“स्मृतियों में रूस” भले ही शिखा वार्ष्णेय की स्मृतियों का दस्तावेज़ हो, लेकिन पिछली पीढ़ी के हर भारतीय की स्मृतियों में बसता है. पूर्व विदेश मंत्री श्री वी. के. कृष्णमेनन जब रूस गए थे तो वहाँ से इंदिरा के लिए रूसी गुड़िया लेकर आए थे. रूसी सर्कस के लचीले कलाकार आज भी अपने प्लास्टिक और रबर सरीखे शरीर के लिए याद किये जाते हैं. रूस में राज कपूर और नरगिस की यादें भी इतनी प्रगाढ़ थीं कि जब प्रसिद्द अंतरिक्ष यात्री यूरी गैगारीन पहली बार राज कपूर से मिला, तो हाथ मिलाते हुए बोला, “आवारा हूँ!”
जब संबंधों की ऐसी गहराई हो, तो एक १६-१७ वर्ष की युवती के लिए विद्यालायोपरांत स्नातकोत्तर स्तर तक की पढाई का समय विस्मृत करना संभव नहीं. पाँच वर्ष की एक लंबी अवधि, एक नवयुवा मन से, एक व्यस्क नागरिक बनने तक के रूपांतरण का काल है. एक ऐसा काल, जिसमें भविष्य आकार ग्रहण करता है, जीवन के प्रति धारणाएं स्पष्ट होती जाती हैं, स्वावलंबन सुदृढ़ होता है और एक व्यक्तित्व का निर्माण होता है. ऐसे संक्रमण काल में, जब सम्पूर्ण जीवन शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तौर पर बदल रहा हो, वे घटनाएँ जो इस निर्माण में सहायक होती हैं, पत्थर पर लकीर की तरह होती हैं. ऐसी ही छवि को नाम दिया है शिखा वार्ष्णेय ने “स्मृतियों में रूस”.
शिखा वार्ष्णेय से हमारा परिचय एक संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त लेखिका के रूप में है. वे कवितायें भी लिखती हैं, लेकिन उसे मात्र उनकी अभिव्यक्ति का हिस्सा माना जा सकता है. पत्रकारिता की विद्यार्थी होने के कारण, उनके आलेखों पर इसकी छाप आसानी से देखी जा सकती है. हाँ, इस पुस्तक की भाषा और अभिव्यक्ति में यह प्रभाव बहुत कम दिखाई देता है. मेरे विचार में इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला, इस पुस्तक के अंकुर उनके मस्तिष्क के पत्रकार की मिट्टी में अंकुरित नहीं हुए हैं और दूसरा, यह संस्मरण एक पत्रकार के हैं ही नहीं.
कुल पचहत्तर पृष्ठ की यह पुस्तक, छोटे-छोटे अध्यायों में विभाजित है, जिनमें आलेखों के बीच वहाँ के श्वेत-श्याम छाया-चित्र भी संकलित हैं. उनके ब्लॉग “स्पंदन” पर इसके अंश प्रकाशित होते रहे हैं, संभवतः इसी कारण कई अध्याय मात्र एक या दो पृष्ठ के भी हैं. शिखा जी ने जिस प्रकार घटनाओं का वर्णन किया है, वह इतना जीवंत है कि पाठक स्वयं को उन घटनाओं का पात्र या उस समाज का हिस्सा मान लेता है. विदेश का आकर्षण किस प्रकार वास्तविकता के कठोर आघात से टूटता है या एक नया आकार ग्रहण करता है, इसका वर्णन बहुत ही ईमानदारी से किया गया है. लेखिका ने यह समझाने का भरसक प्रयत्न किया है कि दूर के ढोल हमेशा सुहावने लगते हैं, जबकि सचाई उसके सर्वथा विपरीत होती है. किन्तु इसके पीछे उनका उद्देश्य किसी को हतोत्साहित करना नहीं, अपितु यह बताना है कि सफल वही होता है जो इन विपरीत परिस्थितियों में आनंद के पल खोज लेता है और हिम्मत नहीं हारता. भाषा, भोजन, सामाजिक मान्यताएं, बदलते आर्थिक वातावरण, जनता का चरित्र, सरकार का रवैया, शिक्षकों की मानसिकता, सहपाठियों का व्यवहार, न्यूनतम सुविधाएँ आदि ऐसे विन्दु हैं जिनपर उन्होंने खुलकर अपने अनुभव बांटे हैं और ये अनुभव कटु भी हैं और मधुर भी.
