(ओशो सम्बोधि दिवस: २१ मार्च, पर विशेष)
तो, उस बच्चे के पैर छूने पड़े. और कोई उपाय न था. नमस्कार करना पड़ा कि तू अच्छा मिल गया. हमने तो मजाक किया था, लेकिन मजाक उलटा पड़ गया. बहुत भारी पड़ गया. अज्ञान इस बुरी तरह से दिखाई पड़ा, लेकिन ज्योति का पता नहीं चला कि कहाँ से आती है और कहाँ जाती है! और हम बड़े ज्ञान की बातें किये जा रहे हैं. उस दिन से मैंने ज्ञान की बातें करना बंद कर दिया.
एक गाँव से गुज़रता था, एक छोटा सा बच्चा दिया लेकर जा रहा था.
पूछा उससे, “कहाँ जाते हो दिया लेकर?”
उसने कहा, “मंदिर जाना है.”
तो मैंने उससे कहा, “तुमने जलाया है दिया?”
तो उसने कहा, “मैंने ही जलाया है.”
मैंने पूछा, “जब तुमने ही जलाया है, तो तुम्हें पता होगा कि रोशनी कहाँ से आयी है? बता सकते हो?”
तब उस बच्चे ने नीचे से ऊपर तक मुझे देखा. फूंक मारकर रोशनी बुझा दी और कहा, “अभी आपके सामने चली गयी. बता सकते हैं कहाँ चली गयी? तो मैं भी बता दूंगा कि कहाँ से आयी थी. तो मैं सोचता हूँ, वहीं चली गयी होगी जहां से आयी थी.” उस बच्चे कहा, “कहाँ चली गयी होगी?”
क्या फायदा? जब एक ज्योति का पता नहीं तो भीतर की ज्योति की बातें करने में मैं चुप रहने लगा. उस बच्चे ने चुप करवाया.
हज़ारों किताबें पढीं, जिनमें लिखा था कि मौन रहो. नहीं रहा, लेकिन उस बच्चे ने ऐसा चुप करवा दिया कि कई वर्ष बीत गए, मैं नहीं बोला. लोग पूछते थे, बोलो. तो मैं लिख देता था कि दिए की ज्योति कहाँ जाती है, बताओ? मतलब क्या है बोलने का? कुछ पता नहीं है तो बोलूं क्या?
तो इसको मैं कहता हूँ ‘एटीट्यूड ऑफ लर्निंग और डिसाईपलशिप’, शिष्यत्व. गुरू को बिलकुल नहीं होना चाहिए दुनिया में, सब शिष्य होने चाहिए. और अभी हालत ये है कि गुरू सब हैं, शिष्य खोजना बहुत मुश्किल है!
(प्रवचन - सम्बोधि के क्षण
मुम्बई, १४.०९.१९६९)
ज्ञान के अहंकार पर चोट करती बोध कथा।
जवाब देंहटाएंज्ञान का अनंतवे हिस्सा भी हमारे लिए अज्ञात है।
अनुत्तर कर दिया सलिल जी, इस ला-जवाब बोध कथा से………
...कभी-कभी हम सोचते हैं कि कितना कुछ जानते हैं हम,पर अचानक ऐसा कुछ होता है कि लगता है कि बहुत कुछ ऐसा है ,जिसे हम नहीं जानते !
जवाब देंहटाएंसीखते हुए ही हम किसी को कुछ सिखा सकते हैं !
थोड़ी ज्योति दे गया यह विचार.
जवाब देंहटाएंओशो के प्रवचनों में सबसे सुंदर बात यह लगती है कि उन्होने प्रेरक कथाओं का उदाहरण देकर जो बात समाझाना चाहते थे सटीक समझा दिया है। यह कथा भी मंत्रमुग्ध व आत्मावलोकन को बाध्य करती है। कभी लिखा था..
