बचपन में एगो कहानी
पढ़े थे. अब हम कोनो अनोखा बच्चा त थे नहीं, आपलोग भी बच्चा रहे होंगे अऊर ओही
कहानी आप भी पढ़े होंगे. कहानी था श्री सुदर्शन का ‘हार की जीत’. एतना
ब्यौहारिक कहानी कि आज समाज से सम्बेदना मर जाने के बाद भी ऊ कहानी ओतने प्रासंगिक
मालूम देता है. एगो डाकू, एगो साधु से भिखारी अऊर लाचार का भेस बनाकर उनका घोड़ा
चोरा लेता है. साधु बाबा जाते-जाते उससे एही कहते हैं कि ई घटना का जिकिर तुम किसी
से मत करना, नहीं त लोग का भरोसा गरीब लाचार पर से उठ जाएगा. डाकू का हिरदय
परिबर्तन होता है अऊर ऊ चोराया हुआ घोड़ा वापस कर देता है. साथ में दू बूँद
जिन्दगी का भी छोड़ जाता है – आँख का आँसू!
तीन-चार साल पहिले
जब ब्लॉग के दुनिया में बड़े अरमान से पहिला कदम रक्खे थे, तब जो लोग का लिखना
अच्छा लगता था, उनका अस्थान हमरे लिये कोनो सेलेब्रिटी से कम नहीं होता था. जइसे
एगो बच्चा को साइकिल चलाना आ जाए, त ऊ घर के सामने वाली चाची के एहाँ भी साइकिले
से जाता है, ओइसहिं जिसके ब्लॉग पर फोन नम्बर मिल जाता था उनसे बतियाने का भी मन
करता था अऊर बात होने पर लगता था कि अमिताभ बच्चन से बतियाकर आए हैं.
एही बीच तनी खेल का
नियम भी समझ में आने लगा अऊर ऊ सेर है न
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिजाज़ का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो!
का मतलब भी बुझाने
लगा. बहुत सा लोग का असलियत भी समझ में आया. अऊर आखिर में हम भी ओही सतरंज का एगो मोहरा
बन गये. फरक बस एतना था कि हमरा बिसात अपना था अऊर गेम का रूल भी. लोग बेनामी-फेनामी
कहते-कहते नाम से जानने लगा अऊर धीरे-धीरे पहचान बनता चला गया. कोसिस एही किये कि
हमको हमेसा ई याद रहे कि आदमी जब चढता है त सीढी से अऊर जब उतरता है त टप्प से
लिफ्ट से नीचे आ जाता है.
कुछ लोग हमको बहुत
सम्मान दिया अऊर कुछ लोग को हम बहुत सम्मान दिये. जिनको हम सम्मान दिये उनसे मिलने,
बतियाने का लालसा तब भी रहता था अब भी रहता है. सतीश सक्सेना जी, पण्डित अरविन्द
मिश्र, जनाब अली सैयद साहब, अनूप शुक्ल, निशांत मिश्र, संजय अनेजा, अनुराग जी... एहाँ
तक कि समीर लाल जी, मनोज कुमार जी, अऊर बहुत सा लोग. स्वप्निल से पहले बतियाना अऊर
बाद में मिलना हमरे लिये गोल्डेन मोमेण्ट से कम नहीं था.
ऊ टाइम में महिला ब्लॉगर
को लेकर एतना हंगामा चलता था कि कुछ लोग का सम्मान करते हुये भी बतियाते हुये डर
लगता था. कभी-कभी चैट पर कोई मिल गया त बतिया लिये. एही दरमियान अब याद नहीं का
बात था लेकिन कोई बात को लेकर हमको एगो प्रतिष्ठित महिला ब्लॉगर से बतियाने का
जरूरत महसूस हुआ. मगर उनका नम्बर नहीं था. उनके करीबी लोग में से दू लोग हमरे भी
बहुत अच्छे दोस्त थे. ऊ दुनो से अलग-अलग चैट पर बतिया रहे थे एक रोज. याद आया त हम
पूछ लिये कि अगर उनका नम्बर हो तो मुझे दो. एगो से उत्तर मिला कि हमरे पास नहीं है
अऊर दोसरका ब्लॉगर चैट लाइन काट दिहिन. तब हमको लगा कि हम कुछ जादा इमोसनल हो रहे
हैं. काहे कि एतना अक्किल त भगवान देबे किये हैं कि समझ जाते कि ऊ लोग बताना नहीं
चाह रहा है. बात खतम हो गया अऊर हमारा सम्बन्ध ऊ लोग के साथ ओइसहिं बना रहा.