पुस्तक के नाम से यह ध्यान में आना स्वाभाविक है कि यह पुस्तक आपको रूस के दर्शनीय स्थलों की सैर कराएगी. लकिन यह पुस्तक कहीं से भी एक सैलानी के दृष्टिकोण से नहीं लिखी गयी है, अतः एक पर्यटक के लिए सहायक नहीं हो सकती. इस पुस्तक में रूस के कुछ मुख्य पर्यटन स्थलों का वर्णन भी है, लेकिन मात्र उतना ही जितना शिखा जी के तात्कालिक संपर्क में आया हो. उन्होंने स्वयं इस बात की स्वीकारोक्ति भी की है कि जिस जगह हम रहते हैं वहाँ के दर्शनीय स्थलों के प्रति उदासीन रहते हैं. इतने पर भी उन्होंने हमें वेरोनिष्, मॉस्को, कीव, गोर्की, पुश्किन आदि के गाँव की सैर कराई है. महान लेनिन के साथ वहाँ के लोगों के भावनात्मक जुड़ाव का वर्णन सुनकर, भारत में बैठे हमारा ह्रदय भी भाव-विह्वल हो उठता है.
भाषा पर शिखा जी के अधिकार के बावजूद कुछ मुहावरों अथवा शब्दों के प्रयोग त्रुटिपूर्ण लगते हैं. जैसे स्वयं सारे काम करने के परिश्रम के लिए “सांप छुछुन्दर की स्थिति” का प्रयोग, आपका दाना पानी जहां जब-तक बंधा है तब तक आप पार नहीं पा सकते और ‘हालात’ की जगह ‘हालातों’ शब्द का प्रयोग. लेकिन दूसरी ओर जहां एक केले में पूरे परिवार को खिलाती एक औरत का विवरण आता है, फ़ौज में भर्ती होते युवकों की व्यथा और उनकी प्रतीक्षारत प्रेयसियों का वर्णन आता है, प्यार भरे सम्बोधन से द्रवित होती वृद्धाओं का या किसी स्थल का चित्रमय वर्णन आता हो, वहाँ उनकी लेखनी आपके समक्ष चित्र खींच देती है और आप उसका हिस्सा बन जाते हैं.
कुल मिलाकर शिखा वार्ष्णेय ने यह प्रमाणित किया है कि वे एक सिद्धहस्त संस्मरण एवं यात्रा-वृत्तान्त लेखिका हैं. यह पुस्तक न केवल उनके इस पहलू को प्रमाणित करती है, अपितु उनके एक संवेदनशील और भावनात्मक चरित्र को भी उजागर करती है. क्योंकि बिना भावनात्मक जुड़ाव के संस्मरणात्मक लेखन संभव नहीं.
बहुत ही संतुलित पुस्तक समीक्षा!!
जवाब देंहटाएंआपके वर्णन नें पुस्तक पढ़ने की आतुरता बढ़ा दी है।
शिखा वार्ष्णेय जी इस लेखन के लिए बधाई की पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंपुस्तक परिचय का यह अंदाज पसंद आया। पुस्तक की विषय-वस्तु के साथ-साथ लेखिका के उन मनो-सामाजिक भावों को भी आपने बहुत ही सधे हुए शब्दों में बता दिया है,जिनके चलते यह पुस्तक प्रकाश में आई।
बिना भावनात्मक जुड़ाव के संस्मरणात्मक लेखन संभव नहीं.।
जवाब देंहटाएंआपके साथ मैं भी उक्त विचार का समर्थन करता हूँ । आपका व्यवहारमूलक समीक्षा शिखा वार्षणेय जी की पुस्तक "स्मृतियों में रूस" को सजाने का कार्य करेगा । धन्यवाद ।
Kitab padhne ka ab bahut man ho raha hai!
जवाब देंहटाएंपुस्तक समीक्षा निष्पक्ष प्रतीत हुई।
जवाब देंहटाएंसटीक पुस्तक समीक्षा ... ऐसी समीक्षा गहन अध्ययन करके ही लिखी ज सकती है ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा, हम सयत्न पुस्तक पढ़ने की जुगत में लगे हैं..
जवाब देंहटाएं@ सलिल जी ,
जवाब देंहटाएंमात्र पचहत्तर पृष्ठ ? भाषा और मुहावरों पर आपका अभिमत पढ़कर इतना ही सूझा कि लघु स्मृतियों के सार्वजनिक प्रकाशन से पूर्व भाषाविद मित्रों की सहायता ले लेना उचित होता ! अस्तु शुभकामनायें !