जवाब देंहटाएंमूरख क्यों करता गुरूवाई
एक गुरू सब चेरा पगले।
तभी कहते हैं कि बच्चों के सामने ज्यादा ज्ञान नहीं बघारना चाहिए। ज्योति कहाँ से आयी और कहाँ गयी? शब्द कहाँ से आए और कहाँ गए? हवा कहाँ से आयी और कहाँ गयी? ऐसे अनेक प्रश्न हो सकते हैं। बस सारा ही ज्ञान का पाखण्ड है और शब्दों से खेलने वाले लोग इसे बखूबी विस्तारित करते हैं। ऐसे ही विस्तारित करते हुए अनेक शिष्य बन जाते हैं। बस भारत में हजारों की संख्या में ऐसे गुरु उत्पन्न हो जाते हैं। आज गुरुओं के पास उनके भक्तों की अपार भीड़ है लेकिन फिर भी समाज सन्मार्ग पर नही है, अपितु ऐसे ही प्रश्नों के भ्रम जाल में उलझकर दिशाभ्रमित हो रहा है।
जवाब देंहटाएंआखिरी वाक्य एकदम सटीक है.. वाकई आजकल हर कोई गुरू होता है, जबकि हमें हर दिन कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है, हम शिष्य बन कर रहें तो सीखने में कोई संकोच न होगा।
जवाब देंहटाएंजहाँ से आती है, वहीं जाती है ज्योति, गहन दर्शन का विषय है।
जवाब देंहटाएंहज़ारों किताबें पढीं, जिनमें लिखा था कि मौन रहो. नहीं रहा, लेकिन उस बच्चे ने ऐसा चुप करवा दिया कि कई वर्ष बीत गए, मैं नहीं बोला. लोग पूछते थे, बोलो. तो मैं लिख देता था कि दिए की ज्योति कहाँ जाती है, बताओ? मतलब क्या है बोलने का? कुछ पता नहीं है तो बोलूं क्या?
जवाब देंहटाएंज्योति, गहन दर्शन का विषय है।
my resent post
काव्यान्जलि ...: अभिनन्दन पत्र............ ५० वीं पोस्ट.
निःशब्द करती है बोधकथा!
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात कह डी इस माध्यम से आपने ...
जवाब देंहटाएंनिःशब्द कर दिया आपने ...
मौन ज्ञान ने सारे उत्तर दे दिए .... प्रकाश , अँधेरा अपने ही भीतर का होता है . भावना प्रकाशित होती है और भावना ही उसे लील जाती है
जवाब देंहटाएंkahani ke maadhyam se itna bada darshan-gyaan....wah,ati uttam.
जवाब देंहटाएंगुरू सब हैं, शिष्य खोजना बहुत मुश्किल है ...गहन भाव लिए सार्थक प्रस्तुति ..आभार ।
जवाब देंहटाएंएक बच्चा ही इतना त्वरित और सार्थक जबाब देकर ज्ञान-चक्षु खोल सकता है.
जवाब देंहटाएंशिष्य बने रहना ही अपेक्षित है -- ओशो का सार्थक संदेश .
सीखने के लिए पूरी दुनिया ही खुली किताब है .. प्रकृति में मौजूद एक एक छोटे कण से भी ज्ञान प्राप्ति संभव है .. बस दिलोदिमाग में सीखने की प्रवृत्ति होनी चाहिए .. पूर्वाग्रह से लिप्त अपने को महान समझने वाले कहां ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं ??
जवाब देंहटाएंपिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
जवाब देंहटाएंओशो की तो बात ही निराली है...उन जैसा विचारक शायद ही कोई हुआ हो...हम तो उनके घनघोर प्रेमी हैं...
नीरज
क्या बात. क्या बात ..बच्चों के सामने तो वैसे भी ज्ञान नहीं बघारना चाहिए.
जवाब देंहटाएंकहना तो चाहते थे- वाह गुरु, मान गए! मगर गुरु की व्याख्या के बाद अब हिचकिचाहट हो रही है!!
जवाब देंहटाएंइस पर कुछ कहने के लिए शब्द नहीं हैं, यदि है तो बस- साधुवाद।
जवाब देंहटाएंओशो संबोधि दिवस पर संबोधि की सार्थक परिचर्चा.
जवाब देंहटाएं‘एटीट्यूड ऑफ लर्निंग' और 'डिसाईपलशिप-शिष्यत्व'का गहन तात्विक विश्लेषण।
ओशो को सादर अहोभाव सहित प्रणाम।
गुरु सब हैं, शिष्य खोजना मुश्किल है:)
जवाब देंहटाएंAPAN KE HOTE.....AAPKO KYA MUSHKIL HAI...
हटाएंYSE BAAT LAKH TAKE KI KAHI AAPNE...
PRANAM.
आज गुरु सब हैं, शिष्य कोई बनना नहीं चाहता ...
जवाब देंहटाएंक्या खूब बात है !
शिष्य तो मैं हूँ ही पर गुरु ढूंढता फिर रहा हूँ !
हटाएंबहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंइंडिया दर्पण की ओर से शुभकामनाएँ।
शून्य से आये ....शून्य में ही जाना है
जवाब देंहटाएंरे मन अपना यही ठिकाना है ....
....!विचार देती पोस्ट ....
बहुत आभार ....
आपका ब्लॉग पहले फोलो किया था ...पर updates नहीं आ रहे हैं |आज फिर फोलो कर रही हूँ ...!!