करीब एक साल के बाद
ओही महिला ब्लॉगर का फोन हमको आया. हमारा नम्बर उनको उन्हीं से मिला था जो हमको
उनका नम्बर देने से मना कर दिये थे. ऊ पहिला बात हमसे एही बोलीं, “एक रोज आपने
हमारा नम्बर माँगा था, तो आपको नहीं मिला था, देखिए आज हम आपका नम्बर लेकर आपको
फोन कर रहे हैं. आपको निमंत्रण देना है.” हम गये उनके घर, सबसे मिले अऊर हमारा
रिस्ता आज भी बना हुआ है.
अइसहिं दीदी गिरिजा
कुलश्रेष्ठ जी के एगो कबिता का समीच्छा मनोज जी के ब्लॉग पर “आँच” में परकासित हुआ
था. मगर ऊ सूचना देने के बाद भी नहीं आईं, त हम सोचे फोन से सूचित कर दें. ऊ दिन
डेढ दर्जन कुलश्रेष्ठ का नम्बर नेट से खोजकर निकाले मगर दीदी का नम्बर नहिंए मिला.
फिर याद आया उनका “एकलव्य” अऊर बड़े भाई राजेश उत्साही. उनको पूछे त ऊ बोले कि पता
लगाकर एस एम एस करते हैं. खैर नम्बर मिला, दीदी से बात हुआ, पता चला कि ऊ सहर से
बाहर हैं एही से नहीं देख पाईं. अब त घरेलू रिस्ता हो गया है उनसे.
अइसहिं एगो पुरुस
ब्लॉगर, एगो महिला ब्लॉगर से उनका फोन नम्बर माँगा था. ऊ महिला भी अपना नम्बर दे
दीं बाबा भारती के तरह उस पर भरोसा करके. उसके बाद एगो लम्बा सिलसिला चला टॉरचर का.
ऊ महिला ब्लॉगर का परिबार बिखर गया. घर के अन्दर अदृस्य दीवार खड़ा हो गया. और
पिछला दू साल से ई हाल है कि उनका जिन्नगी घर में बिछावन, हस्पताल में आई.सी.यू., नर्स,
इंजेक्सन, दवाई, बेहोसी, लाचारी अऊर कमजोरी के बीच पिसकर रह गया है. हम जब फोन
करते हैं त उनका एक्के रट रहता है – फ़ोन कर लिया करो बीच बीच में. अच्छा लगता है!
कहाँ आजकल मिलता है डाकू खड़गसिंह जो बाबा भारती के ई कहने पर कि ई बात किसी को
मत बताना नहीं तो कोई भी महिला ब्लॉगर कोनो पुरुस ब्लॉगर को अपना फोन नम्बर देने
में हजार बार सोचेगी- अपना आँख से दू बूँद आँसुए गिरा देता ताकि ऊ औरत जो हर पल
अपना मौत का इंतजार कर रही है, उसको एगो आसान मौत मिल पाता!!
(परमात्मा उनको लम्बी उम्र दे!)
