जवाब देंहटाएंजादा हूसियारी मे मनई तीन जगे डूबता है। वो बात अलग कि हम एक बार अपने एक मित्र की साइन कर के उनका विकास पत्र का पैसा कैश करवा लाये थे।
जवाब देंहटाएंहमरी टिप्पणी गई स्पैम में - लगता है।
जवाब देंहटाएंआदमी की पहचान के अलग-अलग तरीके, कर्म से और करम से.
जवाब देंहटाएंआपका पोस्ट रूचिकर लगा । बहुत अच्छे तरीके से इसे आपने प्रस्तुत किया है । मरे अगले पोस्ट "जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी" पर आपका बेसव्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंपोस्ट पढ़कर सुकून मिला, ’एक हम ही नहीं तनहा, सुधेंदु बाबू और भी हैं:)
जवाब देंहटाएंसिग्नेचर संबंधित एक किस्से वाली हमारी टिप्पणी स्पैम में गई मानी जाये। कभी मिलेंगे तो सुनायेंगे आपको किस्सा।
डाक-बाबू की ऑब्जैक्शन लाजवाब लगी।
मतलब बैंक में भी इस सब होता है ...हम तो बैंक वाले लोगों को शरीफ कैटेगिरी में गिनते थे :)
जवाब देंहटाएंरोचक दास्तान !
बहुत अछछा है. मजा आ गया|
जवाब देंहटाएंबेचारे सुधेंदु जी ..
जवाब देंहटाएंवैसे हमारे सिग्नाचर ऐसे हैं कि हर साल बेंक से बुलावा आ जाता है.. :)
कर्तव्यनिष्ट सुधेन्दु बाबु!! आपकी बैंक प्रसंग की सिग्नेचर पोस्ट है। :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, लाजबाब.. प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंजान बची और लाखों पाए...वर्ना देवर जी के हाथों ठुकाई पक्की थी सुधांशू बाबु की...रोचक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंनीरज
bahut suruchipoorn tareeke se likhe hain......ek naye kism ka prasang.
जवाब देंहटाएंहम तो यह सीखे कि बैंक में पहचान बनाकर रखनी चाहिए।
जवाब देंहटाएंफोल्डर का खुला, उनका भेद खुल गया अऊर ऊ दिन के बाद ऊ सीख गए कि महिला का इज्जत कैसे किया जाता है!गनीमत सीख तो गए.
जवाब देंहटाएंबिना दस्तखत आपको स्वयं के होने पर भी संदेह होने लगता है।
जवाब देंहटाएंअच्छा ई बताइए कि जिनको हस्ताक्षर नही करने आता ऊनका मिलान कैसे करते हैं ... मेरा मतलब अंगूठा छाप से है।
जवाब देंहटाएं...
और ई सुधेन्दु बाबू तो बिलकुले नहीं मिला पाएंगे और दुबारा छाप लेने लिए हाथ पकड़कर इंकपैड पर ले जाएंगे। कहेंगे दुबारा ठप्पा देना होगा।
***
... बानी जी के बात पर गौर किया जाए ... हमहु आज तक सरीफे मानते थे ... :):)
ई बताइए कि जिनको दसतखत नहीं करने आता उनका मिलान कैसे होता है, मतलब अंगूठा छाप का?
जवाब देंहटाएं** सुधेन्दु बाबू को तो बहुते मोसकिल होता होगा और तब बुला बुला कर हाथ पकर-पकर कर दुबारा ठप्पा लगबाते होंगे।
** बानी जी के बात पर गौर किया जाए, हमहु अभी तक सरीफे समझते थे।
ऊ दिन समझ में आया कि एगो ई भी मान्यता है कि अगर दस्तखत ओरिजिनल से एकदम मेल खाता हो, तो नकली है.
जवाब देंहटाएंnew concept, didn't knew it earlier:)
ओह यानि कि हस्ताक्षर में फेर बदल acceptable है ...और हम है कि कोशिश करते हैं...जैसा पहली बार किया था...हू ब हू वैसा ही करें...
जवाब देंहटाएंबड़ी रोचक दास्तान
भिनसारे बाला टिप्पणी 'सिस्टम का गड़बड़ी' में होम हो गया. फेर लिखना पडेगा.
जवाब देंहटाएंसलिल भाई ई खीसा लगता है अस्टेट बैंक का लिखे हैं आप. सबसे जादा गड़बड़ी ...बदमासी...मनमानी ...आ रिस्बतखोरी बाला बैंक का नाम है अस्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया. लोन लेने मं तो कुच्छ पूछिए ही मत....बिकट परेसान करता है ऊ लोग.
हमको किसी बैंक मं निहायत बदतमीज़ कर्मचारी कभी नहीं मिला ....सिर्फ अस्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को छोड़कर. नरीमन प्वाइंट बाले चाहें त नोट कर लें.