जो शिष्य बनकर मिल सकता है वो गुरु बनकर नहीं
जवाब देंहटाएंआभार
बोल सभी लेते हैं लेकिन,
जवाब देंहटाएंकिसने सीखा चुप रहना है।
जो बोलना सिखाए, वो काहे का गुरु,
गुरु तो वो है जो चुप रहना सिखा दे !
वह बच्चा ही असली गुरु है।
ओशो का ये प्रवचन बहुत ही अच्छी शिक्षा दे रहा.. सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंवाह सही है शायद आजकल इसलिए लोग यह संवाद मारते नज़र आते है,कि "कृपया ज्ञान न बांटे यहाँ सब ज्ञानी है" आसान शब्दों मे बहुत ही सटीक बात कहती पोस्ट....समय मिले आपको तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंAgreed!
जवाब देंहटाएंबड़े भाई लजवाब!
जवाब देंहटाएंआपके प्रोत्साहन के परिणाम स्वरूप आजकल “मौन समाधि” का अध्ययन चल रहा है।
सही कहा है। सब अहंकार का खेल है। वे ही इस तरह के गुरु होने का दावा करते हैं।
ओशो की ही पंक्तियां कोट करूं तो, एक सद्गुरु तो एक साधारण व्यक्ति होता है। अति सामान्य। उसके पास किसी भी तरह का अहंकार नहीं होता। उसकी साधारणता “कोई नहीं-कुछ नहीं” की होती है।
हममें ही शिष्यत्व प्राप्त करने की योग्यता नहीं होती।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती आप के ब्लॉग पे आने के बाद असा लग रहा है की मैं पहले क्यूँ नहीं आया पर अब मैं नियमित आता रहूँगा
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद् की आप मेरे ब्लॉग पे पधारे और अपने विचारो से अवगत करवाया बस इसी तरह आते रहिये इस से मुझे उर्जा मिलती रहती है और अपनी कुछ गलतियों का बी पता चलता रहता है
दिनेश पारीक
मेरी नई रचना
कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: माँ की वजह से ही है आपका वजूद:
http://vangaydinesh.blogspot.com/2012/03/blog-post_15.html?spref=bl
jeevanroopee pathshala me antim saans tak kuch naa kuch seekhne ko milta rahtaa hai. Ab ye to hum par nirbhar hai ki kitna seekhe aur kab tak seekhe .
जवाब देंहटाएंगुरु बनने की चाहत मे लोग शिष्यत्व से भी जाते हैं॥
जवाब देंहटाएंhttp://chalaabihari.blogspot.in
जरुर ये रजनीश का लेखा है क्या बोलते थे माई बाप, झक्कास!
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट पर मैंने एक टिप्पणी दी थी। नहीं दिख रही।
जवाब देंहटाएंगुरू सब हैं, शिष्य खोजना बहुत मुश्किल है विचार देती पोस्ट
जवाब देंहटाएंगहन दर्शन. सीखने के लिये सारी जिंदगी भी कम है.
जवाब देंहटाएंबहुत सही बात कही है । दुनिया में गुरु तो बस एक ही है जो सर्वज्ञाता है ।
जवाब देंहटाएंहालाँकि यहाँ ब्लॉगजगत में थोड़ा अलग है ।
सार्थक प्रस्तुति,..
जवाब देंहटाएंनए पोस्ट के इन्तजार में,....
बहुत बढ़िया सलिल जी .........................
जवाब देंहटाएंकथा भी बढ़िया ...छिपा मर्म भी लाजवाब.....प्रस्तुती भी रोचक.....
सादर
अनु
कितना सहज.... कितना गूढ....
जवाब देंहटाएंसचमुच अद्भुत प्रसंग....
सादर।
सुन्दर बात!
जवाब देंहटाएंसाधुवाद । कुछ नया हो जाए । मेरा पोस्ट शायद आपके साईड बार में नही आ रहा है । अत: मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबाऊ जी शिष्य की बात बहुत सही बोली आपने , आजकल के शिष्य श्री लक्ष्मण जी की तरह हैं जो रावण से कुछ सीखना तो चाहते हैं लेकिन उसके चरणों के पास जाकर नहीं , सर के समीप खड़े होकर , शिष्य को राम की तरह होना चाहिए , सीता स्वयंवर में जनक जी स्वयं श्री हरी के सामने ये कहते हैं कि मुझे तो लगता है ये धरा वीर पुरुषों से खाली हो चुकी है लेकिन वे इसका ज़रा भी विरोध नहीं करते किन्तु जब गुरु विश्वामित्र का आदेश उन्हें मिलता है तो वे अपनी वीरता का प्रमाण जनक सहित सम्पूर्ण धारा के सामने धरते हैं |
जवाब देंहटाएंऐसे अनेकों उदहारण हमें मिलेगे - स्वामी विवेकानन्द , एकलव्य आदि |
सादर