भावनाओं की बहुत गहरी परतें खुल जातीं हैं अचानक । यह सही है कि संवेदनशील लोग चाहे महिला हो या पुरुष बहुत जल्दी भावात्मक रूप से जुड जाते हैं । मुश्किल तब होती है जब दूसरा पक्ष इसका गलत अर्थ निकाल कर भावनाओं का दुरुपयोग करता है और जिन्दगी बिखर जाती है । खडगसिंह एकदम विलुप्त तो नही हुए हाँ बहुत कम रह गए हैं । खैर..
जवाब देंहटाएंआपका मुझे उस तरह तलाशना , बडी बहिन का सम्मान देना और मेरी रचनाओं को एक स्थान देना एक उपलब्धि जैसा है । और क्या कहूँ ।
आह! वे दिन...!
जवाब देंहटाएंहर तरह के लोग है यहाँ ...
जवाब देंहटाएंमिलना जुलना तो चकाचक लेकिन ई आखिरी वाली कहानी सुनकर दुख हुआ।
जवाब देंहटाएंरहस्यमय होती है आपकी बाते .....
जवाब देंहटाएंताकि ऊ औरत जो हर पल अपना मौत का इंतजार कर रही है, उसको एगो आसान मौत मिल पाता!!
अब मैं जब कुछ जानती नहीं तो क्या दुआ क्या इच्छा
भावनात्मक बातों के बीच चेतावनी भी...महत्पपूर्ण पोस्ट !
जवाब देंहटाएंआज तो आप इमोशनल कर दिए हैं। वैसे जहाँ विश्वास ही न हो ऐसे रिश्ते से किसी को कुछ हासिल नहीं होता। दुआ है कि जिनकी आप चर्चा कर रहें हैं उन्हें स्वास्थ्य लाभ हो।
जवाब देंहटाएंऐ पुरूष ब्लॉगर! कम से कम ई पढ़ने के बाद तो दो बूँद आँसू बहा लो..
जवाब देंहटाएं'सावधानी हटी,दुर्घटना घटी'- पर विश्वास करने लगी हूँ .सद्भाव बना रहे और
जवाब देंहटाएंसह़दयतापूर्ण संवाद अपनत्व का आभास देता रहे : यही लेखन पठन-पाठन को संबल दिये रहेगा .
और यों तो सबका अपना-अपना ढर्रा!.
शुभचिंतक से, लगते सारे
जवाब देंहटाएंचेहरों पै विश्वास न करना
गुरु मन्त्र पा, उस्तादों से
ऐसे भी उपवास न करना
भक्तों को रोमांचित करके,रहे नाचते रंगमंच पर ,
श्रीवर,संत, साध्वी हमने , मूर्ख बनाते ही देखा है !
जीवन भर चेहरे दो रखते
समय देख कर रंग बदलते
सड़ा हुआ सा जीवन लेकर
औरों पर ये, छींटे कसते !
रोज दिखायी देते ऐसे रावण मन,रामायण पढ़ते,
श्वेतवसन शुक्राचार्यों को , मंदिर में बैठे देखा है !
जब पहली बार आपसे मिला था तो वाकई लगा था कि सेलिब्रिटी से मिल रहे हैं। बात और है कि अब भी ऐसा ही लगता है। मेरे ब्लॉग पर आपकी टिप्प्णी अद्भुद हुआ करती थी। इंतजार रहता था। कई बार फोन करके आपसे कहता भी था कि कविता देखिये। आपसे कनाट प्लेस दफ्तर में मिलना, विभिन्न ब्लॉगर पर चर्चा से मेरा साहित्य में पुनर्प्रवेश हुआ था। मेरे प्रकाशन ज्योतिपर्व नीव आप और मनोज जी के सानिध्य में ही पडी थी। कोई बात नहीं कि आपके पोस्ट में मेरा जिक्र नहीं है ! मेरी कविताओं पर आपकी कुछ टिप्पणियां आपको मेरे बारे में याद दिला ही देंगी :
जवाब देंहटाएं"यह कविता अपने अंदर झांकने को विवश करती है.. झकझोरती है, बाध्य करती है सोचने पर कि कहीं इस कविता का "मैं" सचमुच मैं ही तो नहीं!!!"