एगो दूगो सरीफो है .....बाकी वोहाँ का अधिकांस कर्मचारी ....अब हम का कहें ......हमारा बस चले त बसीयत मं लिख जाएँ के अस्टेट बैंक में कभी खाता न खोलवाया जाय.
@ मनोज कुमार:
जवाब देंहटाएंवाणी जी के लिए त हम सैनबोट हैं.. सरीफ हैं तब्बे ई पोस्ट लिख रहे हैं.. अऊर हमरे तरह बहुत सा लोग है इहाँ..
अऊर अंगूठा का पहचान पद्धति जाने दीजिए... अंगूठा वाली आ जाए त सुधेंदु बाबू ओइसहीं ठप्पा लगवाते थे जैसे धर्मेन्द्र सोले में बसन्ती को गोली चलाना सिखाता था.. ई आदत त हमलोग छोडाए!! मगर साइन कराने वाला आदत कैसे छूटा, ऊ कहियो नहीं भुलायेंगे!!
:):) रोचक ...
जवाब देंहटाएंअंगूठा वाली आ जाए त सुधेंदु बाबू ओइसहीं ठप्पा लगवाते थे जैसे धर्मेन्द्र सोले में बसन्ती को गोली चलाना सिखाता था.. ई आदत त हमलोग छोडाए!!
यह भेद भी खोल दिए आप तो :)
बढिया है. नववर्ष मंगलमय हो.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, लाजबाब.. प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत खूब :)
जवाब देंहटाएंइस अनोखे प्रसंग को आपकी शैली ने और रोचक बना दिया।
जवाब देंहटाएंBahut rochak shailee me aapne is waqaya ko likha hai! Maza aa gaya!
जवाब देंहटाएंwah kya baat hai :)
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog.
वाणी गीत जी और मनोज जी की टिप्पणी के प्रत्युत्तर में आपकी टिप्पणी ने बहुत ही हंसाया जी!!!संगीता स्वरूप जी की टिप्पणी पढ़ कर हंसी रोके रुक नहीं रही है...हंसते-हंसते लौट-पोट जी ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही मजेदार प्रसंग...ऊपर से टिप्पणियों ने पोस्ट का स्वाद और भी सुस्वादु बना दिया है...
आजकल इंटरनेट की समस्या से कल टिप्पणी नहीं दे सका...लेकिन अच्छा हुआ ...टिप्पणियों ने पोस्ट की जो संस्तुति की है वह इस पोस्ट की गुणवता स्वत: व्यक्त करती है।
ha ha...bhaiyaji ye to fir bhi theek hai sigh ki baat hai..kahin face recognition jaisi cheezein ho aur machine mana kar de fir ka hoi...
जवाब देंहटाएंमहिलाओ की नजर में दुनिया में दो चार सरीफ बचे थे आज वो भी कम हो गए हम लोग तो बैंक वालो को बड़ा अच्छा समझते थे की महिलाओ की आगे बढ़ कर मदद करते है आज पता चला मदद का राज :)
जवाब देंहटाएंआपसी रिश्ते से कई बार थोडा बदले हस्ताक्षर को पास कर दिया जाता है परेशानी तब होती है जब पुराना स्टाफ चला जाता है और नया आ जाता है | मेरी माता जी के साथ ऐसा ही हुआ जब नए स्टाफ ने चेक पास करने से साफ मना कर दिया और अपने सामने ६- ७ बार हस्ताक्षर करवाने के बाद भी पैसे देने को राजी नहीं था | शुरू शुरू में तो मै खुद भी चेक बनाने से डरती थी हस्ताक्षर करने की आदत नहीं थी वो भी बैंक वाली हर बार एक जैसी :)
आप को और आप के परिवार को भी नव वर्ष की शुभकामनाये !
हम आपके हस्ताक्षर (लेखनी के) अच्छी तरह पहचानते है, वर्मा साहब!मालूम है सालों साल नहीं बदलेंगे, लेकिन नहीं बदलने की वजह से हम आपके लिखे लेखों को फर्जी भी नहीं मानेंगे!! अच्छी रग पकड़ी है आपने बैंक वालों की...!
जवाब देंहटाएंबहुत ही मनोरंजक शैली में क्या शानदार विवरण दिया है...मजा आ गया:)
जवाब देंहटाएंinteresting.
जवाब देंहटाएंक्या बात है, मजा आ गया। व्यंग्य करना कोई आपसे सीखे। हाँ, एक बात जरूर पूछना है कि वे सुधेन्दु बाबू थे या कोई और?
जवाब देंहटाएं@आचार्य परशुराम राय जी:
जवाब देंहटाएंजी वो वही थे और उनका पूरा नाम है सुधेंदु ज्योति! फिलहाल कहाँ उनकी पदस्थापना है, पता नहीं!!