अली सा! आपके प्रथम आगमन पर आभार प्रकट करता हूँ.. कभी उनको कभी अपने घर को देखते हैं कहना अतिशयोक्ति न माना जाए!
हटाएं/
आपका सुझाव शिखा जी ने निश्चय ही पढ़ा होगा और भविष्य में अवश्य उसका पालन करेंगी!
सलिल जी ,
हटाएंप्रथम आगमन निर्धारण पर मेरी आपत्ति दर्ज की जाये :)
आप टीप देख कर प्रथम आगमन तय कर रहे हैं इसलिए :)
कल तो मैं आपसे एक सवाल पूछने आया था पर चुप साध गया दरअसल संवेदना के स्वर बंधुओ कहने की ख्वाहिश दबाये नहीं दब रही :)
अली सा!
हटाएंआपकी आपत्ति पर मेरी क्षमा स्वीकार करें!!
@संवेदना के स्वर बंधुओ
यह संबोधन आपका ही और केवल आपका ही दिया संबोधन है... मुझे और हमें आज भी यह संबोधन प्रिय है, क्योंकि हम उसी डोर से बंधे हैं.. चैतन्य आज भी मेरी हर पोस्ट के प्रथम श्रोता हैं.
एक बार किताब मिल जाए बस पढने को ... बाकी समीक्षा तो लिख ही देंगे हम ... Ctrl+C और Ctrl+V जिंदाबाद ... ;-)
जवाब देंहटाएंये है असली समीक्षा,
जवाब देंहटाएंऔर कहाँ आप मेरे ब्लॉग पर बिना-सर पैर की बात कह गए :)
पहली बात तो यह कि आपने यह समीक्षा बहुत तटस्थ होकर लिखी है, वरना ब्लॉगजगत में प्रायः लोग अपनी दोस्ती-यारी निभाने के लिए मित्रों की पुस्तक का परिचय लिखते हैं जिसमें वाहवाही भरी होती है।
जवाब देंहटाएंदूसरी बात कि आपकी समीक्षा में न तो आपने अपने को गुणी समीक्षक वाला तेवर दिखाया है और न प्रबल विद्वतावादी आग्रह। आपने समीक्षा में निजी चित्तवृत्ति से निकली भावनाओं को पिरोया है जो पुस्तक के सूक्ष्म और गहन अध्यन के उपरान्त ही संभव हो सकता है।
इस पुस्तक की समीक्षा के लिए जो ज़रूरी था वह आप में है, यानी आप मानवीय भावनाओं और व्यवहार के विस्तृर दायरे की अच्छी समझ रखते हैं। इसीलिए इस समीक्षा में आपकी कोशिशों में ईमानदारी की झलक दिखती है।
और सबसे बड़ी बात यह कि पूरी समीक्षा में आपकी मोहक शैली का ऐसा जबरदस्त आकर्षण है कि हर तीसरी पंक्ति के बाद वाह क्या लिखा है, निकलता रहता है।
रही बात पुस्तक की ... तो अभी नहीं, ऑन लाइन पुस्तक खरीदने की बुकिंग हो गई है ... मिलते ही लिखूंगा। पुस्तक में कुछ विशेष तो है जिसने मुझे इसे ऑन लाइन खरीदने को प्रेरित किया। हालाकि लेखिका ने मेरी प्रति सुरक्षित रख दी है।
मनोज जी! अनुज हैं आप मेरे किन्तु आपके यह उदगार मेरे लेखन को सार्थकता प्रदान कर रहे हैं! भय था कि कभी पुस्तक-समीक्षा जैसा विषय हाथ में नहीं लिया. उसपर सह-ब्लोगर (वरिष्ठ भी) की पुस्तक कि समीक्षा का दायित्व. लगता है मिहनत सफल हुई!
हटाएंसलिल जी,...आपने बहुत नाप तौल कर समीक्षा की,
जवाब देंहटाएंजो कि मुझे बहुत अच्छी लगी,...बधाई
आपने वाकई बहुत अच्छी समीक्षा की है ...शिखा जी को शुभ कामनायें .
जवाब देंहटाएंशिखा वार्ष्णेय , उनकी पुस्तक ... दोनों की समीक्षा इतनी सशक्त है कि इस पुस्तक का आकर्षण बढ़ गया है . रूस तो शुरू से राज कपूर जी की स्मृतियों से सामने आता रहा . शिखा की पुस्तक पढनी है , ... समीक्षा लिखना सबके लिए आसान नहीं. पाठकों के मन में जिज्ञासा सही समीक्षा होती है और लेखक की सफलता भी समीक्षा से एक मजबूत धरातल पाती है . आलोचना समालोचना की सही पकड़ दिखी है ...