"अरुण जी!!
एक यथार्थ चित्रण देखने को मिला आपकी रचनाओं में और तीसरी रचना की समाप्ति पर मुट्ठियाँ भींच जाती हैं स्वतः!!
भारत और इंडिया का विभाजन यहाँ टिप्पणियों में भी दिख रहा है... आज भीड़ से लग स्वयं को बुद्धिजीवी बताना, जुबान ऐंठकर अंग्रेज़ी बोलना और एयर कंडीशन कमरे में बैठकर ३८ डिग्री के तापमान में खड़ी रामलीला मैदान की जनता की रिपोर्टिंग करना अभिजात्यता का प्रतीक माना जाता है..
हम लोग ये सब नहीं समझेंगे आफ्टर ऑल! वे आर सिल्ली मिडल क्लास इंडियंस!!!द कॉमन मैन!!"
"अरुण जी!
आज बस मौन.. बस ऐसा लगा कि शब्द-शब्द मेरी माँ का चेहरा बनकर मेरे सामने खड़े हो गए हैं!!"
"क्लासिकल कविताओं के बीच वर्त्तमान को इस कदर बुना है आपने कि इन्हीं सभी पात्रों के बीच खुद को भी चलता फिरता पा रहा हूँ.. और क्षोभ हो रहा है अपनी नपुंसकता पर!!
अरुण जी! दिल पर प्रहार ही नहीं करती यह रचना, उद्वेलित करती है, अंतस को!!"
बेहतरीन टिप्पणियां अपना गहरा स्थान और निशान छोड़ने में समर्थ हैं , जो पाठक डूब कर पढने की सामर्थ्य रखता है वे निस्संदेह ऎसी टिप्पणियां करने में समर्थ हैं अरुण !
हटाएंआज हज़ारों लेखकों में, बढ़िया पाठक मिलना दुर्लभ हैं , काश सलिल भाई की यह टिप्पणियां मिलती रहें ! :)
ब्लॉग जगत में आप जैसे लोग भी दुर्लभ हैं , अगर भाषा का आनंद लेना है तो जो आनंद मुझे आपके ऊबड़ खाबड़ माधुर्य पूर्ण लेखन में मिलता है वह कहीं संभव नहीं हुआ ! आपकी विद्वता और अनूठी शैली के संगम को, हो सकता है लोग समझने में अभी बरसों लें, मगर आपका यह प्रवाह , हिन्दी को नयी दिशा और सोंच देने में समर्थ हुआ है ! अगर मुझे अपना मनचाहा गुरु बनाने को कहा जाए तो वह निस्संदेह
जवाब देंहटाएंसलिल वर्मा ही होंगे !
काहे पाप लगाते हैं बड़े भाई! हम तो पहली कक्षा के अंतिम बेंच पर बैठने वाले (अनुज अरुण चन्द्र रॉय से चुराई हुई पंक्तियाँ) विद्यार्थी हैं! सीखना तो हमारा चल रहा है आप लोगों की मार्फत!! प्रणाम!
हटाएंSansmaran mode :-(
जवाब देंहटाएंहार की जीत वाले सुदर्शन जी को देखने का पुन्य नहीं मिला बाकी
जवाब देंहटाएंआपसे मिलने के बाद ऊ अफसोस जाता रहा ....... अच्छा किये जो
उनका नाम नहीं गिनाये जो आप का सम्मान करते हैं काहे से की जितना
टाइम हजार नाम गिनाने में ( जिसमें -हमारा ज़िकर सबके बाद आता …) खरच हो उको ब्लॉग लिखने में लगाना सही होगा ।
आपका ब्लॉग पढ़ के आँखी का क्या बात है मन भींग जाता है, बस अइसहीं
सबके 'सुदर्शन' बने रहिये (+ हमारे भी )
आपको पढ़ते हुए अचानक फिसलता है मुँह से - क्या लिखते हैं सलिल भाई ! फिर सुनाते हैं, बचपन के कहानी से कम नहीं लगता संस्मरण .