आपके संस्मरण मनोरम्य तो होते ही है साथ ही शिक्षाप्रद भी
जवाब देंहटाएंनिरामिष शाकाहार प्रहेलिका 2012
sachche me...aap jo bhi likhte hain ek dum dil se likhte hain...:)
जवाब देंहटाएंchhote bhai k aur se naye vrsh ki shubhkaamnayen baade bhaiya:)
bahute din ho gaya, aapko hamre blog pe aaaaye hue:D
जवाब देंहटाएंसलिल भाई, तब तो ठीक है। मैंने सोचा था कहीं आपने अपनी टोपी तो किसी और को नहीं पहना रहें हैं। इसे मजाक में लीजिएगा। प्रत्युत्तर के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kaha aapne...
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक दास्तान|
जवाब देंहटाएंचकाचक! देवर के तेवर से बचे रहें। :)
जवाब देंहटाएंहा हा हा.... मत पूछिये कितना हंसी आ रहा है... बहुत ही लाजवाब....
जवाब देंहटाएंआप की रोचक लेखन शैली ने इस प्रसंग को और भी रोचक बना दिया है.... सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंgajjabe prasang......
जवाब देंहटाएंpranam.
बेहद दिलचस्प..। कल ही मेरे दो चैक भा. स्टेट बैंक से वापस आगए । आहरणकर्ता को बताया गया कि मेरे हस्ताक्षर नही मिल रहे हैं । हास्यप्रद यह है कि पन्द्रह वर्ष पहले खोले इस खाते के लिये किये गए अपने ही हस्ताक्षर मुझे याद ही नही हैं । अब स्वयं जाने पर ही मसला होगा । यहाँ पढ कर मुझे अपनी भूल पर खूब हँसी आई ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति,अनोखे प्रसंग की सुंदर अभिव्यक्ति ,मजेदार पोस्ट पढकर मजा आगया,.........
जवाब देंहटाएंWELCOME to--जिन्दगीं--
bhai bihari babu apki samkaleen samasyaon pr lajbab prastuti apke blobg pr hi milata hai ...abhar
जवाब देंहटाएंअब तो बस मूड फ्रेश करना हो तो आपके ब्लॉग में आकर
जवाब देंहटाएंऐसी खुबसूरत सी पोस्ट पढ़ने लगता हूँ. खुबसूरत व्यंग. बधाई
हा हा हा हा
जवाब देंहटाएंभिनसारे भिनसारे पेट दुखवा दिये हैं सर...
हांसी के मारे फूले जा रहा है...
(क्षमा- सचमुच यही हाल है... फीट भर की मुस्कान है चेहरे में)
सादर.
अइअइय्य्य्यो..... !
जवाब देंहटाएंSunder vernan..ab mai bhi apne hastaksher same waise hi nahi banaunga post office me .......meri bhi ek fd hai 1000-500 ki nahi to nuksan ho jayega
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति बढ़िया लेख,अनोखा प्रसंग ,....
जवाब देंहटाएंwelcom to new post --"काव्यान्जलि"--
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकई लोग बुढापे मा सुधेंदु बाबू भी बन जात हैं !
जवाब देंहटाएंरिश्तेदारी हो जाने से दसकत मा कौनो दिक्कत नय होत है !
जब ऐसन आदमी हैं आपके सुधेंदु बाबू तो पिटायेगें ही अरे और कौनों बहाने से बुलाना चाहिए न कस्टमर को ..डायरी वायरी कैलेण्डर देने,चाय पिलाने ,इंटरेस्ट लगा के बताने, कई कारण हो सकते हैं .... :)
जवाब देंहटाएंहाहा! :)
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक प्रसंग
बहुत बढ़िया तरीके से साइन का कहानी बताये हैं और उह्को नारी की इज्जत के साथ जोड़े हैं |
जवाब देंहटाएंसादर
आपका ई पोस्ट को बुलेटिन में डाले हैं आज.... आप तो देखबे करिएगा वैसे.... एक गणित के खिलाड़ी के साथ आज की बुलेटिन....
जवाब देंहटाएंदस्तखत बदलने के एक दो कारण और समझ मे आए हैं। जब ज्यादा चल लो तो पैर ऐन्डे-बेंड़े पड़ने लगते हैं, ऐसे ही जब आपको सैकड़ों दस्तखत इकट्ठे करने हों तो हाथ बहकने लगते हैं। एक और- जब चेक बुक मोटी हो तो भी दस्तखत में फर्क आ जाता है।
जवाब देंहटाएंबहरहाल एक बार फिर पढ़ कर मज़ा आ गया....फिल्म ‘अंगूर’ की याद आ गयी।