जवाब देंहटाएंपुस्तक की एक झलक भी मिल जाती तो सोने पर सुहागा हो जाता!
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षात्मक दृष्टि से परिचय कराया आपने.
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो शिखा जी को फिर से बधाई! अब आपकी बात। इस संतुलित और निष्पक्ष व्याख्या से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है। आप की अंकलन क्षमता तो गज़ब है ही, प्रस्तुतिकरण ने मेरे मन में कई बार उठने वाले कई प्रश्नों का निराकरण किया है और एक तरह से यह आलेख मेरे लिये एक अभ्यास का काम करेगा। आभार!
जवाब देंहटाएंयह पुस्तक मैं भी पढना चाहता हूँ ...
जवाब देंहटाएंशिखा जी शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रहने में कामयाब हैं ! शुभकामनायें उनको , आपका आभार !
मेरा मन तो आपकी मेरी पुस्तक पढते हुए तस्वीर देख कर ही खुश हो गया :).बाकी आपके इतने मन से पुस्तक पढ़ने और उसकी त्रुटियों खूबियों को इतने यत्न से प्रस्तुत करने के लिए मैं आभार जैसे शब्द बहुत कम समझती हूँ.
जवाब देंहटाएंबस आपके बहुमूल्य शब्द पाकर कृतज्ञ हुई.
इस पुस्तक की काफी चर्चा सुन चूका हूँ... आज आपसे समीक्षा भी पढ़ ली... समीक्षा बढ़िया है..... आपकी तस्वीर बहुत गंभीर है.... शेर्लोक होम्स की तरह.... ट्विस्ट जो आपके आलेख में होता है मिसिंग है...
जवाब देंहटाएंएक अच्छी पुस्तक समीक्षा। हाल ही में शिखा जी के ब्लॉग पर गया था तब पता चला था कि उन्होंने यह किताब लिखी है। उनका ब्लॉग तो पढ़ता ही रहता हूं इसलिए उनकी लेखनी से तो परिचित ही हूं।
जवाब देंहटाएंचलो अब रहेगा मेरी स्मॄतियों में भी रूस..:-)
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा !
जवाब देंहटाएंशिखाजी की घुमक्कडी आदत अच्छी है,इसके लिए समय व धन की पर्याप्त ज़रूरत होती है,जो ईश्वर की कृपा से उनके पास है !
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा लगी. कुछ अंश तो शिखा जी ब्लॉग में पढ़ें हैं और हम सब उनके लेखन के कायल हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंbhai ji
जवाब देंहटाएंshikha ji ke pustak ke baare me aapke hi blog par aakar pata chala.unke pustak ki samikxha bahut hi behatreen lagi.unki lekhni nihsandeh ek behtreen rachnakaar ki hai.
aapko hardik badhai is pustak ki har drishhtikone se
nishhpakxh samikxha ke liye aur mera housla banaye rakhne ke liye------
naman ke saath
poonam
सकारात्मक विवेचना। आभार।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा विधा आपको आती है,इसमें कोई शक नहीं।
जवाब देंहटाएंइस पुस्तक का उल्लेख और भी कही पढा है । यहाँ पढ कर जिज्ञासा और भी बढी है ।
जवाब देंहटाएंइस पुस्तक की काफी चर्चा पहले भी संगीता सवरूप जी के ब्लॉग पर पढ़ी थी
जवाब देंहटाएं............पर पुस्तक अभी तक नहीं प्राप्त कर पाया पर मामा जी आपका प्रस्तुतिकरण बढ़िया लगा
शिखा वार्ष्णेय जी को बहुत बहुत बधाई
और समीक्षा लिखा हो तो कोई आपसे सीखे मनप्रसन्न हो गया समीक्षा पढ़कर
शिखा जी की पुस्तक ‘स्मृतियों में रूस‘ की निष्पक्ष समीक्षा ने पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता जगा दी है।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं !
सलिल भैया, पोस्ट का टाईटिल कुछ ..., जाने दीजिये।
जवाब देंहटाएंरूस हमारी तो दुखती(सुखती भी) रग है, इसलिये ज्यादा कुछ न कहेंगे। इतना पता चल गया कि आप एक और फ़न में माहिर हैं - पुस्तक समीक्षा में।
संजय बाउजी! आभार आपका (बड़प्पन वाला डायलॉग मत बोलिएगा)कि कम से कम आपने शीर्षक पर कुछ कहा.. वरना सिर्फ मेरा बिटिया ने ही पूछा था कि ये क्या लिखा है!! और फन का तो ये है जी कि लाइफ में अगर फन न हो तो लाइफ बोरिंग हो जाती है!
हटाएंशिखा जी की पुस्तक की समीक्षा बहुत सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है! बढ़िया लगा!
जवाब देंहटाएंवाह ... गज़ब की समीक्षा की है आपने ... सफल है आप एक समीक्षाकार के रूप में क्योंकि आपने उत्सुकता जगा दी है एक पाठक के मन में ...
जवाब देंहटाएंशिखा जी की इस पुस्तक की प्रति ले के आता हूँ अगले ट्रिप में ...
और हाँ ... आपका अंदाजा सही है ...
जवाब देंहटाएंआशा ई आप समझ गए होंगे जो मैं कहना चाहता हूँ ...
शिखा जी की पुस्तक के गुणावगुण का काफी सजग दृष्टि से आपने एक कुशल समीक्षक की तरह अवलोकन कर समीक्षा की है। लेखिक की सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक मानसिकता को बड़े ही व्यवस्थित और स्वाभाविक ढंग से प्रस्तुत किया है। इस समीक्षा ने आपकी समीक्षात्मक दृष्टि का मुझे कायल बना दिया है। लगता है कि आप एक प्रोफेशनल समीक्षक हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंवैसे लेखिका को अगले संस्करण के प्रकाशन के समय भाषिक अशुद्धियों को दूर कर लेना चाहिए, ताकि लोगों को एक सुगठित पुस्तक पढ़ने को मिले। आप दोनों- समीक्षक और लेखिका को धन्यवाद।
आचार्य जी! आपके यह उदगार मेरे लिए और शिखा जी की ओर से भी कह सकता हूँ कि आशीर्वाद तुल्य हैं. यही लगता है कि लेखन सफल हुआ!!
हटाएंपुस्तक के कुछ अंश देखे हैं। शिखा जी का लेखन, विशेष रूप से सरस, रोचक व विस्तृत प्रस्तुतीकरण, सदा प्रभावित करता है। यह वृत्तांत भी उससे पृथक नही है। पुस्तक पर आपकी सजग दृष्टि प्रभावित करती है। गुण-दोषों का आपने सम्यक विवेचन प्रस्तुत किया है। आपके मुक्त विचार जिस प्रकार आद्योपांत तटस्थ बने हुए हैं, प्रशंसनीय है। वैसे, आपने समीक्षा को अपने लेखन के केन्द्र में कम ही रखा है, लेकिन इस समीक्षा के माध्यम से इस विधा में भी आपका कौशल तथा आपकी परिपक्वता व पारंगतता उद्घाटित और प्रमाणित हो गए हैं। अब भविष्य में हम लोगों के अनुरोध पर आप स्वयं को बचा नहीं सकते।
जवाब देंहटाएंआभार,
इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दे चुका हूँ फिर भी याद दिलाने के लिए लिख रहा हूँ । मेरे नए पोस्ट जयप्रकाश नारायण पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंкрасиво представлены :)
जवाब देंहटाएंСпасибо за первый комментарий в язык иностранный на моем блоге!!
जवाब देंहटाएंभोजपुरी में लिखिए त फिर से बान्चेगें-ई वाला पढ़ लिए हैं -ऐसा त हम भी लिख लेते!
जवाब देंहटाएंये अरविंद मिश्रा जी त सही कहे हैं। लिख डालिये भोजपुरी में।
जवाब देंहटाएंसही लिखे हैं किताब के बारे में। :)
शिखा दीदी का ब्लॉग भी हम अक्सर पढते हैं , वाकई बहुत सुन्दर लिखती हैं |
जवाब देंहटाएंमुझे पूरा विश्वास है कि ये पुस्तक भी बहुते बढ़िया लिखीं होंगी | सौभाग्य से एगो दफा फेसबुकवा पे चेटियाए भी हैं उनसे , बहुते अच्छा लगा था | शुभकामनायें
एक विनती है , आपहु काहे नहीं टिराई करते , बहुत चलेगी , बस किताबवा का नाम भी एही रखियेगा 'चला बिहारी ब्लॉगर बनने' |
सादर