जवाब देंहटाएंआप मेरे लिए किसी सेलिब्रेटी से कम नहीं
भावनात्मक रिश्तों के इर्द-गिर्द बुनी आपकी हर पोस्ट कुछ न कुछ सोचने को विवश करती है.
जवाब देंहटाएंकिसी के लिए लम्बी उम्र की दुआ करने का मन करता है.
विश्वास को तोड़ने वाली कहानियां जहाँ हर रोज जन्म लेती हों , वहाँ अविश्वास अस्वाभाविक नहीं है , विषेशकर हमारे समाज में स्त्रियों के लिए !!
जवाब देंहटाएंमगर फिर भी कुछ लोग विश्वास बनाये रखते हैं। ख़ुशी और दुःख दोनों एक साथ महसूस किय इस संस्मरण को पढ़ते हुए !
aapki to baat hi alag hai ,mere bhai......anubhavon ko ek naye andaaz men pesh kar dete hain aur seekhne ke liye bahut kuch de dete hain.......
जवाब देंहटाएंसमय के साथ कहानियों में कभी कोई बहुत ज्यादा बदलाव नहीं होता बस स्थान और कहानी के किरदार बदलते रहते है, इसलिए आज भी बचपन की कहानियाँ हमें प्रासंगिग लगती है कहानी थोड़ी भिन्न पर तत्व एक ही रहता है अच्छाई बुराई का !
जवाब देंहटाएंकिसी व्यक्ति के विचारों से प्रभावित होना व्यक्ति से प्रभावित होना दो अलग बाते है ! लेकिन विचार जब प्रभावित करते है तो जाहिर सी बात है उस व्यक्ति से मिलने की बात करने की उत्सुकता होती ही है, पुरुष और महिला ब्लॉगर में एक परिपक्व मानसिकता हो तो मित्रता करने में परिचय बढ़ाने में कोई हर्ज नहीं बल्कि मै तो मित्रता के रिश्ते को हर रिश्ते से अजीज समझती हूँ लेकिन उन से जुड़े दूसरे रिश्ते तो नहीं समझते ना इस बात को ! घर के कितने लोग इस रिश्ते को सहजता से ले पाते है ? अभी भी हमारे समाज में बहुत पढ़े लिखे लोगों में भी संकुचित मानसिकता घर किये हुए है ! दूसरी बात जान पहचान का मित्रता का रिश्ता भी जब भावनात्मक बनने लगे तो अन्य रिश्तों की तरह बंधन बन जाता है और अंत वही होता जो आपने बताया है !
जवाब देंहटाएंपोस्ट का अंतिम भाग कुछ परेशान कर गया . नंबर एक्सचेंज करना क्या इतना दुखदायी हो सकता है ....नंबर ब्लॉक का ऑप्शन भी तो होता है...पता नहीं पूरा घटनाक्रम क्या है पर बहुत दुखद है...उन महिला के शीघ्र स्वस्थ होने की शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंनिदा फाज़ली की पंक्तियाँ याद आ गईं-
जवाब देंहटाएंहर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जब भी किसी को देखना कई बार देखना।' :(
...अंतिम हिस्सा पढ़ कर परेशान हूं...
जवाब देंहटाएंसलिल भाई की कोई हार नहीं, जीत ही जीत है। आप ऐसे उस्ताद हैं जो हकीकत से किस्सा बुन देते हैं और कथा में हकीकत के तारे जड़ देते हैं। आपकी बात के, आपके बात कहने के लहजे के सदके!
जवाब देंहटाएंRuk ruk ke padha lekin padha...behad achha laga...
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंकैसे-कैसे लोग ..बहुत सोच विचार कराती है आपका यह आलेख .... 'हार की जीत' जैसा ह्रदय परिवर्तन आज शायद ही किसी को देखने को मिले ..
जवाब देंहटाएंदादा जाने कैसा कैसा जी हो आया पढ़ कर......
जवाब देंहटाएंएक बात समझी हूँ कि जो लोग संवेदनशील हैं उसको सोच समझ कर विश्वास करना चाहिए !!
आपने जिन किसी का भी ज़िक्र किया उनके लिए बड़ा दुःख हुआ !!
सादर
अनु
एक अदृश्य सी दीवाल बनी रहती है जब तक सामने बैठ कर बतिया न लें। ब्लॉग ने बहुतों से मिलाया है।
जवाब देंहटाएंजो जैसा होता है उसे ऐसे मिल ही जाते हैं ... प्रकृति भी यही कोशिश करती है ... अब आप इतने संवेदनशील हैं तो आपको अच्छे लोग मिलना स्वाभाविक है .. और सच कहो तो रिश्तों के अलावा और बाकि भी क्या रहता है जीवन में ...
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी आपकी भावनात्मक पोस्ट ...
विश्वास और अविश्वास दोनों का अस्तित्व हमेशा से रहा है और रहेगा, न सब बाबा भारती हो सकते हैं और न ही सब खडगसिंह। सिक्स्थ सेंस सक्रिय हो तो प्राय: निराश होने का अवसर न ही आये।
जवाब देंहटाएंजिन एक दो घटनाओं का जिक्र आपने किया, बिना इजाजत किसी का नंबर दूसरे को न देना गलत नहीं। स्वाभाविक है आपने भी इसे गलत नहीं ही समझा होगा तभी तो उनसे आपके संबंध ओइसहिं बने रहे :) साल भर बाद उन्हीं का फ़ोन आपके पास आना आपकी छवि की जीत ही है।
विश्वास तोड़ना नमकहरामी से कम नहीं, इस बारे में गुरुग्रंथ साहब को लिपिबद्ध करने वाले भाई गुरदास जी की एक कथा है, कभी सात्विक मोड में होऊंगा तो आपसे शेयर करूंगा :)
फ़िलहाल तो सबका मंगल हो कल्याण हो, यही कामना करता हूँ।
बहुत सुन्दर वर्णन यथार्थ का ....बिना लाग-लपेट के बहुत अच्छा लगा ......
जवाब देंहटाएंबेहद दुःख हुआ अंतिम अंश पढ़कर.....मैं तो समझ रहा था कि जब दो साहित्यिक लोग मिलते हैं तो कुछ वैसी अनुभूति होती होगी जैसी लहुराबीर, वाराणसी में ( मैंने ये सुना है ) प्रेमचंद,जयशंकर प्रसाद आदि साथ मिलते थे और अपनी रचनाओं और समाज की चर्चा किया करते थे |
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुतिकरण.....
नयी पोस्ट@भजन-जय जय जय हे दुर्गे देवी
बहुत सही लिखा है...| हाँ जिस घटना का जिक्र किया है आपने उसे जान कर बहुत दुःख हुआ...| अक्सर नहीं पता होता कि राम के भेष में कब रावण मिल जाए...शायद इसलिए महिलाओं को आज भी मजबूर किया जाता है कि वो किसी लक्षमण रेखा में बंध कर रहे...|
जवाब देंहटाएंज़्यादा दोषी वो पुरुष ब्लोग्गेर है जिसने किसी के विश्वास का अनुचित लाभ उठाया...पर दुर्भाग्यवश उसका फल वो महिला भुगत रही...क्योंकि चाहे हम लाख कहे कि हम बहुत आधुनिक हो चुके हैं...पर सच्चाई यही है कि आज भी अग्नि-परिक्षा औरत को ही देनी होती है...|
उन महिला के लिए मेरी दुआएँ कि वो अपना आत्मबल जुटा पाएँ और मानसिक-शारीरिक रूप से पूरी तौर से स्वस्थ रहे...|
कौन नम्बरदार है और कौन नम्बरी - यह जानना सुदर्शन की कहानी पढ़ कर नहीं आता आजकल। हाथ जलाने से आता है! :-(
जवाब देंहटाएंओह! मैं आपकी पोस्ट को आपके मज़ेदार पोस्टों की तरह पढ़कर आनंद ले रही थी, लेकिन यह घटना जो आपने बताई, डराने वाली है। हालांकि साहित्य जगत के नामीगिरामी लोग ऐसे मामलों में बदनाम हैं, तो यह तो ब्लॉग की एक अनजानी सी दुनिया है। आज की दुनिया में वाकई विश्वास बहुत कम लोगों पर होता है। इसलिए हम तो जिसका लिखा पसंद आता है, पढ़कर कट लेते हैं। और हर ब्लॉग पर जाकर वाह, क्या खूब, क्या बात जैसे कमेंट भी नहीं लिखे जाते हमसे, ताकि वह बंदा पलटकर हमसे कमेंटदारी निभाए। बहुत से असुरक्षा के शिकार लोग अपनी पीठ थपथपाए जाने के लिए बेताब रहते हैं। वैसे बहुत से लोगों का लिखा पढ़कर भी उनके बारे में अंदाज़ा होता है, जैसे कि आप जितने दिल से लिखते हैं, ऐसे लोग बुरे हो ही नहीं सकते।
जवाब देंहटाएंआपकी बातों से लगने लगा है कि मुझे भी एक डिस्क्लेमर लगाना होगा कि मेरी पोस्टों को पढ़कर मेरे बारे में राय बनाने वाले अपने रिस्क पर ही राय बनाएँ. आपकी राय के विरुद्ध आच रण की स्थिति में इस ब्लॉग के एकमेव कर्ता-धर्ता का कोई दोष नहीं माना जाएगा!!
हटाएं:)
हटाएंअरे :(
जवाब देंहटाएंअंतिम वाला हिस्सा पढ़ कर बहुत दुःख हुआ :(
हम तो सोचे थे ये कमेन्ट लिखने के लिए, कि आपने मेरा भी नंबर खोज कर निकाला था कहीं से...और फिर सरप्राईज दिया था आपने कॉल कर के, सवा बारह बजे रात..
आज बल्कि अभी आपका यह लेख पढ़ा. अंतिम अंश कुछ कष्टप्रद जरुर है पर संस्मरण अच्छा है. मैंने आजतक किसी भी ब्लॉगर को अपनी तरफ से पहले फोन नहीं किया न ही नंबर लिया. पर बहुत से ब्लॉगर के फोन मेरे पास आ चुके हैं. अच्छा लगता है बात करके. मुझे बहुत अच्छे से याद है एक बार आपने भी मुझे फोन किया था, बहुत पहले. तब मैं बहुत दिनों से 'गायब' था और आप ने मेरा हाल चाल पूछने के लिए फोन लगाया था. पता नहीं आपको याद है या नहीं पर मैं तो भूल नहीं सकता. :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभावनाओं और संवेदनाओं की ‘अति‘ अंततः दुख का कारण बनती हैं।
जवाब देंहटाएंकितनी विचित्र बात है कि भावुकता का अतिरेक सृजन भी कराता है और कभी-कभी विध्वंस भी !
दुखद उद्धरण है। दूसरों को क्षति पहुँचने वाले लोगों की कमी नहीं है। अंजान लोगों से नंबर लेने-देने में एहतियात तो बरतनी ही पड़ेगी। वैसे तो काँटों से ही बचना चाहिए,फिर भी छोटे खोंयते पर टांका लगा लिया जाये तो बड़े नुकसान से बचा जा सकता है।
जवाब देंहटाएंशुरू से अंत तक .... बिना रूके पढ़ते गये
जवाब देंहटाएंसबकी अपनी-अपनी विचारधारा .... पर ऐसा लेखन आप ही कर सकते हैं
सबके बस की बात भी नहीं है यह
विचारों का यह संगम साझा करने के लिये आभार
सादर